गांधी जयंती (144 वीं) पर बुधवार को गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित व्याख्यान ‘अहिंसात्मक प्रतिकार के प्रयोग: गांधी के बाद’ विषय पर वरिष्ठ विचारक, लेखक व साधक कृष्णनाथ ने अपनी बात रखी.
सत्याग्रह के अनेक प्रयोग गांधी ने स्वयं देश में किया
‘गांधी के बाद अहिंसक प्रतिकार के प्रयोग. ‘ इस शीर्षक से स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा जगती है कि गांधी जी के जाने के इतने वर्षो बाद, जो अपने देश में और दुनिया में अहिंसात्मक प्रतिकार के प्रयोग चल रहे हैं, उनका एक लेखा–जोखा चाहे संक्षेप में ही क्यों ना हो, प्रस्तुत किया जाये, किंतु उसकी कठिनाई यह है कि गांधी जी ने जो व्यक्तिगत साधना की और उनकी सत्य और अहिंसा की जो कल्पना थी और जो व्रत था, उसे आम लोगों के लिए पहली बार प्रस्तुत कर दिया.
सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं, जितने ये अरावली के पर्वत, गंगा, यमुना नदी का जल, सिंधु और यह आकाश. किंतु, यह मूल रूपसे ‘महाव्रत’ के रूप में पालन किये जाते थे.
पतंजलि के योग सूत्र में जिन पांच महाव्रतों को बताया गया है, जो जाति–देश–काल–समय से अनविच्छिन्न हैं. उनमें सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह शामिल हैं. किंतु सत्य तो पतंजलि से भी पुराना है. ‘सत्य’ यानि ‘सत्’–जो है. और उसमें ‘यम’ प्रत्यय लगाकार सत्य, सतोभाव:, इति सत्यम. जो ‘होने’ का भाव है वो सत्य है. जो है वो नहीं भी रहता है, लेकिन सत्य में उसके होने का भाव बना रहता है.
तो सत्य है, किंतु उसके साथ दक्षिण अफ्रीका में जब उनका रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चल रहा था. तो आंदोलन तो था, लेकिन उसका कोई नाम नहीं था. यह तो विदित है.
उस आंदोलन को एक नाम देने के लिए उन्होंने एक इनाम की घोषणा की. उसमें सत्य का आग्रह–सदाग्रह नाम सुझाया गया, जिसमें थोड़ा संशोधन कर ‘सत्य को लेकर आग्रह’ को शामिल किया गया. इस प्रकार से उसकी उत्पत्ति या व्युत्पत्ति हुई.
तो ये ‘सत्याग्रह’ शब्द जन्मा और उसके भी पहले वो वस्तु, वो संतान पहले से उपस्थित थी. कबीर की उलटबांसी में जब पिता का जन्म हुआ, जो पुत्र पिछवाड़े खड़े थे, पुत्र पहले ही प्रगट हो चुके थे.
और 1906 से आज तक यमुना में कितना जल बह गया. इस बीच सत्याग्रह के अनेक प्रयोग गांधी ने स्वयं देश में किया. फिर तो उसका एक वैश्विक रूप प्रकट हो चुका है. वो जगह–जगह काम करता दिखाई पड़ता है. उसका संक्षेप में भी लेखा–जोखा लेना मेरे लिए कठिन ही नहीं असंभव है.
तो क्या किया जाये. अब जब स्वीकारा है, तो उसका निर्वाह तो करना ही है. इसलिए मैं आपकी इजाजत चाहूंगा कि कुछ जो काम पहले हो चुका है, उसका जिक्र करूं. पहले तो निकट का है, यहीं नयी दिल्ली का. 2006 में सत्याग्रह की शताब्दी 1906 से 2006 की यात्र पूरी होने के उपलक्ष्य में आपको याद होगा कि यहां जो मित्र उपस्थित हैं, उन सबने मिलकर विशेषकर प्रोफेसर आनंद कुमार ने संयोजन कर एक परिसंवाद का आयोजन जेएनयू में वर्ष 2007 में किया था.
मुझे भी अन्य महानुभावों के साथ इस आयोजन में शरीक होने का योगायोग हुआ था. वो सब कुछ जो वहां घटित हुआ या नहीं हुआ, उसको दोहराना तो यहां संभव नहीं है. लेकिन मेरे हाथ में उसकी एक रिपोर्ट ‘ग्लोबलाइजेशन ऑफ द गांधियन वे’ शीर्षक से उपलब्ध है. संभवत: इसका हिंदी रूपांतर भी होगा, किंतु मेरे हाथ में तो ये अंगरेजी संस्करण ही है.
अंगरेजी का कुछ ऐसा ही दबदबा देश और दुनिया में हैं. जो हो, मैं इस सर्वेक्षण के काम में जिनकी रुचि है, इस प्रकाशन की तरफ मैं ध्यान दिलाता हूं. यह इसलिए भी कि इसके तीन जो संपादन सलाहकार हैं–आनंद कुमार, अनुपम मिश्र, और सुरेंद्र कुमार. यहां उपस्थित हैं. इनके इस प्रकाशन में जो कुछ और सूचना किसी को लेनी हो वो उनसे ले सकते हैं.
