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हूल दिवस विशेष : शोषण, अत्याचार और जमीन हड़पने के खिलाफ हुआ था संताल हूल

अनुज कुमार सिन्हा अंगरेजी शासन में देश में कई बार आदिवासियाें ने शाेषण, अत्याचार आैर जमीन हड़पने के खिलाफ विद्राेह किया. झारखंड वह क्षेत्र है, जहां के आदिवासियाें ने सबसे ज्यादा संघर्ष किया. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे संघर्षाें का बहुत याेगदान रहा. संताल विद्राेह, काेल विद्राेह, बिरसा मुंडा का उलगुलान जैसे आंदाेलन इन्हीं विद्राेहाें […]

अनुज कुमार सिन्हा
अंगरेजी शासन में देश में कई बार आदिवासियाें ने शाेषण, अत्याचार आैर जमीन हड़पने के खिलाफ विद्राेह किया. झारखंड वह क्षेत्र है, जहां के आदिवासियाें ने सबसे ज्यादा संघर्ष किया. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे संघर्षाें का बहुत याेगदान रहा. संताल विद्राेह, काेल विद्राेह, बिरसा मुंडा का उलगुलान जैसे आंदाेलन इन्हीं विद्राेहाें में शामिल हैं.
अगर अंगरेजाें के खिलाफ, जमींदाराें के खिलाफ, शाेषकाें के खिलाफ किसी समुदाय ने सबसे ज्यादा सशस्त्र संघर्ष किया, शहादत दी, ताे वे झारखंड क्षेत्र के आदिवासी थे. 30 जून 1855 काे संतालपरगना के भाेगनाडीह में सिदाे, कान्हू, चांद आैर भैरव नामक चार भाइयाें ने दस हजार संतालाें के साथ संघर्ष का बिगुल फूंका था. इसे देश संताल हूल के नाम से जानता है. इस विद्राेह का क्षेत्र बड़ा व्यापक था. संतालपरगना से लेकर हजारीबाग आैर बंगाल के कई जिलाें के संताल इस विद्राेह में शामिल हुए थे.
ऐसी बात नहीं है कि 30 जून, 1855 काे अचानक संतालाें ने हथियार उठा लिया था. वर्षाें तक जमींदाराें-महाजनाें का अन्याय झेला, अत्याचार झेला, अंगरेज अफसराें से शिकायत पर शिकायत करते रहे, जब काेई कार्रवाई नहीं हुई तब मजबूर हाे कर संतालाें ने हथियार उठाया था. उनके पास काेई आैर विकल्प बचा नहीं था. जमींदाराें आैर महाजनाें के खिलाफ शुरू हुआ यह संघर्ष बाद में अंगरेजाें के खिलाफ संघर्ष में तब्दील हाे गया था. संघर्ष का मूल कारण था संतालाें की जमीन पर गैर-आदिवासियाें द्वारा कब्जा जमाना, उनकी फसल काे नष्ट करना, कर्ज देकर संतालाें काे फंसाना, गुलाम बनाना, सरकार द्वारा जमीन का लगान कई गुना बढ़ा देना आैर अंगरेज अफसराें द्वारा संताल लड़कियाें का शाेषण करना.
ऐसी घटनाआें से संतालाें में आक्राेश था. सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि 18वीं शताब्दी के अंत आैर 19वीं शताब्दी के आरंभ में आेड़िशा, धालभूम, मानभूम, बड़ाभूम, छाेटानागपुर, पलामू, हजारीबाग, मिदनापुर, बांकुड़ा आैर वीरभूम से संताल दामिन-ई-काेह इलाके में जा कर बस गये थे. वह पूरा इलाका घना जंगल था. संतालाें ने जंगल साफ किया आैर उसे रहने के लायक बनाया, वहां बस गये. चूंकि संतालाें ने जंगल काे साफ किया था, इसलिए उस पर अपना हक मानते थे. 1793 में अंगरेजाें ने बंदाेबस्ती आरंभ की थी, इससे संतालाें की जमीन उनके हाथ से निकलते जा रही थी. नये-नये जमींदार पैदा हाे गये थे.
धीरे-धीरे जमींदाराें आैर महाजनाें ने संतालाें की जमीन पर कब्जा कर लिया. जाे थाेड़ी जमीन बची हाेती, जिस पर संताल खेती करते, उन खेताें में भी जमींदार जानवर भेज कर फसल काे नष्ट करा देते. संतालाें की फसल नष्ट हाे जाती. मजबूरन ये संताल महाजनाें से कर्ज लेते. एक रूपये कर्ज लेने पर पांच रुपये सूद देने पड़ते आैर उसके बाद भी कर्ज खत्म नहीं हाेता. महाजन जबरन जमीन लिखवा लेते. पैसे नहीं देने पर उसके बदले में पीढ़ी दर पीढ़ी संतालाें काे जमींदाराें के घर पर मजदूरी करनी पड़ती. वह भी मुफ्त में. ये महाजन संतालाें के पशु भी छीन लेते.
