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पर्याप्त सरकारी मदद के जरिये ही पहुंच सकती हैं सभी तक स्वास्थ्य सेवाएं

भारत के विशाल और विविध भू-भागों में रहने वाली आबादी तक समुचित स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती रही है. इसमें बड़ी कमी सरकारों की रही है, जो अपने कुल बजट का महज एक फीसदी तक हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य मद में खर्च करती रही है. स्वास्थ्य क्षेत्र के समूच परिदृश्य समेत इससे संबंधित […]

भारत के विशाल और विविध भू-भागों में रहने वाली आबादी तक समुचित स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती रही है. इसमें बड़ी कमी सरकारों की रही है, जो अपने कुल बजट का महज एक फीसदी तक हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य मद में खर्च करती रही है. स्वास्थ्य क्षेत्र के समूच परिदृश्य समेत इससे संबंधित अन्य पहलुओं को इंगित कर रहा है आज का वर्षारंभ …

अनंत कुमार

एसोसिएट प्रोफेसर, जेवियर समाज सेवा संस्थान, रांची

किसी भी राष्ट्र के विकास एवं प्रगति में उसके नागरिकों के स्वास्थ्य की अहम भूमिका होती है. ऐसे में, भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए उसके नागरिकों को सार्वभौमिक, सुलभ एवं सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना एक बड़ी जिम्मेदारी व चुनौती है. खासकर, उन परिस्थितियों में, जब हम अपर्याप्त वित्त, मानव संसाधन एवं स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में कमी, कार्यान्वयन की चुनौतियां, भ्रष्टाचार, दुर्गम एवं दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंच जैसी समस्याओं से अब भी जूझ रहे हों.

साथ ही गरीबी, अशिक्षा, जानकारी की कमी, साफ-सफाई, स्वच्छता एवं सेहत के प्रति उदासीनता जैसी समस्याओं एवं महत्वपूर्ण सामाजिक स्वास्थ्य निर्धारकों की उपेक्षा दूसरी बड़ी चुनौती है, जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तीसरी बड़ी चुनौती रही है, आज भी स्वास्थ्य सेवाओं पर हम कुल सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.2 प्रतिशत ही खर्च करते हैं, जिसकी व्यापक आलोचना होती रही है. संसाधनों की कमी एवं स्वास्थ्य सेवाओं पर कम खर्च, भारत के अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मानकों को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा हैं.

वैश्विक स्वास्थ्य सेवा की रैंकिंग, (2015) हेल्थकेयर एक्सेस और क्वालिटी इंडेक्स पर भारत 154वें स्थान पर है. ऐसे में भारत के वैश्विक शक्ति बनने के दावे लक्ष्य से दूर दिखाई पड़ते हैं. हालांकि, नयी स्वास्थ्य नीति, 2017 में स्वास्थ्य व्यय को बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया है, जो कम होते हुए भी इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है.

हालांकि, नयी स्वास्थ्य नीति देश के सभी कोनों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने की बात करती है, लेकिन वर्तमान संदर्भों एवं मानव संसाधन व स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे की कमी के संदर्भ में यह मुश्किल जान पड़ता है.

धीमी पर सराहनीय प्रगति

इन कठिनाइयों एवं चुनौतियों के बावजूद, हाल के वर्षों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारी प्रगति धीमी पर सराहनीय रही है. हम कई रोगों, जैसे पोलियो, स्मॉल पॉक्स, कुष्ठ रोग, गिनी कीड़ा रोग और टेटनस को समाप्त करने में सफल रहे हैं. जीवन प्रत्याशा दर 68 वर्षों से पार कर गयी है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के सूचकांक एवं संकेतक सकारात्मक रुझान दिखाते हैं, जिनमें शिशु मृत्यु दर (आईएमआर), मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) में गिरावट और जन्म के समय लिंग अनुपात में सुधार शामिल है. एनएफएचएस-3 (2005-06) एवं 4 (2015-16) के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं की शिशु मृत्यु दर (57 से घटकर 41) में गिरावट आई है.

जबकि आईएमआर में भी पिछले दशक के दौरान लगभग सभी राज्यों में विशेषकर त्रिपुरा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान और ओड़िशा में 20 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है. लिंग अनुपात (प्रति 1,000 पुरुषों की संख्या) में राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ोतरी (914 से 919) एक सकारात्मक रुझान हैं. संस्थागत प्रसव में भी बढ़ोतरी (38.7 फीसदी से बढ़कर 78.9 फीसदी) हुई है. कुल प्रजनन दर (टीएफआर) में भी गिरावट (2.7 से घटकर 2.2) आयी है, जो 2.1 के लक्ष्य के स्तर के करीब है.

वंचित रही है ग्रामीण आबादी

यद्यपि, स्वास्थ्य संबंधी ये आंकड़े सकारात्मक रुझान दिखाते हैं, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी एक बड़ी आबादी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है. शहरी इलाकों में रहने वाले अमीर लोग ही उच्च गुणवत्ता वाले स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच पाते हैं, जबकि शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीब लोग आज भी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं.

