आज ‘ओजोन परत संरक्षण दिवस’ है. धरती के चारों ओर फैली ओजोन परत की सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करने के मकसद से यह दिवस हर साल 16 सितंबर को दुनियाभर में मनाया जाता है. इस मौके पर जानते हैं कि क्या है ओजोन परत और इसे बचाना क्यों है जरूरी..
।।नॉलेज डेस्क।।
तकनीकी विकास के साथ इनसान ने खुद के लिए ही एक कब्र खोदना शुरू कर दिया. शुक्र है कि वैज्ञानिकों ने जब इस बारे में चेतावनी जारी की, तो दुनियाभर की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया. दरअसल, पृथ्वी के निर्माण के प्रारंभिक दिनों में पराबैंगनी (अल्ट्रा वायलट) किरणों सीधे धरती तक पहुंचती थीं. इसलिए पृथ्वी पर जीवन मुमकिन नहीं था. उस समय वायुमंडल में आक्सीजन की मात्र बहुत कम थी. धीरे-धीरे ऑक्सीजन की मात्र बढ़ती गयी और ये अल्ट्रा वायलट किरणों ऑक्सीजन को ओजोन में बदलने लगी. इससे पृथ्वी के चारों ओर स्थित समताप मंडल (स्ट्रैटोस्फीयर) में अरबों टन ओजोन गैस जमा हो गयी है. लेकिन बीसवीं सदी में दुनियाभर में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद पैदा हुए तमाम प्रदूषणों की वजह से ओजोन परत में तेजी से क्षरण होने लगा, जिसे बाद में वैज्ञानिकों ने मानवीय अस्तित्व के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा. इसी चुनौती से निबटने के लिए 16 सितंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय ओजोन परत संरक्षण दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.
वैश्विक आम सहमति
ओजोन परत के संरक्षण के लिए वियना में 22 मार्च, 1985 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे. फिर 16 सितंबर, 1987 को मॉन्ट्रियल में ओजोन परत के क्षरण के लिए जिम्मेदार तत्वों की रोकथाम के लिए एक समझौता किया गया. इसे मॉन्ट्रियल समझौता के नाम से जाना जाता है. वर्ष 1995 से हर साल इस दिन को इस समझौते की याद में 16 सितंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय ओजोन परत संरक्षण दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक स्तर पर लोगों का ध्यान पर्यावरण से जुड़े अहम मुद्दों की ओर आकर्षित करना है.
भारत वियना समझौते में 18 मार्च, 1991 को और मॉन्ट्रियल समझौते में 19 जून, 1992 को शामिल हुआ. मॉन्ट्रियल समझौते को ओजोन परत संरक्षण और पर्यावरण के लिहाज से इतिहास का सबसे सफल समझौता माना जाता है. इसे वैश्विक स्तर पर बड़ा समर्थन मिला है. दुनिया के सभी देशों ने इस समझौते का अनुमोदन किया है. ओजोन परत संरक्षण के लिए इसके जरिये विश्व समुदाय को एकजुट किया गया है. यह मॉन्ट्रियल समझौता दशकों के अनुसंधान का परिणाम है.
अनुसंधान के जरिये साबित किया गया कि वायुमंडल में छोड़े जानेवाले क्लोरीन और ब्रोमीन युक्त रसायन ओजोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं. ओजोन परत के क्षरण से सूरज की पराबैंगनी किरणों समताप मंडल को भेदती हुई सीधे धरती पर पहुंच जाती हैं. ये किरणों मनुष्यों के साथ ही पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं पर घातक प्रभाव डालती हैं. अनुसंधानों के आधार पर मॉन्ट्रियल समझौते की शर्तो में यह तय किया गया कि इस पर हस्ताक्षर करनेवाले देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचानेवाले क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी), हेलोन और कार्बन टेट्रा क्लोराइड जैसे तत्वों को एक निश्चित अवधि में पूरी तरह खत्म कर देंगे. बाद के अध्ययनों में ओजोन परत के लिए हाइड्रो क्लोरो कार्बन को भी घातक पाये जाने के बाद इसे भी एक तय अवधि में खत्म करना तय हुआ.
वैश्विक चिंता
मॉन्ट्रियल समझौते को वैश्विक स्तर पर अप्रत्याशित समर्थन मिला है. इससे ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों यानी ओडीएस (ओजोन डिप्लेटिंग सब्सटांसेस) को खत्म करने में मदद मिली है. ओडीएस ओजोन परत के ऐसे हानिकारक तत्व हैं, जिनका इस्तेमाल उद्योगों, फार्मा क्षेत्र, वातानुकूलन यंत्रों, फोम, अग्निशमन यंत्रों, धातुओं और कपड़ों की सफाई में तथा फसलों में छिड़काव किये जानेवाले कीटनाशकों और जल्द खराब होने वाली निर्यात की जानेवाली वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता है. वैश्विक स्तर पर एक जनवरी, 2010 तक सीएफएस, सीटीसी व हेलोन जैसे घातक रसायनों का उत्पादन और इस्तेमाल पूरी तरह खत्म हो गया. इससे न केवल ओजोन परत को बचाने में मदद मिली है, बल्कि इससे वैश्विक जलवायु तंत्र को भी काफी फायदा पहुंचा है.
