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3 मई विश्व अस्थमा दिवस : सांसों पर रखें कंट्रोल
डॉ एस के अग्रवाल एमबीबीएस, एमएस, वनौषधि, अमृता पारिवारिक स्वास्थ्य केंद्र, रांची एलोपैथी में चिकित्सा का मुख्य आधार केवल दवाएं गोलियां, कैप्सूल, सूई, इन्हेलर आदि हैं. इन दवाओं से रोग के लक्षणों में निश्चित लाभ होता है, लेकिन रोग को जड़ से ठीक नहीं किया जा सकता है. परंतु आयुर्वेद के अनुसार रोगी की प्रकृति […]
डॉ एस के अग्रवाल
एमबीबीएस, एमएस, वनौषधि, अमृता पारिवारिक स्वास्थ्य केंद्र, रांची
एलोपैथी में चिकित्सा का मुख्य आधार केवल दवाएं गोलियां, कैप्सूल, सूई, इन्हेलर आदि हैं. इन दवाओं से रोग के लक्षणों में निश्चित लाभ होता है, लेकिन रोग को जड़ से ठीक नहीं किया जा सकता है. परंतु आयुर्वेद के अनुसार रोगी की प्रकृति एवं रोग की स्थिति के अनुसार दवाओं के साथ-साथ रोगी के खान-पान, रहन-सहन, दिनचर्या, मानसिक स्थिति के आवश्यक परिवर्तन से रोग को पूरी तरह से ठीक करने के लिए जरूरी है. इसके बिना सफल चिकित्सा लगभग असंभव है. उदाहरण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति को दूध या अंडे से एलर्जी के कारण दमा के लक्षण प्रकट होते हैं, तो इनसे परहेज किये बगैर दवा लेने से रोग के लक्षणों में तो कमी आ सकती है, पर रोग को पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता.
एलोपैथ चिकित्सा : एलोपैथ में इलाज का मुख्य आधार ऐसी दवाएं हैं, जो श्वासनली की संकुचन को दूर करने में सहायक होती हैं. इन्हें ब्रोंकोडायलेटर कहा जाता है. ये दवाएं श्वासनली की सिकुड़न को कुछ समय के लिए कम करके हवा आने-जाने की रुकावट को दूर करती हैं. दवा का असर कम होते ही तकलीफ पुन: हो जाती है. अत: इन दवाओं को दिन में कई बार लेना पड़ता है. इसलिए इन दवाओं का उपयोग किया जाता है-
– ब्रोंकोडायलेटर : सालब्यूटामोल, टरब्यूटालिन
– एंटीएलर्जिक : एस्टेमीजोल.
– स्टेरॉयड : हाइड्रोकारटीसोन, प्रेडनीसोलोन.
– म्यूकोलायटिक : ब्रोमहेव्सीन
– एंटीहिस्टामिन : मेपीरामीन
– सोडियमकोमग्लायकेट, कीटोटीफेन
इन्हेलर : इन दवाओं को प्रभावशाली बनाने के लिए इन्हेलर पद्धति का विकास किया गया. कम मात्रा में दवा पंप के माध्यम से सीधे श्वासनली और फेफड़ो में पहुंचायी जाती है. इससे तत्काल राहत मिलती है और दवा की मात्रा कम होने से साइड इफेक्ट भी कम होते हैं. इनका इस्तेमाल तभी शुरू करना चाहिए, जब यह पूरी तरह पक्का हो जाये कि रोगी को अस्थमा ही है.
क्या हैं सीमाएं
ये दवाएं केवल रोग के लक्षणों से राहत दिलाती हैं. रोग के मूल कारण पर कोई प्रभाव नहीं होता, जिसके परिणामस्वरूप इनका सेवन जीवन भर करना पड़ता है. इन दवाओं का प्रभाव क्रमश: कम होता जाता है, जिससे दवा की मात्रा बढ़ानी पड़ती है. कुछ रोगियों में अधिक मात्रा भी लक्षणों में कमी करने में विफल देखी जाती है. लंबे समय तक इनके उपयोग से इनके हानिकारक प्रभावों से अन्य स्वास्थ्य समस्याएं होने की आशंका होती है. जीवन भर दवाओं के उपयोग करने के कारण यह इलाज मंहगा पड़ता है.
इंटीग्रेटेड चिकित्सा पद्धति
आयुर्वेद में दमा एवं श्वास रोगों में उपयोगी पचास से भी ज्यादा वनौषधियों का विवरण है. भारत एवं विश्व के अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने गहन शोधकार्य के बाद उनमें से इन वनौषधियों को दमा में उपयोगी पाया है-
भारंगी, पुष्करमूल, कंटकारी, वृहती, वासक, पिप्पली, यष्टिमधु, शल्लकी, काकड़ा सिंगी, अर्जुन कुटकी, धतूरा, आक, अपामार्ग, अंतमूल, सिरिस, सेंदुआर आदि.
आयुर्वेदिक योग
-अगस्त्यहरीतकी (अगस्त्य मुनि द्वारा कहा गया रसायन) -वासावलेह -श्वास कुठार रस -भार्गयादि अवलेह. इन दवाओं को आयुर्वेदिक चिकित्सक मरीज की जांच कर आवश्यकतानुसार देते हैं.