उसी दाैरान संतालपरगना में रेल लाइन बिछाने का काम चल रहा था. अधिकांश रेल अफसर अंगरेज हुआ करते थे. संताल लड़कियाें काे उठा कर ले जाते थे. विराेध करने पर संतालाें की पिटाई कर दी जाती थी. संतालाें के पास बहुत कम जमीन बची थी. जाे जमीन थी, उसका लगान सरकार ने बढ़ा दिया था. धीरे-धीरे राजस्व ग्राम की संख्या बढ़ते जा रही थी. आंकड़े बताते हैं कि 1837-38 में दामिन-ई-काेह से सिर्फ 6682 रुपये राजस्व के ताैर पर वसूला जाता था. लेकिन 1846-47 आते-आते यह बढ़ कर 36,407 रुपये आैर 1854-55 में 58,033 रुपये हाे गया था. जाहिर था लगान का यह भार संतालाें पर ही पड़ा था. वे देने में असमर्थ थे. अंदर ही अंदर संतालाें में गुस्सा पनप रहा था.
हूल के पहले भी कई बार संतालाें ने छाेटा-छाेटा विराेध आरंभ कर दिया था. संतालाें पर जाे जुर्म हाे रहा था, उसका जवाब देने के लिए वीर सिंह माझी नामक युवक सामने आया. उसने लखीमपुर में एक दल बनाया जिसमें कायले प्रमाणिक आैर दमन माझी समेत कुछ अन्य संतालाें काे शामिल किया. इस दल का तर्क था कि महाजनाें-जमींदाराें काे उसी की भाषा में जवाब दिया जाये. इस दल ने लूटपाट आरंभ की. वीर सिंह माझी के खिलाफ शिकायत की गयी आैर उसे जुर्माना भरने का आदेश दिया गया. नहीं देने पर वीर सिंह के साथ मारपीट की गयी. इसके बाद ताे महाजनाें के घराें पर लगातार हमले हाेने लगे. वीर सिंह माझी काे समर्थन भी मिलता था.
इसी दाैरान एक बड़ी घटना घटी. लिट्टीपाड़ा के एक ईमानदार संताल विजय माझी ने एक महाजन केना राम से उधार लिया था. दस गुना पैसा चुकाने के बाद भी उसे कर्ज मुक्त नहीं किया जा रहा था. उसकी फसल काट ली गयी, मवेशियाें काे ले लिया गया जब संताल जुट गये ताे केना राम भाग गया लेकिन कुछ दिनाें के बाद एक दाराेगा महेश दत्त काे लेकर आ गया आैर विजय माझी काे गिरफ्तार कर लिया. विजय काे जेल में ही मार दिया गया. इससे संतालाें में आक्राेश फैल गया.
अब संताल आरपार की लड़ाई लड़ने काे तैयार थे. 30 जून 1855 काे भाेगनाडीह में संतालाें ने बैठक बुलायी. दस हजार संताल आये. सिदाे, कान्हू, चांद आैर भैरव चार भाई थे.
सिदाे-कान्हू काे नेता चुना गया. उन्हाेंने जमींदाराें, शाेषकाें, महाजनाें , दिकुआें आैर अंगरेजाें के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर दिया. हूल की घाेषणा कर दी गयी. यह तय हुआ कि किसी भी हाल में कुम्हार, तेली, कर्मकार, माेमिल, समर आदि पर काेई हमला नहीं करेगा क्याेंकि ये भी शाेषित हैं. संतालाें ने तय किया कि वे काेलकाता मार्च करेंगे आैर गवर्नर जनरल से अत्याचार के खिलाफ शिकायत करेंगे. संताल तीर-धनुष आैर पारंपरिक हाथियाराें के साथ बढ़ते जा रहे थे. इसी बीच दाराेगा ने अपने सिपाहियाें के साथ संतालाें काे राेकने का प्रयास किया. उसके साथ महाजन केना राम भी था.
नाराज संतालाें ने पहले केना राम काे काट डाला. जब दाराेगा ने संतालाें काे गिरफ्तार करने की बात की ताे उस महेश दत्त दाराेगा समेत 19 लाेगाें काे भी मार डाला. युद्ध की शुरुआत हाे चुकी थी. संताल बढ़ते जा रहे थे. सिदाे आैर कानू इसकी अगुवाई कर रहे थे. संताल जमींदार आैर महाजनाें का सफाया करते जा रहे थे. उन्हें पता था कि अब उनकी लड़ाई अंगरेजाें आैर पुलिस से हाेगी. वे राजमहल के रास्ते भागलपुर की आेर बढ़ रहे थे. भागलपुर जेल पर हमला कर जेल में बंद कुछ विद्राेहियाें काे छुड़ाने की उनकी याेजना थी.
तब तक भागलपुर के नये कमिश्नर सीएफ ब्राउन ने भारी संख्या में फाैज की तैनाती कर दी. कई जगहाें पर अंगरेज फाैज के साथ संतालाें का संघर्ष हुआ. यह संघर्ष लंबा चला. अंगरेजाें के भारी हथियार के आगे संताल टिक नहीं सके. सिदाे गाेली के शिकार बने जबकि कान्हू काे बाद में अंगरेजाें ने पकड़ लिया आैर फांसी दे दी. सिदाे-कान्हू की माैत के बाद अंगरेज भारी पड़ गये आैर संताल हूल समाप्त हाे गया. इसके बाद अंगरेजाें ने कानून में कई बदलाव किये ताकि फिर संतालाें में काेई असंताेष नहीं फैले. यह सामान्य संताल हूल नहीं था. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ठीक दाे साल पहले हुए इस संताल विद्राेह ने अंगरेजाें के खिलाफ जाेरदार संघर्ष कर अपनी बहादुरी का परिचय दे दिया था.

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