भारत की स्थिति
वियना और मॉन्ट्रियल समझौते का हिस्सा बनने के बाद से भारत ओजोन परत के संरक्षण से जुड़ी वैश्विक चिंताओं में भागीदारी निभाते हुए ओडीएस की कटौती में अहम भूमिका निभा रहा है. वर्ष 1993 से समझौते से जुड़े सभी पक्षों, उद्योगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के सक्रिय सहयोग के जरिये भारत में जनवरी, 2010 के बाद से सीएफसी, सीटीसी और हेलोन गैसों का उत्पादन और इस्तेमाल तकरीबन खत्म कर दिया गया है. हालांकि, फार्मा क्षेत्र में इसके सीमित उपयोग की इजाजत दी गयी है. इसके तहत दमा के मरीजों द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले इन्हेलरों, फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों तथा ऐसे ही अन्य श्वसन संबंधी रोगों के इलाज के लिए भी इनके इस्तेमाल की छूट दी गयी है. हालांकि, इसमें इस्तेमाल होनेवाला सीएफसी असर के लिहाज से ज्यादा घातक नहीं है. दरअसल, भारत में मॉन्ट्रियल समझौते की व्यवस्थाओं की बाध्यता के 17 महीने पहले ही एक अगस्त, 2008 से सीएफसी के उत्पादन पर रोक लगा दी गयी. हालांकि, दवा क्षेत्र में इस्तेमाल किया जानेवाला सीएफसी एक विशेष श्रेणी का है. वर्ष 2010 में देश में इस श्रेणी के 343.6 मेगाटन सीएफसी के उत्पादन की अनुमति ली गयी. देश में दमा रोगियों के लिए अब ऐसे इन्हेलर भी बनाये जा रहे हैं, जिनमें सीएफसी का इस्तेमाल नहीं हो रहा है.
ग्रीन हाउस गैसों में कमी
ओडीएस एक तरह की ग्रीन हाउस गैसें हैं, जिन पर प्रतिबंध के बारे में क्योटो समझौते में कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी. हालांकि अनुमान के मुताबिक, जनवरी, 2010 तक वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 11 गीगा टन तक की कमी आयी है. यह कमी ओडीएस में कटौती की वजह से हुई है. सीएफसी, सीटीसी और हेलोन जैसे ओडीएस को खत्म करने की दिशा में मॉन्ट्रियल समझौते की सफलता को देखते हुए सितंबर, 2007 में समझौते से जुड़े पक्षों की 19वीं बैठक में अगले 10 वर्ष के अंदर एचसीएफसी गैसों को भी खत्म करने का फैसला लिया गया. विकासशील देशों के लिए इसकी सीमा क्रमश: वर्ष 2009 और 2010 में उत्पादन और इस्तेमाल के औसत के आधार पर तय की गयी है. देश में एचसीएफसी गैसों का उत्पादन और इस्तेमाल जनवरी, 2013 तक घट कर पहले चरण की सीमा पर आ चुका है.
मॉन्ट्रियल संधि
ओजोन परत में हो रहे क्षरण को रोकने के लिए वर्ष 1987 में 24 देशों के प्रतिनिधियों ने मॉन्ट्रियल में बैठक आयोजित की. ओजोन परत क्षरण के कारकों पर मॉन्ट्रियल संधि को इतिहास में सबसे सफल अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संधि के रूप में माना जाता है. वर्तमान में दुनिया के 197 देश मॉन्ट्रियल संधि से जुड़ हुए हैं और ओजोन क्षरण को रोकने के लिए किये गये वैश्विक उपायों में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. इस संधि के तमाम सदस्य प्रतिबंधित पदार्थो के उत्पादन और उसके इस्तेमाल के प्रति पूरी तरह से जागरूक और प्रतिबद्ध हैं.
वर्ष 1987 में ओजोन परत को नुकसान पहुंचानेवाले 18 लाख टन पदार्थों का उत्पादन होता था, जबकि संधि के 23 वर्ष बाद 2010 तक इसका उत्पादन घट कर 45,000 टन तक आ गया था. इसे संधि की बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है. तमाम देशों की सरकारों के सहयोग के बिना इसके उत्पादन में तकरीबन 98 फीसदी की कमी कर पाना मुमकिन नहीं होता. साथ ही, वैश्विक मौसम परिवर्तन जैसी मौजूदा चुनौती से निबटने में भी इसकी बड़ी भूमिका रही है.