ऐसे में, ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का सुदृढ़ीकरण चौथी बड़ी चुनौती है. आज भी तमाम नीतियों एवं प्रयासों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. साथ ही, वर्षों की उपेक्षा के कारण लोगों का सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के ऊपर से विश्वास उठा है. उस विश्वास को फिर से कायम करना सरकार के लिए पांचवीं बड़ी चुनौती होगी.

निजी अस्पतालों का नियमन

आज सरकारी अस्पतालों में केवल वही जाते हैं, जो गरीब हैं या निजी अस्पतालों में जाने में सक्षम नहीं है. लोग आज बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भी निजी अस्पतालों में जाने को मजबूर हैं, जबकि निजी अस्पतालों द्वारा मरीजों का शोषण सर्वविदित है.

निजी अस्पतालों के डॉक्टरों पर बिना जरूरत के भी नैदानिक परीक्षणों की सिफारिश एवं लंबे समय तक मरीजों को आईसीयू में रखने का दबाव होता है, जिससे अस्पताल प्रबंधन ज्यादा मुनाफा कमा सके. निजी अस्पतालों का विनियमन एक महत्वपूर्ण चुनौती है.

स्वस्थ जीवन शैली अपनाने पर देना होगा जोर

आने वाले दशकों में संचारी रोगों की एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या बने रहने की उम्मीद है, जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा दोनों के लिए खतरा है.

जरूरत इस बात की भी है कि हम एचआईवी, तपेदिक, मलेरिया एवं अन्य उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारियों एवं संचारी रोगों के प्रकोप से बचाव के लिए अपने को तैयार रखें. साथ ही, पर्यावरण प्रदूषण, अनियमित जीवन शैली, धूम्रपान, उच्च वसायुक्त खानपान तथा गतिहीन जीवन शैली कीओर भी ध्यान देने की जरूरत है, जिस कारण देश में मधुमेह, कैंसर एवं हृदय संबंधी बीमारियों की दर में बढ़ोतरी हुई है.

इन परिस्थितियों में, अस्वस्थ आबादी के साथ एक विकसित देश की कल्पना बेमानी होगी. कल्याणकारी राज्य होने के नाते यह राष्ट्र एवं सरकार की जिम्मेदारी है कि अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य की सुविधाएं प्रदान करे. लेकिन, इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि कोई भी सरकार आजीवन मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं नहीं प्रदान कर सकती. ऐसे में स्वस्थ जीवन शैली अपनाने पर भी ध्यान देने की जरूरत है.

नोट : ये आंकड़े भारतीय लोक स्वास्थ्य द्वारा निर्धारित मानकों एवं मानदंडों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. जहां 2016-17 के दौरान उप-केंद्रों, पीएचसी और सीएचसी की संख्या में वृद्धि हुई, सीएचसी में समग्र विशेषज्ञ डॉक्टरों की संख्या में कमी आई है, जो अच्छे संकेत नहीं हैं. ये आंकड़े 31 मार्च, 2017 तक के हैं.

मेडिकल विशेषज्ञों की व्यापक कमी!

मार्च, 2017 के आंकड़े बताते हैं कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य सहायक (महिला)/ एलएचवी के 45.7 फीसदी एवं स्वास्थ्य सहायक (पुरुष) के 60.8 फीसदी पद, पीएचसी में एलोपैथिक डॉक्टरों के 11.8 फीसदी पद एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 75.5 फीसदी सर्जन, 58.5 फीसदी का प्रसूति एवं स्त्रीरोग विशेषज्ञ चिकित्सकों, 73 फीसदी फिजिशियन और 67.5 फीसदी बाल रोग विशेषज्ञों के स्वीकृत पद रिक्त थे.

सीएचसी में विशेषज्ञों के लिए स्वीकृत पदों की कुल 68.1 फीसदी रिक्त थीं. इसके अलावा, मौजूदा बुनियादी ढांचे की आवश्यकता के मुताबिक, 86.5 फीसदी शल्य चिकित्सकों की कमी, 74.1 फीसदी प्रसूति एवं स्त्रीरोग विशेषज्ञ, 84.6 फीसदी चिकित्सकों और 81 फीसदी बाल रोग विशेषज्ञों की कमी थी. वर्तमान में सीएचसी में 81.6 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है.

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति से उम्मीदें

पिछले साल मार्च में कैबिनेट ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को मंजूर किया था. इसका उद्देश्य सभी को स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराना तथा उचित खर्च पर अच्छी चिकित्सा उपलब्ध कराना है.

इसमें निजी क्षेत्र की सहभागिता को महत्व दिया गया है तथा ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत दवाओं और चिकित्सा से जुड़ीं चीजों को देश में ही उत्पादित करने पर जोर है. इससे पहले 2002 में स्वास्थ्य नीति बनी थी और तब से सामाजिक, आर्थिक और चिकित्सकीय लिहाज से काफी बदलाव हुए हैं और इसलिए एक नयी नीति की बहुत जरूरत थी. लेकिन इसमें स्वास्थ्य को नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं बनाये जाने की आलोचना भी हुई है. सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में लाने का लक्ष्य सतत विकास लक्ष्यों में रखा गया है, जिसे वैश्विक स्तर पर 2030 तक पूरा किया जाना है. भारत भी इस कार्यक्रम का भागीदार है. हालांकि, इस नीति में इस सच को स्वीकार किया गया है कि भारत में राज्य सकल घरेलू उत्पादन का करीब एक फीसदी ही खर्च करता है.

इसका नतीजा है कि 70 फीसदी आबादी को महंगे निजी चिकित्सा पर आश्रित रहना पड़ता है. इस नीति में लक्ष्य रखा गया है कि 2025 तक स्वास्थ्य पर होनेवाले सरकारी खर्च को बढ़ा कर 2.5 फीसदी कर दिया जायेगा. इस वर्ष दो जनवरी को सरकार ने संसद को अपने प्रयासों की जानकारी देते हुए यह भी सूचित किया है कि नीति के कार्यान्वयन में राज्यों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी.

देश में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली को बेहतरी में बदलने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों तथा निजी भागीदारों को गंभीरता से काम करना होगा. दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश आबादी साधारण सुविधाओं से भी वंचित है. इस साल सरकार की पहलकदमी के नतीजों पर नजर रहेगी कि नीतिगत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जा रही कोशिशें कहां तक पहुंची.

देश में 70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं 20 बड़े शहरों तक सीमित

भारत की 70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा शीर्ष 20 शहरों तक ही सीमित है. इसके अलावा 30 फीसदी भारतीय हर साल स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च की वजह से गरीबी रेखा की जद में आ जाते हैं. पीडब्ल्यूसी और सीआईआई ने ‘एमहेल्थ भारतीय स्वास्थ्य सेवा उद्योग में कैसे क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है’, नामक संयुक्त रूप से एक शोधपत्र जारी किया है. इस शोधपत्र के मुताबिक, भारत में 30 फीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं.

इसमें कहा गया है कि भारत अकेले वैश्विक बीमारी का 21 फीसदी बोझ झेल रहा है. दरअसल, भारत में बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच एक चुनौती है क्योंकि सहायक बुनियादी ढांचा और संसाधन अपर्याप्त हैं. इस रिपोर्ट में भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल दशा को समग्रता से दर्शाया गया. इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रति एक हजार आबादी पर केवल 0.7 डॉक्टर, 1.3 नर्स और 1.1 अस्पताल बेड हैं.

इसके अतिरिक्त, भारतीय स्वास्थ्य सेवा इकोसिस्टम में वास्तव में कुछ आंकड़े चिंताजनक हैं. इसमें सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी प्राथमिक इलाज से वंचित है. स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा की गुणवत्ता व सस्ती स्वास्थ्य सेवा को सभी के लिए सुलभ बनाने के लिए नये

तरीकों का लाभ उठाना जरूरी है.

70 प्रतिशत

निजी क्षेत्र से आता है स्वास्थ्य सेवा पर खर्च का हिस्सा, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 38 प्रतिशत है. विकसित देशों के साथ तुलना करने पर विषमता का यह आंकड़ा और भी ज्यादा चौंकाने वाला है.

तक लोगों को अपनी जेब से चुकाना होता है चिकित्सा पर हुए कुल खर्च का, जो यह बताता है कि देश में स्वास्थ्य बीमा की पहुंच बहुत कम ही लोगों तक पहुंच पाई है.

डॉलर था भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति कुल व्यय वर्ष 2011 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक, जबकि अमेरिका में यह 8,467 डॉलर और नॉर्वे में 9,908 अमेरिकी डॉलर तक था. श्रीलंका भी इस लिहाज से करीब 93 अमेरिकी डॉलर खर्च करता है.

ही महज खर्च करती है भारत सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपने सकल घरेलू उत्पादन का.

तक खर्च करता है अमेरिका अपनी जीडीपी का पब्लिक हेल्थ सेवाओं के लिए, जो दुनिया में सबसे अधिक है.

कनाडा खर्च करता है अपनी जीडीपी का सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए, जबकि अन्य विकसित देशों में आस्ट्रेलिया 9.2 फीसदी, बेल्जियम 10.1 फीसदी, डेनमार्क 8.9 फीसदी, फ्रांस 10.4 फीसदी, इटली 8.4 फीसदी, जापान 8 फीसदी, स्वीडन 9.3 फीसदी और इंग्लैंड 7.8 फीसदी खर्च करता है.

टीबी से मिल सकती है मुक्ति

पिछले दशकों के दौरान देश को टीबी की बीमारी से मुक्त करने के लिए समग्रता से काम हो रहा है. निर्धारित कार्यक्रमों के मुताबिक इस वर्ष भी इस दिशा में तेजी से काम होगा. उम्मीद है कि जल्द ही देश इस बीमारी से मुक्त हो जायेगा.

टीबी से मुक्ति के लिए वर्ष 2016 में 280 मिलियन डॉलर की रकम खर्च की गयी थी, जबकि 2017 में यह रकम बढ़ा कर 525 मिलियन डॉलर कर दी गयी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ाें के मुताबिक, भारत में वर्ष 2015 के मुकाबले 2016 में टीबी के मरीजों की संख्या में करीब चार फीसदी (28 लाख से घट कर 27 लाख) की कमी आयी.

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