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Friday, March 29, 2024

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किसानों के लिए उठाने होंगे ठोस कदम

समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी सराहनीय, पर काफी नहीं केंद्र सरकार ने धान समेत 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी कर किसानों को बड़ी राहत दी है. लंबे अरसे से न्यूनतम समर्थन मूल्य में स्वामीनाथन आयोग के अनुरूप बढ़ोतरी की मांग किसान संगठनों द्वारा की जा रही है. हालांकि, घोषित की गयी […]

समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी सराहनीय, पर काफी नहीं

केंद्र सरकार ने धान समेत 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी कर किसानों को बड़ी राहत दी है. लंबे अरसे से न्यूनतम समर्थन मूल्य में स्वामीनाथन आयोग के अनुरूप बढ़ोतरी की मांग किसान संगठनों द्वारा की जा रही है. हालांकि, घोषित की गयी बढ़ोतरी स्वामीनाथन आयोग और सरकार द्वारा किये वादों के अनुकूल नहीं है.

फिर भी, एमएसपी के बदले फार्मूलों पर मूल्य बढ़ोतरी की इस घोषणा को फौरी राहत के तौर पर देखा जाना चाहिए. खेती-किसानी को लाभ का सौदा बनाने और खेती में लगे परिवारों को संकट से उबारने के लिए बड़े प्रयासों की दरकार है. कृषि खर्च और लागत के सापेक्ष लाभ देने की सरकार की इस कोशिश पर विशेषज्ञ की राय के साथ इन-दिनों की विशेष प्रस्तुति…

इस बात में कोई शक नहीं है कि सरकार ने एमएसपी बढ़ाये जाने की घोषणा चुनाव को देखते हुए ही की है. इसका सीधा अर्थ है कि सरकार ने चुनाव का बिगुल बजा दिया है और इसमें सबसे पहले किसान-मतदाताओं को लुभाने की कोशिश नजर आती है. लेकिन, इसमें भी कोई शक नहीं है कि पहली बार देश में खरीफ की 14 फसलों के लिए एमएसपी में बढ़ोतरी की गयी है. निश्चित रूप से यह एक अच्छा कदम है. हालांकि, धान की एमएसपी में पहले भी बढ़ोतरी की जा चुकी है,

लेकिन एक साथ 14 फसलों पर कभी इतनी बढ़ोतरी नहीं हुई थी. अब सवाल यह उठता है कि पिछले आम चुनाव में भाजपा ने जो वादा किया था, क्या यह बढ़ोतरी उसके अनुकूल है? यह एक बड़ा सवाल है, जिस पर लोगों का शायद ही ध्यान जा रहा है. दरअसल, एमएसपी बढ़ोतरी के फॉर्मूले को ही सरकार ने बदल दिया है, इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है. सीधे-सीधे यहां तथ्यों की चालबाजी की गयी है.

फसल मूल्य फॉर्मूला

जब भी हम किसी फसल की कीमत निकालते हैं, तो इसमें कई तरह के खर्चों और लागतों को देखना अहम हो जाता है. मसलन, किसान ने कितनी बिजली, डीजल तेल की खपत की, खाद-पानी पर कितना खर्च किया वगैरह. इसे ए2 (एक्चुअल पेड आउट कॉस्ट यानी वास्तविक लागत) कहते हैं. अब इसके साथ किसान परिवार के सदस्यों की मेहनत-मजदूरी या बाहर से मजदूर मंगाकर लाये गये लोगों की मजदूरी भी है, जिसे एफएल (फैमिली लेबर) कहते हैं.