क्या खाएं
-अनाज : गेंहू, ज्वार, बाजरा, पुराना चावल -दाल : मूंग, मसूर, अरहर
-सब्जियां : करेला, कद्दू, कच्चा पपीता, पालक -फल : अनार, पपीता, बिजौरा, आंवला, खजूर -मसाले : बड़ी इलायची, लौंग, हींग, हल्दी, अजवाइन, मंगरेला इन सभी मसालों का उपयोग दमा में लाभदायक है. गाय के दूध का सेवन कर सकते हैं. परंतु कुछ रोगियों को दूध से एलर्जी होती है, जिससे तकलीफ बढ़ सकती है. अत: ऐसे लोग इससे परहेज करें.
ये कम खाएं
-अनाज : नया चावल, मैदा
-दाल : उड़द, मटर, चना -सब्जियां : आलू, अरबी -फल : केला, अमरूद, अधिक खटटे फल -अन्य : दही, अंडा, समुद्री मछली
ठीक हो सकता है अस्थमा
अकसर कहा जाता है कि दमा दम के साथ जाता है, अर्थात दमा का कोई स्थायी इलाज नहीं है. मगर यह कहावत केवल आंशिक रूप से सत्य है. वह भी उन रोगियों के लिए जिनका दमा वंशानुगत है यानी जिनके माता-पिता या पूर्व पीढ़ियों में इस रोग का इतिहास मिलता है. जो वंशानुगत रोगी नहीं हैं, उनका इलाज यदि प्रारंभ में ही आयुर्वेदिक पद्धति से किया जाये, तो इससे पूर्णतया छुटकारा पाया जा सकता है.
दमा एवं योग चिकित्सा
गंभीर दमा से ग्रसित रोगी आराम पाने के लिए रोग के लक्षणों को दवा की मदद से दबाने का प्रयास करते हैं, जो सही नहीं है. योग और प्राकृतिक दृष्टि से यह गलत है. शरीर में एकत्र एवं संचित विजातीय प्रदार्थ, जिनसे प्रधान कोशिकाएं, लसिका तथा अन्य शारीरिक प्रणालियां अवरूद्ध हो गयी हैं, उन्हें साफ कर शरीर को स्वस्थ एवं संतुलित बनाया जा सकता है.
शुद्धीकरण की प्रक्रिया
हठयोग क्रिया योग चिकित्सा का महत्वपूर्ण अंग है. इसकी मदद से शरीर से विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल कर रोग के लक्षणों को कम कर सकते हैं. इन क्रियाओं में उपयोग में लाया जानेवाला नमक, बलगम को पतला करके बाहर निकालने में मदद करता है, जिससे सांस लेने में सुविधा होती है. इसके लिए कुंजल क्रिया, जल नेति एवं शंखप्रक्षालन करें.
नोट : ये क्रियाएं योग प्रशिक्षक के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए.
– इन्हें सुबह में खाली पेट करें.
– लघु शंखप्रक्षालन एवं कुंजल क्रिया के आधे घंटे बाद नाश्ता या जल लें.
आसन : आसन से शरीर को शक्ति और विश्राम दोनों प्राप्त होते हैं. आसन करने से विषाक्त तत्व बाहर निकल जाते हैं और अंगों की विकृति दूर हो सकती है. छाती का धंसना, कूबड़ निकलना आदि समस्याएं आसनों से दूर हो सकती हैं. आसन अनेक हैं. व्यक्ति विशेष की सुविधानुसार आसनों का चुनाव कर सकते हैं. सूर्य नमस्कार, मार्जारिआसन, शशांकासन, शशांक भुजंगासन, भुजंगासन, प्रणामासन, सर्वांगासन, सर्पासन, पश्चिमोत्तानासन, योगमुद्रासन, धनुरासन, अर्धमत्स्येंद्रासन, कंधरासन, द्विकोणासन, हस्तोत्तानासन, मत्स्यासन, सिंहासन एवं शवासन से इस रोग में लाभ होता है. कुछ विशेष अभ्यासों को चुन कर करना चाहिए.
खान-पान संबंधी सावधानियां
ऐसा देखा गया है कि कब्ज रहने से दमे के रोगियों में सांसों का कष्ट बढ़ जाता है. पेट भर के भारी भोजन करने से भी सांसों का कष्ट अधिक होता है. अत: रोगी को खान-पान संबंधी कुछ बातों का विशेष ध्यान चाहिए-
– रोगी हल्का व आसानी से पचनेवाला भोजन करें.
– ठंडे पेय, फ्रिज में रखा या बासी भोजन एवं तली हुई चीजें, भारी गरिष्ठ भोजन से परहेज करें.
– एकसाथ भरपेट भोजन न करके थोड़ा भोजन चार-पांच बार लिया जा सकता है.
– कब्ज से बचने के लिए पर्याप्त पानी पीना एवं रेशेदार भोजन की आदत डालें. सुबह बिस्तर छोड़ते ही मुंह धोकर एक से तीन ग्लास
पानी पीकर कुछ देर टहलें. इसके बावजूद भी कब्ज रहे, तो रात में सोते समय त्रिफला, अमलतास का गूदा, इसबगोल या अन्य दवाओं का नियमित व्यवहार करना लाभदायक होता है. दमा के रोगी रात में या तो हल्का भोजन करें या भोजन न करें. उपवास : रोगी सप्ताह या 15 दिनों में एक दिन का उपवास रखें.
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