बच्चो! बरसात का मौसम आते ही हमें छाते की जरूरत होने लगती है. छाता एक ऐसी चीज है जिसके बिना हम बरसात में घर से बहार निकलने के लिए हजार बार सोचते हैं. यह बात सभी जानते हैं कि आप बच्चों को छाता बहुत पसंद आता है, यही वजह है कि गर्मियों के शुरुआत से ही दुकानें तरह–तरह के और रंग–बिरंगे छातों से पटने लगती हैं और बच्चे अपने मन में सोचने लगते हैं कि इस साल कौन सा छाता खरीदा जाये. छाते रंग–बिरंगे होने के साथ काफी खूबसूरत और प्यारे होते हैं.
पर छाते सिर्फ गरमी में धूप और बरसात में पानी से बचने के लिए ही नहीं होते हैं, इनका सांस्कृतिक और सजावटी महत्व भी है. बच्चों के लिए छाते का शौक किसी नये खिलौने से कम नहीं होता. आजकल छाता खरीदते समय लोग इसकी मजबूती के साथ खूबसूरती का भी ख्याल रखते हैं. आइए, जानें छाते के बारे में.
छाते की शुरुआत
पुराने समय में छाते को पारासोल के नाम से जाना जाता था और इसका उपयोग तेज धूप से बचने के लिए किया जाता था, छाते का आविष्कार 4000 साल पहले हुई थी. जैसा कि हम इजिप्ट, एशिया, ग्रीस और चीन की सदियों पुरानी पेंटिंग्स और पुरानी कलाकृतियों में देखते हैं. प्राचीन काल में छाते कागज के बनाये जाते थे और इनका उपयोग धूप मात्र से बचने के लिए किया जाता था. चीन ऐसा पहला देश है, जिसने पानी से बचने वाला छाता बनाया, उन्होंने अपने कागज के छाते ‘पारासोल’ को मोम से पॉलिश कर उसे पानी से बचने के लिए तैयार किया. छाते को हम अंगरेजी में अंब्रेला भी कहते हैं. अंब्रेला शब्द लैटिन के अंब्रा से आया, अंब्रा का मतलब परदा या छाया करना होता है.
16 वीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में छाते का उपयोग लोकप्रिय हुआ. खास कर दक्षिणी यूरोप के बरसाती मौसमों में. सबसे पहले छाते को केवल महिलाओं के लिए ही इस्तेमाल की चीज माना जाता था, लेकिन पर्सियन यात्री और लेखक जॉनस हैनवे (1712 -86) ने इंग्लैंड में 30 साल तक छाते का सार्वजनिक उपयोग कर के पुरुषों में भी इसे प्रचलित कर दिया. यही वजह है कि अंगरेज युवक छाते को हैनवे भी कहते थे.
छाते की पहली दुकान
छाते की पहली दुकान सन 1830 में लंदन में खुली, जिसका नाम था जेम्स स्मिथ एंड संस. यह दुकान आज भी 53 न्यू ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट लंदन, इंग्लैंड में स्थित है. शुरु आती दौर में यूरोपियन छाते लकड़ी या व्हेल मछली की हड्डी से बनाये जाते थे और कपड़े की जगह उसे भेड़ की नस्ल के जानवरों के चमड़े से या तैलीय तिरपाल से ढका जाता था. छाते के हैंडल को बनाने के लिए हार्ड एबोनी लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता था.
समय के साथ बदला छाते का रूप
सन 1928 में हैन्स हौप्ट ने पॉकेट अंब्रेला बनाया. यह एक ऐसा छाता था, जिसे हम पॉकेट में रख सकते थे लेकिन वह छाता फोल्डिंग नहीं था, फिर भी काफी छोटा हुआ करता था. यह छाता सिर्फ धूप से बचने के लिए इस्तेमाल होता था.
सन 1969 में ब्रैडफोर्ड इ फिलिप्स ने ऑटोमैटिक बटन से खुलने वाला फोल्डिंग छाता बनाया, जो काफी प्रचलित हुआ. 1987 में टोपीनुमा छाता बनाया गया, जो कि बच्चों से लेकर बड़ों तक काफी प्रचलित हुआ.आज स्थिति यह है कि छातों का बहुत बड़ा बाजार तैयार हो चुका है और उपयोग करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. आज छाते के मामले में चीन के ग्वांगडोंग, फुजियन, ङोजिआंग और शंग्यु शहर में हजार से भी अधिक छातों के कारखाने हैं.
