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अधूरी जिंदगी का आख्यान

मध्यवर्गीय स्त्री पर थोपे गये चौतरफा कर्तव्य, नैतिकता के एकतरफा बोझ के बीच अपने होने का मतलब ढूंढती हुई औरत की कहानी कहता है उपन्यास ‘एक बटा दो’. सुजाता हिंदी में अपने प्रखर स्त्रीवादी लेखन और स्त्री के प्रति एक संतुलित दृष्टि के लिए जानी जाती हैं. गद्य के साथ ही कविता में भी सक्रिय […]

मध्यवर्गीय स्त्री पर थोपे गये चौतरफा कर्तव्य, नैतिकता के एकतरफा बोझ के बीच अपने होने का मतलब ढूंढती हुई औरत की कहानी कहता है उपन्यास ‘एक बटा दो’. सुजाता हिंदी में अपने प्रखर स्त्रीवादी लेखन और स्त्री के प्रति एक संतुलित दृष्टि के लिए जानी जाती हैं. गद्य के साथ ही कविता में भी सक्रिय सुजाता का पहला उपन्यास है ‘एक बटा दो’. यह उपन्यास इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इसमें उन्होंने साहस के साथ कुछ रूढ़ स्थापनाओं को धता बताया है.

मध्यवर्गीय स्त्री पर थोपे गये चौतरफा कर्तव्य, नैतिकता का एकतरफा बोझ, जहां सब संभालने का दायित्व, जवाबदेही केवल स्त्री पर ही है. जहां उसने रुककर सांस भरनी चाही, सब ओर से निशाने पर आ गयी. इसी जद्दोजहद के बीच अपने होने के मतलब ढूंढती हुई औरत की कहानी कहता है ‘एक बटा दो’ उपन्यास!
दो स्त्रियां, दो भिन्न परिवेश, दोनों आत्मनिर्भर, दर्द की वजह अलग, रंग-रूप अलग, लेकिन चुभन एक सी, घुटन एक सी. दोनों इस ‘एक बटा दो’ का एक एक हिस्सा जो मिलकर भी एक नहीं हो सकते. दोनों पूरेपन की तलाश में. इस अधूरेपन के कितने ही रंग हैं, कितने ही भय और कितने ही दर्द हैं.
हमारे जीवन में कुछ स्थितियां हमें असहज करती हैं. लग सकता है कि किसी छोटे कारण से रिश्ता तोड़ने या घर छोड़ने की नौबत नहीं आनी चाहिए. हर दूसरी औरत इन्हीं परिस्थितियों से जूझ रही है. कोई अबीर कभी किसी स्त्री का घर छुड़वा सकने में समर्थ हो जाने लायक खुद को बना सकेगा, यह भी एक यूटोपिया ही है. लेकिन किसी यूटोपिया के बिना कहां पूरा हो सकता है जीवन. असंभव स्वप्न हैं, तो उनके पीछे भागते हुए भी खुद को न खोने की जिद भी है, आकांक्षा भी.
‘एक बटा दो’ की एक बड़ी खासियत है इसकी बेहद संयत और प्रवाहमयी भाषा तथा सहज शिल्प. बेजा भाषाई खेल और कलात्मकता के अतिरेक से बचा गया है. सुजाता के पास विमर्श के नये तेवर हमेशा मौजूद रहे हैं, ऐसा उनके विचारपरक लेखों को पढ़कर लगता रहा है. लेकिन सुखद है यह देखना कि उपन्यास में वे खूबसूरती से किसी स्थापना से बची हैं.
जजमेंट देने या भाषण देने की जगह उन्होंने आसपास के जीवन से दो पात्र लेकर बड़ी नाजुकी और अंतर्भूत डिटेल्स के साथ उनकी कहानी कही, जिसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं अपने भीतर विमर्श के लिए उद्वेलित होता है.
उपन्यास का अंत बेहद खूबसूरत है. एक कल्पनाशील और जहीन निर्देशक जैसे अपनी फिल्म के किसी सीन को गढ़ता है, उपन्यास का अंतिम अध्याय वही दृश्य पाठक के सामने रख देता है. दो पात्र अंत तक नहीं मिलते, पर हैं एक ही का विस्तार- एक बटा दो.
सपना सिंह

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