इन दोनों को मिलाकर कहेंगे- ए2 + एफएल. एक और खर्च भी है- खेती के लिए किराये पर ट्रैक्टर या कटाई आदि के लिए बड़े-बड़े मशीनों को किराये पर लिया जाना. इस पर खर्च और ब्याज वगैरह के साथ ही किसान की अपनी जमीन का रेंटल वैल्यू (किराया) को भी जोड़ा जाता है, जिसे सी2 (कम्प्रीहेंसिव कॉस्ट यानी व्यापक लागत) कहते हैं. इस सी2 पर ही 50 प्रतिशत देने की बात हो रही थी और स्वामीनाथन आयोग ने यह कहा था कि सी2 लागत पर ही किसानों को 50 प्रतिशत का लाभ देना चाहिए. लेकिन, इस सरकार ने सी2 के बजाय इसको ही ए2 + एफएल कर दिया और इसी पर सरकार दावा कर रही है कि उसने किसानों को लाभ दिया है. इस तरह से किसानों की लागत पर समर्थन मूल्य देने का यह तरीका पूरी दुनिया में कहीं नहीं दिखता. हर कहीं सी2 पर ही किसानों को लाभ दिया जाता है, क्योंकि यह बड़ी लागत है.

किसानों का नुकसान ही होगा

अब सरकार द्वारा सी2 कॉस्ट को ए2 + एफएल करने का नुकसान क्या हुआ, इसे देखते हैं. धान पर 200 रुपये बढ़ाकर सरकार ने इसकी एमएसपी 1,750 रुपये कर दी है. यह बढ़ोतरी ए2 + एफएल पर 50 प्रतिशत लाभ देकर की गयी है. अगर धान की सी2 लागत पर 50 प्रतिशत लाभ दिया जाये, तो इसमें 590 रुपये और देना पड़ेगा और तब धान की एमएसपी 2,340 रुपये प्रति क्विंटल होगी. इसका सीधा अर्थ है कि किसानों को प्रति क्विंटल धान पर 590 रुपये का घाटा हुआ है.

इसी तरह से मक्के की फसल पर बढ़ोतरी के बाद प्रति क्विंटल 1,700 रुपये दिया जा रहा है. लेकिन, अगर सी2 पर 50 प्रतिशत लाभ दिया गया होता, तो किसानों को मक्के पर 560 रुपये प्रति क्विंटल और मिलते और तब मक्के की एमएसपी 2,260 रुपये प्रति क्विंटल होती. कुल मिलाकर देखें, तो सरकार ने तथ्यों की चालबाजी से किसानों का बहुत नुकसान किया है.

किसानों की बड़ी संख्या घाटे में

दूसरी बात यह है कि शांता कुमार कमिटी के अनुसार, भारत में महज छह प्रतिशत किसानों को एमएसपी मिलती है. इससे जाहिर है कि महज छह प्रतिशत किसानों को ही सरकार ने 50 प्रतिशत लाभ दिया है, वह भी ए2 + एफएल पर. बाकी जो 94 प्रतिशत देश में किसान हैं, उनके लिए सरकार के पास लाभ की कोई योजना नहीं है. ये 94 प्रतिशत छोट-छोटे किसान हैं और ये सबसे ज्यादा घाटे में रहते हैं. यहां सबसे बड़ी विडंबना यह है कि बड़े-बड़े किसान नेता भी एमएसपी पानेवाले महज छह प्रतिशत किसानों की ही मांग करते आ रहे हैं कि एमएसपी पर 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी की जाये. किसान आंदोलन और किसान नेता ये बातें अच्छी तरह से जानते हैं. यहां एक और विडंबना है, इस बढ़ोतरी के बाद देश में यह चर्चा चल रही है कि अब मुद्रास्फीति बढ़ जायेगी और चीजें महंगी हो जायेंगी.

किसानों के लिए न्यूनतम मासिक आय

किसानों की हालत और उनकी समस्याओं को मैं जहां से देखता हूं, वहां से यही नजर आता है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की जरूरत नहीं है, बल्कि ‘न्यूनतम मासिक आय’ की जरूरत है. यही निश्चित मासिक आय का एक रास्ता है, जो किसानों को संकट से बाहर निकाल सकता है, उनकी आत्महत्याओं को रोक सकता है. यह न्यूनतम आय केवल कुछ प्रतिशत किसानों के लिए न हो, बल्कि देश के सभी किसानों के लिए होना चाहिए. इस निश्चित आय का अर्थ यह है