वैसे अपने इस प्राचीन सभ्यता के देश में जहां कभी ‘ब्रह्म’ की जिज्ञासा हुआ करती थी, जिज्ञासा का बड़ा अभाव हो गया है. हम चीजों को मानकर चलते हैं और ये समझते हैं कि सत्याग्रह का तो यहीं जन्म हुआ, यहीं प्रयोग हुआ और यहीं से वो दुनिया में फैला. तो इसमें और क्या जानना है, वो सब तो हम जानते ही हैं.
वो सब तो हमारा जाना–सुना है. जो है नहीं, अगर है भी तो उस पर समय की गर्त पड़ गयी है, और अगर उसे देखना हो तो उसे साफ करने की, मांजते रहने की जरूरत है. मुझे काशी में सुने कबीर के एक पद का स्मरण हो आता है.
शब्द कुछ इधर–उधर होंगे, लेकिन आशय है कि दर्शन चाहिए, तो दर्पण मांजा करिए,’ जो दर्पण में लग गयी काई तो दरश कहां से होई.’ अगर दरश करना है, देखना है तो दर्पण चाहिए, और दर्पण को मांजते रहना चाहिए. अगर दर्पण में ही काई लग गयी, मैल जम गया तो फिर दरश कहां से होगा. तो इस सब को मांजते रहने की जरूरत है. इसी सिलसिले में मैं एक और संकलन का जिक्र करना चाहूंगा.
वो कोई 50 वर्ष से पहले का है. गांधी जी के जाने के बाद डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने इस अलख को जगाये रखा. उन्होंने सत्याग्रह के प्रयोग किये. एक बड़ा प्रयोग 1960 में सिविल नाफरमानी के होने का था. मैं अपने विश्वविद्यालय के दिनों में अनेक विधि से इन सबसे जुड़ा हुआ था और इनसे गुजर चुका था, और उसके बाद हैदराबाद में रहकर ‘मैनकाइंड’ नामक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादन कर रहा था. और सिविल नाफरमानी 1960 को होने को थी.
इस अवसर के लिए मैंने अपने मित्रों के साथ ये संकल्प किया कि ‘मैनकाइंड’ का एक विश्व सत्याग्रह विशेषांक निकाला जाये. और उस सिलसिले में मैंने उस समय तक 1960 की दहाई की शुरुआत तक विश्व में जो अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन चल रहे थे, उससे प्रत्यक्ष संपर्क साधने की कोशिश की चेष्टा की.
उन दिनों यूरोप और अमेरिका में आणविक युद्ध के खतरे को भांप कर उसके प्रतिरोध का एक आंदोलन चल रहा था. यूरोप दो विश्व महायुद्धों से गुजरा था, इसलिए आने वाले युद्ध की आशंका और उसमें भी आणविक हथियारों का यानी अणु बम का प्रयोग हिरोशिमा व नागासाकी में हो चुका था, और उसकी विध्वंसलीला के घाव थे. और उसकी एक बहुत ही भयावह छवि थी.
इसलिए आणविक हथियारों के प्रयोग और उनको और मारक बनाने के प्रयत्न महाशक्तियों द्वारा विशेषकर अमेरिका और रूस के द्वारा जो चल रहे थे, वे उन महासागरों में अपने यान दौड़ाने की चेष्टा करते थे, जहां आणविक विस्फोट के प्रभावों का आकलन होता था या अफ्रीका में. इन सबसे संपर्क कर उनके प्रतिरोध की गाथा को मैंने एकत्र करने की कोशिश की.
अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन का सूत्रपात हो चुका था. अल्बामा में एक अश्वेत महिला ने एक बस में अपनी सीट छोड़कर जो कि गोरों के लिए आरक्षित थी, अश्वेतों की सीट पर जाने से इनकार कर दिया था. उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग में यह एक अनहोनी घटना थी.
इसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया इस ज्ञानपूर्ण कष्टसहन के द्वारा एक नये आंदोलन की शुरुआत पचास की दहाई में ही हो चुकी थी. हालांकि अब मुझे शक संवत याद नहीं रहते, लेकिन संभवत: वहां आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. वो आंदोलन अल्बामा में, मोंटगेमरी में, मिसीसीपि में और दक्षिण प्रांतों में जैसे दावानल की तरह फैल रहा था. उनको भी मैंने इस अंक के लिए लेख लिखने के लिए आमंत्रित किया और उन्होंने इसे स्वीकार भी किया.
किंतु अपनी व्यस्तताओं के कारण उनका लेख तो हमें नहीं मिल सकता. किंतु उनके लोगों ने इसमें सहयोग किया. फिर तो उनका वो प्रसिद्ध मार्च हुआ और उनका वो ओजस्वी उद्बोधन–आह्वान ‘आई हैव ए ड्रीम’. ऐसे पराक्रमी पुरुष की नियति है, एक क्रूर नियति– उनकी हत्या कर दी गयी. किंतु उनके द्वार जलायी गयी मशाल आज भी प्रज्ज्वलित है और उनका संगठन नेशनल एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल्स भी सक्रिय है.