ईश्वर शून्य, रंगकर्मी
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आधी आबादी के रंगमंच का दिवास्वप्न
ईश्वर शून्य, रंगकर्मी रंगमंच में अभी तक इस तरह की स्त्री-चेतना का संचार ही नहीं हो सका है कि पुरुष रंगमंच से इतर हटकर कुछ सार्थक कोशिशें हो सकें. यही वजह है कि जो स्त्रियां मंच पर सक्रिय भी हैं, उनमें से अधिकतर किसी भी तरह से स्त्री मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर पाने में अक्षम […]
रंगमंच में अभी तक इस तरह की स्त्री-चेतना का संचार ही नहीं हो सका है कि पुरुष रंगमंच से इतर हटकर कुछ सार्थक कोशिशें हो सकें. यही वजह है कि जो स्त्रियां मंच पर सक्रिय भी हैं, उनमें से अधिकतर किसी भी तरह से स्त्री मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर पाने में अक्षम हैं.
साहित्य में इन दिनों महिला लेखिकाएं और कवियित्रियां अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हैं और अपने लेखन में लगातार स्त्री सरोकारों की बात कर रहीं हैं. उनका लेखन पुरुष से अलग एवं स्त्रीवादी लेखन है. किंतु रंगमंच में अभी तक यह एक दिवास्वप्न भर ही लगता है. अभी तक कोई स्त्रीवादी विमर्श महिला रंगकर्मियों की बहस में आता ही नहीं दिखता है.
हालांकि, पहले की अपेक्षा रंगमंच में आधी आबादी की उपस्थिति और भागीदारी आज काफी बढ़ी है. इसका उदाहरण इस बात से भी लिया जा सकता है कि एनएसडी जैसे संस्थान में पिछले साल पहली बार अठारह छात्राओं का चयन हुआ है. महिला निर्देशकों और अभिनेत्रियों के साथ-साथ रंगमंच के परिदृश्य में उनकी निरंतरता भी बढ़ी है.
महिलाओं की भागीदारी को केवल संख्यात्मक तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए. राजनीति की ही तरह रंगमंच में भी संख्यात्मक वृद्धि होने के बावजूद महिलाओं की कोई सशक्त उपस्थिति नहीं दिखती. स्त्री सरोकारों और मुद्दों पर महिला कलाकारों के नाटक भी लगभग न के बारबार ही दिखते हैं.
युवा निर्देशिका-अभिनेत्रियां कथ्य और शैली के स्तर पर कोई खास प्रयोग करती नजर नहीं आ रही हैं. अब भी साबित्री, जोहरा सहगल, सुरेखा सीकरी, फिदा बाई जैसी अभिनेत्रियां और जॉय मायकल, शीला भाटिया, शांता गोखले, अनामिका हक्सर, उषा गांगुली, अनुराधा कपूर जैसी निर्देशिकाओं का रंगमंच के केंद्र में आने की संभावना पहले जितनी ही मुश्किल है.
अभी हम इसी बात से खुश हो सकते हैं कि मंच पर स्त्री की उपस्थिति पहले से अधिक बढ़ी है. क्या इतना काफी नहीं है? यह एक तरह का पितृसत्तात्मक तर्क है. बिल्कुल उसी तरह जैसे राजनीति में महिलाओं के लिए स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर पद तो बढ़ा दिये गये हैं, पर उनका संचालन पूरी तरह पुरुष ही करता है. यह पुरुष द्वारा निर्मित एक तिलस्म है, क्योंकि वे महिलाएं भी वही सब कुछ कर रही हैं, जो पुरुष चाहता है.
ऐसे ही रंगमंच में कितनी ही अभिनेत्रियां और निर्देशिका भी पुरुष के आभामंडल के सामने देखते-देखते ही लुप्त हो गयीं या उन्हें स्थापित ही नहीं होने दिया गया. क्योंकि पुरुष चाहता ही नहीं कि स्त्री मंचासीन हो जाये और उनके लिए स्त्री शोषण के रास्ते बंद हो जायें. इसीलिए अधिकतर पुरुष अभिनेताओं और निर्देशकों की स्त्री घर को संभालने के अलावा कुछ नहीं करतीं. स्त्रियां भी इसे एक सामान्य स्थिति मान लेती हैं.
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि रंगमंच में अभी तक इस तरह की स्त्री-चेतना का संचार ही नहीं हो सका है कि पुरुष रंगमंच से इतर हटकर कुछ सार्थक कोशिशें हो सकें. यही वजह है कि जो स्त्रियां मंच पर सक्रिय भी हैं, उनमें से अधिकतर किसी भी तरह से स्त्री मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर पाने में अक्षम हैं.
वे रंगमंच के पितृसत्तातामक स्वरूप में ही काम करके खुश हैं. जब स्त्री अपनी अस्मिता की लड़ाई में ही भागीदार नहीं हो सकती, तो उसे दलितों, किसानों, अल्पसंख्यकों और समाज के दूसरे पिछड़े वर्ग के हितों की लड़ाई में सहयोग की अपेक्षा करना तो अभी दिवास्वप्न जैसा ही है.
वरना क्या बात थी कि बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों पर ऊंचे पदों पर महिला रंगकर्मियों के विराजमान होने के बावजूद स्त्री रंगमंच, उनकी काम करने की स्थितियों पर कोई सुधार या फिर कोई सार्थक बहस नहीं शुरू हो पायी.
समाज और रंगमंच में स्त्रियों के साथ हो रही घरेलू हिंसा, छेड़छाड़, शोषण के खिलाफ कोई महिला रंगकर्मी आवाज उठाती नहीं दिखती, बल्कि पीड़िताओं के विरोध में पुरुषों के साथ डट कर खड़ी रहती है. हाल ही में रंगमंच में हुई कुछ घटनाएं इसकी साक्षी भी हैं. अगर कुछे आवाजों को छोड़ दिया जाये, तो महिला रंगमंच और स्त्री-विमर्श एक ऐसा दिवास्वप्न है, जो हाल-फिलहाल तो पूरा होता नहीं दिख रहा है.
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