कि किसानों को हर महीने 18,000 रुपये मिलने चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार हर किसान को अठारह हजार का चेक काटकर दे दे. बल्कि इसका मतलब यह है कि जो भी किसानों की आय बनती है, चाहे वह एमएसपी से हो या भावांतर योजना से हो, या फिर फार्मर्स प्रोडक्शन कंपनियों के माध्यम से हो, किसानों को हर महीने 18,000 रुपये की आमदनी होनी चाहिए. इसे ऐसे समझते हैं, अगर बिहार में एक किसान को उसकी एक एकड़ जमीन से प्रतिमाह 10,000 रुपये की आय होती है, तो बाकी 8,000 रुपये सरकार उस किसान को दे, क्योंकि उस किसान ने अपनी मेहनत से देश के लिए अन्न उपजाया है. पूरी दुनिया में यही एक रास्ता है, जो किसानों को खेती के संकट से निकाल सकता है.

एमएसपी के दायरे से बाहर निकलें

अब सरकार यह कहती है कि उसने एमएसपी बढ़ाकर ऐतिहासिक काम किया है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि खरीफ की फसलों पर एमएसपी देने से सरकार के बजट पर कुल 15,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त भार आयेगा, जबकि अपने एक अध्ययन में क्रेडिट स्विस बैंक यह कहता है कि सातवां वेतन आयोग जब पूरे भारत में लागू हो जायेगा, तब 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का भार आयेगा. मजे की बात यह है कि इस 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये को सरकार नौकरीपेशा वाली केवल एक प्रतिशत जनसंख्या पर खर्च करेगी, लेकिन, देश की 52 प्रतिशत की किसान जनसंख्या पर मात्र 15,000 करोड़ रुपये खर्च करने को सरकार ऐतिहासिक बता रही है.

क्या आपको यह बात सरकार की चालबाजी नहीं लगती? सरकार ने जिस तरह से एमएसपी वृद्धि को ऐतिहासिक बताया है, इसे तोड़ने की जरूरत है और किसानों तक यह तथ्य और चालबाजी की जानकारी पहुंचाने की जरूरत है. अगर किसानों पर 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जाएं, तो न केवल उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था दौड़ने लगेगी. अगर सरकार किसानों की वाकई मदद करना चाहती है, तो उसे एमएसपी के दायरे से बाहर निकलकर देखना होगा.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

आत्महत्या करने वाले 80 फीसदी किसान इन छह राज्यों के

राज्य 2014 2015 2016

छत्तीसगढ़ 755 954 682

कर्नाटक 768 1,569 2,079

मध्य प्रदेश 1,198 1,290 1,321

महाराष्ट्र 4,004 4,291 3,661

तमिलनाडु 895 606 381

तेलंगाना 1,347 1,400 645

संपूर्ण देश 12,360 12,602 11,370

प्रमुख फसलों की उत्पादन लागत के राज्यवार आंकड़े

राज्य धान गेहूं मक्का चना अरहर

पंजाब 515 562 934 — —

झारखंड 878 987 1,299 — —

मध्य प्रदेश 1,151 801 1,083 1,943 2,968

बिहार 875 1,036 952 — —

उत्तर प्रदेश 1,089 1,220 1,609 4,166 2,772

प. बंगाल 1,234 1,311 — — —

राजस्थान — 1,029 1,567 2,636 —

कर्नाटक 915 2,085 1,040 1,947 —

महाराष्ट्र — 1,527 1,811 — 4,189

नोट : लागत रुपये प्रति क्विंटल में है. आंकड़े वर्ष 2014-15 के हैं.

(स्रोत : नीति आयोग द्वारा ‘एग्रीकल्चर इकोनोमिक्स रिसर्च रिव्यू’ के तहत जारी रिपोर्ट – चेंजिंग क्राॅप प्रोडक्शन कॉस्ट इन इंडिया : इनपुट प्राइसेस, सब्स्टिट्यूशन एंड टेक्नोलॉजिकल इफेक्ट्स)

अक्तूबर-नवंबर तक करना होगा इंतजार

अभी यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ने से मुद्रास्फीति बढ़ेगी. बाजार मूल्य पर एमएसपी के प्रभाव को जानने के लिए अक्तूबर-नवंबर तक इंतजार करना होगा. एमएसपी बढ़ाने की घोषणा के प्रतिक्रिया के तौर पर रिजर्व बैंक अपनी दरों में शीघ्र कोई बदलाव करेगा, ऐसा नहीं लगता, क्योंकि बैंक कब और कितनी दरें बढ़ायेगा यह मुख्य रूप से कोर मुद्रास्फीति, तेल व मुद्रा पर निर्भर करेगा. अनुमान है कि उच्च कोर मुद्रास्फीति और तेल की कीमतों की वजह से आरबीआई अगस्त और अक्तूबर में अपनी दर बढ़ायेगा.

– इंद्रनील पैन, ग्रुप इकोनॉमिस्ट, आईडीएफसी बैंक, मुंबई

अर्थव्यवस्था पर खास असर नहीं

यह वृद्धि बहुत हद तक अनुमान के मुताबिक ही है. अगर बाजार एमएसपी से अधिक कीमत बढ़ाता है, तब मुद्रास्फीति बढ़ सकती है. एमएसपी बढ़नेे का फायदा अगर किसानों को मिलता है, तो ग्रामीण आय बढ़ेगी और इससे एनबीएफसी व ऑटोमोबाइल क्षेत्र को फायदा पहुंचेगा. हालांकि, इससे पहले भी कई बार सरकारों ने एमएसपी में संशोधन किया है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसानों को तय दरों के मुताबिक मूल्य मिल पाता है. इसलिए इसका असर जानने के लिए हमें अक्तूबर तक इंतजार करना होगा. एमएसपी बढ़ाने से सरकार पर तकरीबन 330 अरब रुपये का बोझ पड़ेगा. वैसे भी इस क्षेत्र का जीडीपी में 0.2 से 0.3 प्रतिशत से ज्यादा का योगदान नहीं है. इसलिए यह अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं करेगा.

– फोरम पारेख, फंडामेंटल एनालिस्ट- इक्विटी, इंडियाबुल्स वेंचर्स, मुंबई

बाजार मूल्य बढ़ने से हो सकती है मुद्रास्फीति

ज्वार, बाजरा, रागी व मूंग जैसी खरीफ फसलें, जिनके एमएसपी में सबसे ज्यादा वृद्धि की गयी है, उनके थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी डब्ल्यूपीआई और सीपीआई में काफी कम भागीदारी है. ऐसे में अगर उच्च एमएसपी से बाजार मूल्य में इजाफा होता है, तो मुद्रास्फीति बढ़ने की संभावना है.

वैसे भी उपभोक्ता कीमतों में वृद्धि किये बिना या उच्च खरीद लागत व सब्सिडी बिल के माध्यम से राज्य व केंद्र सरकार द्वारा दाम बढ़ाये बिना किसानों को एमएसपी में हालिया वृद्धि का उच्च लाभ मिलना मुश्किल है.

– अदिति नायर, प्रिंसिपल इकोनॉमिस्ट, आईसीआरए लिमिटेड, मुंबई

70 फीसदी किसान परिवार

आमद से अधिक करते हैं खर्च

62.6 मिलियन ऐसे भारतीय किसान परिवार अपनी आमदनी से अधिक खर्च करते हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन है.

0.35 मिलियन ही महज ऐसे किसान परिवार हैं देश में, जिनके पास 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन है और जिनकी औसत मासिक आय 41,338 रुपये है. जबकि इनका खर्च महज 14,447 रुपये ही है.

0.39 फीसदी किसान ही ऐसे हैं भारत में, जिनकी मासिक बचत 25,000 रुपये से अधिक होती है.

85 फीसदी से अधिक खेती योग्य जमीन पर ऐसे छोटे किसानों द्वारा खेती की जाती है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि है.

(नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के 2017 तक के आंकड़ों पर आधारित)

देशभर में करीब 70 फीसदी किसान परिवार आमद से अधिक खर्च करते हैं. यही कारण है कि उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है. विविध सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के हवाले से ‘इंडिया स्पेंड’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देशभर में आधे से अधिक किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या की बड़ी वजह यही है. खेती संबंधी कार्यों के लिए हासिल कर्ज के अलावा स्वास्थ्य आदि के संदर्भ में बढ़ते खर्च के कारण वर्ष 2012 के बाद से किसानों पर आर्थिक बोझ अत्यधिक बढ़ गया है. इन आंकड़ों के माध्यम से हालात की भयावहता को समझा जा सकता है :

सर्वाधिक कर्ज में आंध्र व तेलंगाना के किसान

आंध्र प्रदेश देश का एेसा राज्य है, जहां करीब 93 फीसदी किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं. इसके बाद तेलंगाना (89 फीसदी) और तमिलनाडु (82 फीसदी) का नंबर है, जबकि केरल (77.7) और कर्नाटक (77.3) इस लिहाज से क्रमश: चौथे और पांचवें नंबर पर हैं. किसानों के कर्ज के बोझ में दबे होने का राष्ट्रीय औसत 52 फीसदी है.

पिछले दो वर्षों में नहीं आये किसानों की आत्महत्या के अधिकृत आंकड़े

वर्ष 2016 और 2017 में देशभर में किसानों द्वारा किये गये आत्महत्या के सटीक आंकड़े संबंधित संगठन द्वारा जारी नहीं किये गये. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से प्रतिवर्ष ये आंकड़े जारी किये जाते हैं. हालांकि, इसके पीछे एक तर्क यह दिया गया कि कई राज्यों ने ये आंकड़े मुहैया नहीं कराये. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015 में देशभर में 8,000 किसानों और 4,595 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की थी. हालांकि, वर्ष 2016 में गृह मंत्रालय ने संबंधित प्रोविजनल रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक उस वर्ष 6,351 किसानों और 5,019 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की थी. ‘इंडिया स्पेंड’ के मुताबिक, वर्ष 1995 के बाद से अगले दो दशकों में तीन लाख से अधिक भारतीय किसानों ने आत्महत्या की है.

कर्जमाफी नहीं है काफी

उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार ने हाल ही में बड़े स्तर पर किसानों का कर्ज माफ किया है. उत्तर प्रदेश में यह 36,359 करोड़ और महाराष्ट्र में यह 30,000 करोड़ रुपये रहा है. आम तौर पर किसानों को आर्थिक राहत मुहैया कराने के लिए राज्य सरकारें खेती संबंधी विविध लोन को समय-समय पर माफ कर देती हैं, लेकिन सीमांत किसानों को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिल पाता है. किसानों की समस्याओं का समाधान करने के लिहाज से कर्जमाफी कारगर उपाय नहीं है. अर्थशास्त्रियों ने इस कारण अन्य क्षेत्रों में व्यापक विसंगतियां होने की आशंका जाहिर की है, जिसका असर कृषि क्षेत्र पर भी होगा.

भारतीय खेती की बड़ी चुनौतियां

मौजूदा दौर में खेती-किसानी के सामने अनेक गंभीर चुनौतियां हैं. कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :

बीज, खाद और सिंचाई की बढ़ती लागत.

सरकार द्वारा खरीदे जाने वाले अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य का कम होना.

कोल्ड स्टोरेज व वेयरहाउस जैसे ढांचों का अभाव.

85 फीसदी से अधिक किसानों का बीमा के दायरे से बाहर होना.

खेती का रकबा दिन-ब-दिन कम होना़

खरीफ की फसलों पर एमएसपी देने से सरकार के बजट पर कुल 15,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त भार आयेगा, जबकि अपने एक अध्ययन में क्रेडिट स्विस बैंक यह कहता है कि सातवां वेतन आयोग जब पूरे भारत में लागू हो जायेगा, तब 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का भार आयेगा. मजे की बात यह है कि इस 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये को सरकार नौकरीपेशा वाली केवल एक प्रतिशत जनसंख्या पर खर्च करेगी.

देविंदर शर्मा

कृषि अर्थशास्त्री

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