ओजोन की कहानी
1928 – वैज्ञानिकों ने क्लोरो फ्लोरो कार्बन सीएफसी की व्याख्या की.
1973 – वैज्ञानिकों ने वायुमंडल में सीएफसी का पता लगाया.
1974 – नोबेल पुरस्कार विजेता मोलिना और रॉलैंड ने सीएफसी की खोज की, जो स्ट्रेटॉस्फेरिक (समताप मंडल) ओजोन को नुकसान पहुंचा सकते थे.
1975 – ओजोन को क्षति पहुंचाने वाले पदार्थाें के तौर पर वैज्ञानिकों ने अग्निशमन और कृषि कार्यों में इस्तेमाल होने वाले रसायनों (हेलोन और ब्रोमिन) के बारे में पता लगाया. एयरोसोल उत्पाद प्रणोदक को खत्म किये जाने की बात उठी.
1976 – ओजोन मामले पर वैश्विक चुनौतियों से निबटने और इस पर विचार-विमर्श के लिए यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनइपी) ने अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया.
1978 – प्रणोदक के तौर पर इस्तेमाल किये जानेवाले सीएफसी के गैर-जरूरी (जैसे- हेयर स्प्रे, डियोड्रेन्ट्स आदि) इस्तेमाल पर अमेरिका ने पाबंदी लगायी. कनाडा और नॉर्वे समेत स्वीडन ने भी इस ओर पहल करते हुए इन चीजों पर पाबंदी लगायी.
1981 – ओजोन परत की सुरक्षा के लिए यूएनइपी ने एक वैश्विक समझौते का प्रस्ताव दिया.
1985 – ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे टीम ने अंटार्कटिक में ओजोन परत में हुए छेद (73 लाख वर्ग मील क्षेत्र में) का पता लगाया, जिसे स्ट्रेटोस्फेरिक ओजोन क्षय के प्रथम साक्ष्य के तौर पर माना जाता है. वैज्ञानिक शोधों से पुष्टि हुई कि स्ट्रेटोस्फेरिक ओजोन क्षय पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य को प्रभावित करता है.
1987 – ओजोन परत को नुकसान पहुंचानेवाले पदार्थाें पर रोक लगाने के लिए 24 देशों ने ‘मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल’ पर हस्ताक्षर किये.
1989 – मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल के सभी सदस्य, जो कि विकसित देश थे, सीएफसी के उत्पादन और उसके खपत को वर्ष 1986 के स्तर पर लाने के लिए सहमत हुए.
1990 – लंदन सम्मेलन के तहत मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल में संशोधन किया गया और कार्बन टेट्राक्लोराइड तथा मिथाइल क्लोराफॉर्म को नियंत्रित किया गया. साथ ही, इस समस्या से पैदा हुई चुनौतियों से निबटने के लिए बहुपक्षीय फंड का सृजन किया गया.
1991 – अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हुए कि सीएफसी के चलते उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के स्ट्रेटोस्फेरिक ओजोन परत की क्षति हो रही है.
1992 – कोपेनहेगेन संशोधन के तहत मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल में एचबीएफसीज, मिथाइल ब्रोमाइड और एचसीएफसी पर नियंत्रण को भी शामिल किया गया.
1994 – विकसित सदस्य देशों ने हेलोन्स के उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगायी.
1996 – विकसित सदस्य देशों ने सीएफसीज, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोराफॉर्म और हाइड्रोब्रोमोफ्लूरोकार्बन्स के उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगायी.
2000 – जापान की मीटियोरोलॉजिकल एजेंसी ने रिपोर्ट जारी करते हुए बताया अंटार्कटिका के ऊपरस्ट्रेटोस्फेरिक ओजोन परत अब तक का सबसे बड़ा छेद देखा गया है, जो अंटार्कटिका के आकार से दोगुना से भी ज्यादा है.
2002 – मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल के सभी विकसित सदस्य देश मिथाइल ब्रोमाइड के उत्पादन के स्तर को वर्ष 1995-1998 के स्तर पर लाये जाने पर सहमत हुए.
2004 – मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल के सभी विकसित सदस्य देश एचसीएफसीज के इस्तेमाल को 35 फीसदी तक कम करने पर सहमत.
2010 – मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल के विकसित सदस्य देश सीएफसीज, हेलोन्स और कार्बन टेट्राक्लोराइड के चरणबद्ध उन्मूलन पर सहमत हुए.
2015 तक मॉन्ट्रियल प्रोटोकोल के सभी विकसित सदस्य देश मिथाइल ब्रोमाइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म के उन्मूलन पर सहमत हुए. साथ ही, एचसीएफसी के उत्पादन और आयात में 10 फीसदी कटौती करते हुए उसे 2009/2010 के स्तर पर लाने के लिए सहमत हुए. (स्नेत: यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम)