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।। रेहान फजल ।। भारतीय अफसरशाही-10 : जाने-माने अर्थशास्त्री लक्ष्मीकांत झा लक्ष्मीकांत झा शायद अकेले थे जिन्हें जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई सभी का विश्वास प्राप्त था. 1937 बैच के आइसीएस अफसर लक्ष्मीकांत झा न सिर्फ शास्त्री के प्रधान सचिव रहे, बल्किउन्होंने रिजर्व बैंक के गवर्नर, अमेरिका में भारतीय राजदूत […]

।। रेहान फजल ।।

भारतीय अफसरशाही-10 : जाने-माने अर्थशास्त्री लक्ष्मीकांत झा

लक्ष्मीकांत झा शायद अकेले थे जिन्हें जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई सभी का विश्वास प्राप्त था. 1937 बैच के आइसीएस अफसर लक्ष्मीकांत झा न सिर्फ शास्त्री के प्रधान सचिव रहे, बल्किउन्होंने रिजर्व बैंक के गवर्नर, अमेरिका में भारतीय राजदूत और कई सालों तक जम्मू कश्मीर के राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पद संभाले.

बिहार के दरभंगा में जन्मे लक्ष्मीकांत झा ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज से पढ़ाई की थी. वहां के प्रो डेनिस रॉबर्ट्सन उनके वहां से आने के 20 साल बाद भी उन्हें अपने सबसे काबिल शिष्य के तौर पर याद करते थे. खुशवंत सिंह अपनी आत्मकथा ‘ट्रूथ, लव एंड लिटिल मैलिस’ में लिखते हैं कि जिस पानी के जहाज ‘कौंटे रोसो’ से वो इंगलैंड गये थे, उस पर लक्ष्मीकांत झा भी सवार थे.बकौल खुशवंत, झा को हाथ देखने और जन्म पत्री बनाने की कला में महारत हासिल थी. इसलिए खासे लहीम-शहीम होने के बावजूद लड़कियां उनकी तरफ खिंचीं चली आती थीं.

शास्त्री के सचिव : पचास के दशक में झा ने वाणिज्य मंत्रलय में लाल बहादुर शास्त्री के साथ काम किया. शास्त्री उनसे खासे काफी प्रभावित थे. इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने झा को अपना प्रधान सचिव बनाने की पेशकश की. शुरू में शास्त्री प्रधानमंत्री सचिवालय में दो सचिव रखना चाहते थे. आर्थिक मामलों के लिए लक्ष्मीकांत झा और प्रशासनिक मामलों के लिए उतने ही काबिल लल्लन प्रसाद सिंह. लेकिन, ऐसा हो नहीं पाया. झा को ये विचार जंचा नहीं कि बराबर रैंक का अफसर प्रधानमंत्री कार्यालय की जिम्मेदारी उनके साथ बांटे.

दूसरे गुलजारीलाल नंदा भी एलपी सिंह को गृह मंत्रलय से छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. इंदर मल्होत्र कहते हैं कि शास्त्री के काम के भारी बोझ, उनकी अव्यवस्थित कार्य-शैली और उनकी बैठकों के जरूरत से ज्यादा लंबा खिंच जाने की स्थिति ने झा की ताकत और प्रभाव को और बढ़ा दिया. शास्त्री की बढ़ती व्यस्तता के कारण सरकार के दूसरे विभागों के सचिवों और स्वयं शास्त्री के मंत्रिमंडल के सदस्यों के लिए उनसे मिल पाना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा था. झा अब एक विभाग के सचिव नहीं रह गये थे बल्कि शास्त्री सरकार के सारे बड़े निर्णय उनकी सलाह के बगैर नहीं लिये जा रहे थे.

जाहिर है कि कैबिनेट सचिव को झा का ये बढ़ा रुतबा पसंद नहीं आ रहा था खास कर उस समय जब झा आर्थिक मामलों के साथ-साथ घरेलू नीतियों और विदेशी मामलों में भी शास्त्री को गाइड कर रहे थे, जबकि विदेशी मामलों का उस समय तक उन्हें कोई खास अनुभव नहीं था.

अमेरिका के नजदीक: शास्त्री बहुत दिनों तक भारत के प्रधानमंत्री नहीं रह पाये. ताशकंद में उनका अचानक निधन हो गया. इंदिरा गांधी झा को पसंद तो करतीं थीं, लेकिन उनकी नजर में वो अमेरिका और पश्चिम के समर्थक थे और ऐसे शख्स का उनका सचिव बने रहना उनकी छवि के लिए परेशानियां खड़ी कर सकता था. इसलिए कुछ दिनों तक अपने पास रखने के बाद इंदिरा ने उन्हें रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाने का फैसला किया.