बातें, जो आप जानना चाहोगे
बच्चो! छाते के साथ कुछ रोचक घटनाएं भी जुड़ी हैं. जैसे–पुराने जमाने में सबसे बड़ा छाता बर्मा के राजाओं का होता था. वहां का बादशाह एक के ऊपर दूसरा तथा दूसरे के ऊपर तीसरा, इस तरह कुल सात छाते लगाता था. यूरोप में छाता शुरुआत में महिलाओं में ही अधिक लोकप्रिय था. पुरु षों ने उसे बाद में स्वीकार किया. पुराने जमाने में बड़े–बड़े राजा–महाराजाओं और धर्माधिकारियों के ऊपर छाता लगाकर चलने का काम गुलाम किया करते थे, लेकिन यह कार्य वे इस सावधानी के साथ करते थे कि उस छाते की छाया स्वयं उनके शरीर पर न पड़े. ऐसा होने पर उन्हें दंड मिलता था.
भारत में छाते बनाने का व्यवसाय 1860 में शुरू हुआ, लेकिन उस समय इस व्यवसाय में मुख्य कार्य केवल आयातित सामग्री को जोड़ने का होता था. छाते का काला कपड़ा इंगलैंड से आता और उसकी डंडी और तीलियां जर्मनी और इटली से मंगवायी जाती थीं. उन दिनों आम जनता में ‘बम्बू छाते’ भी काफी लोकप्रिय थे. इन छातों को बनाने के लिए बांस के एक डंडे में बांस की पतली खपच्चियां लगाकर उन पर कपड़ा या ताड़ पत्र लगा दिये जाते थे. बाद में छाते का सारा सामान धीरे–धीरे भारत में ही बनाया जाने लगा. 1902 में यहां मुंबई में पहला कारखाना स्थापित हुआ जो धीरे–धीरे विकसित होता चला गया.
आज हमारे यहां लगभग एक हजार कारखानों में छाते तैयार किये जाते हैं, जो प्रतिवर्ष लगभग तीन करोड़ छाते बनाते हैं. अपने देश में उपयोग के अलावा अपने इन छातों का हम बड़े पैमाने पर निर्यात भी करते हैं. छातों का अधिकांश निर्यात अरब देशों में होता है.
छाते के और भी हैं उपयोग
मौसम पूर्वानुमान
छाते का उपयोग मौसम पूर्वानुमान के लिए भी किया जाता रहा है, छाते के चित्र को एक समान कोड के रूप में मौसम के विभिन्न लक्षणों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यू प्लस 2602 और यू प्लस 2614, जो कि मौसम पूर्वानुमान के कोड हैं, जिसे छाते के चित्र से जोड़ कर बारिश के अनुमान को बताया जाता है.
धार्मिक अनुष्ठानों में
छाते का उपयोग विभिन्न धार्मिक कार्यो में किया जाता है. कैथोलिक चर्च में छाते का प्रयोग को गौरव का प्रतीक माना जाता है. ये छाते लाल और सुनहरे रंग के कपड़े के बने होते हैं, जो चर्च के विशिष्ट व्यक्ति या पोप के जुलूस में उनके सिर के ऊपर एक सेवादूत के द्वारा पकड़ा जाता है. इसे गौरवपूर्ण माना जाता है और यह अतिविशिष्ट कार्यो और अनुष्ठानों के समय इस्तेमाल किया जाता है. ऑर्थोडॉक्स चर्च और इथियोपियन चर्चो में भी किसी अति विशिष्ट व्यक्ति जैसे बिशप के सम्मान के लिए इन छातों का इस्तेमाल किया जाता है.
फोटोग्राफी में
फोटोग्राफी में छाते का इस्तेमाल फोटोग्राफर के द्वारा रौशनी के छितराव के लिए किया जाता है. इस छाते में कपड़े का भीतरी भाग सिल्वर पॉलिश्ड होता है, जिस पर जब रोशनी पड़ती है तो वह रिफ्लेक्ट होकर फोटो खिंचवा रहे व्यक्ति के चेहरे पर पड़ता है. दरअसल यह एक बनावटी रोशनी पैदा करने में मदद करता है, जिससे फोटो अच्छा आता है.