मोरारजी के साथ नाइट क्लब में: जाने-माने पत्रकार जॉर्ज वर्गीज ने अपनी आत्मकथा फस्र्ट ड्राफ्ट में लक्ष्मीकांत झा के बारे में बहुत दिलचस्प किस्सा लिखा है. वर्गीज लिखते हैं कि झा ने मोरारजी देसाई के साथ भी काम किया था और उनकी उनसे अच्छी बनती भी थी. जब मोरारजी उप प्रधानमंत्री थे, तो वो झा के साथ कनाडा के दौरे पर गये. उस समय कनाडा में एक और आइसीएस ऑफिसर सीएस वैंकटाचार भारत के उच्चायुक्त थे. एक दिन काम जल्दी खत्म हो जाने के बाद झा और वैंकटाचार ने मोरारजी देसाई को मनाया कि वो एक नाइट क्लब चलें. देसाई ने पहले तो मुंह बनाया, लेकिन इन दोनों ने तर्क दिया कि जिन चीजों का आप विरोध करते रहे हैं, उनको अपनी आंखों से देख लेने और उनका अनुभव कर लेने के बाद आप बेहतर ढंग से उनका विरोध कर पायेंगे.

आखिरकार तीनों लोग एक नाइट क्लब में पहुंचे. बैठते ही एक लड़की ने मोरारजी से पूछा आप क्या पीना पसंद करेंगे? मोरारजी ने बेरु खी से जवाब दिया,‘मैं शराब नहीं पीता.’ लड़की ने मोरारजी भाई की गोद में बैठने की कोशिश करते हुए चुहल की, ‘सो यू वॉंन्ट योर डेम टू बी सोबर.’ (तो आप चाहते हैं कि आपके साथी आपके सामने सोबर रहें.) स्तब्ध मोरारजी देसाई ने लड़की को रफा-दफा करते हुए कहा, ‘मुङो लड़कियां पसंद नहीं हैं.’ इसपर वो लड़की बोली, ‘तो आप सज्जन पुरु ष नहीं हैं.’ मोरारजी देसाई ने बिना कुछ पीये नाइट क्लब से उठने का फैसला किया और झा और वैंकटाचार को भी बेमन से वहां से उठना पड़ा.

‘किशन चंदर’ का फोन: 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय वो अमेरिका में भारत के राजदूत थे. उन्हीं के जमाने में अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने चीन की गुप्त यात्र की थी. एक दिन एलके अपने निवास से बाहर गये हुए थे. जब वो लौटे तो उनके सुरक्षा गार्ड ने जो एक शब्द भी अंगरेजी का नहीं जानता था, उनसे कहा, ‘एंबेसडर बहादुर के लिए किशन चंदर जी का फोन आया था.’ उन्होंने अपने सचिव से कहा कि गार्ड के पास जो नंबर छोड़ा गया है उस पर फोन मिलायें. नंबर मिलाते ही दूसरे छोर पर फोन हेनरी किसिंजर ने उठाया. किसिंजर ने उनसे पूछा, ‘रात साढ़े आठ बजे आप कहां होंगे.’ एलके ने कहा कि वो एक भोज में होंगे.

किसिंजर ने उस जगह का नंबर लिया जहां उन्हें भोज पर जाना था और कहा कि ठीक साढ़े आठ बजे मैं आप को फोन करूंगा. झा ने खुद फोन उठाया. किसिंजर लाइन पर थे, ‘अब से आधे घंटे बाद राष्ट्रपति निक्सन ये घोषणा करने वाले हैं कि जब मैं भारत और पाकिस्तान की यात्र पर था, तभी मैं बिना बताये चीन भी गया था. राष्ट्रपति चाहते हैं कि आप अपनी प्रधानमंत्री को उनका ये संदेश पहुंचा दें कि अमेरिका चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर रहा है और अगर भारत ने इसका विरोध किया, तो इसे गैर मित्रता पूर्ण हरकत माना जायेगा.’ राष्ट्रपति निक्सन ये मान कर चल रहे थे कि भारत उनके इस फैसले का विरोध करेगा. उनके अनुमान के ठीक विपरीत एल के ने इंदिरा गांधी को सलाह दी कि वो इस फैसले का स्वागत करें और उन्होंने यही किया भी.

मूर्ति कला के पारखी: अपने आइसीएस साथियों के विपरीत उन्होंने अपने होम काडर बिहार और ओड़िशा में शायद ही कुछ समय बिताया हो. झा का व्यक्तित्व बहुआयामी था. बहुत कम लोग जानते हैं कि मध्ययुगीन भारतीय मूर्ति कला के बारे में झा जितना जानते थे, कम लोग जानते थे. वो बाल बनाने के ढंग और कपड़ों के डिजाइन देख कर बता सकते थे कि मूर्ति किस समय की है. अपने कैरियर की शुरु आत में वो अपनी छुट्टियां उन पुरातत्व स्थानों में बिताते थे, जिनका लोगों ने नाम भी नहीं सुना होता था. वो बहुत ही अच्छे फोटोग्राफर थे और उनके पास पुरानी मूर्तियों की तसवीरों का अच्छा संग्रह था.

लक्ष्मीकांत झा शौकिया होमियोपैथ डॉक्टर भी थे और उनके दोस्तों का मानना था कि बीमारी की पहचान वो एलोपोथिक डॉक्टरों से बेहतर किया करते थे. एलके को शारीरिक कसरत से काफी उलझन होती थी. वो अक्सर मार्क ट्वेन को उद्धृत करते थे, ‘अपने जीवन में अकेली कसरत मैंने उन लोगों की शव यात्र में चलने में की थी जिनकी पूरी जिंदगी कसरत करते हुए गुजरी थी.’

Prabhat Khabar Digital Desk
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