डॉ प्रवीण झा
लेखक, नॉर्वे
प्रवास में दिवाली के दीये साल-दर-साल बढ़ते ही जा रहे हैं. पंद्रह साल पहले कैलिफोर्निया में एक भारतीय मित्र ने जब दिवाली पर घर के बाहर रोशनी के झालर लटकाये, तो अगले दिन पड़ोसी ने भी लटका दिये. उन्हें लगा कि यह सामाजिक सौहार्द का व्यवहार होगा, लेकिन मालूम पड़ा कि उन पड़ोसी की इच्छा थी कि क्रिसमस का पहला झालर मुहल्ले में वही लटकाएं. उन्हें क्या मालूम था कि ये दिवाली के झालर हैं? यह तो खैर अमेरिका की बात है, जहां उस वक्त भी करोड़ों भारतीय थे.
बाद में तो खैर 2009 में बराक ओबामा ने व्हाॅइट हाउस में दिवाली मनायी. कनाडा में उससे दस वर्ष पूर्व से राष्ट्रीय पर्व के रूप में दिवाली मनती रही है. सीधी बात है कि प्रवासी भारतीय अब एक बड़े वोट-बैंक बन गये हैं, दिवाली तो मनेगी ही. लेकिन, मेरी इतिहास में भी रुचि है, तो यह जानने की भी इच्छा है कि यह सिलसिला कब से चल रहा है?
हमें इसके लिए इन नव-पूंजीवादी देशों से दूर जाना होगा. दुनिया का सबसे बड़ा दिवाली का दीया दक्षिण अमेरिका के एक छोटे से देश में जलता है. सूरीनाम की राजधानी परामरीबो में एक विशाल दीया जलाया जाता है, और वहीं भारतीय जमा होते हैं. ये उन गिरमिटियों के वंशज हैं, जो भारत के गांवों से ब्रिटिश सरकार गन्ने की खेती के लिए लेकर गयी थी.
तो दिवाली की कहानी दरअसल उन्नीसवीं सदी से शुरू होती है, जब खेतिहर मजदूर दिवाली मनाते थे. उनमें न जाति-भेद था, न धर्म-भेद. बल्कि दिवाली के अवसर पर अफ्रीकी और यूरोपीय मूल के लोग भी उनके साथ मिल कर दिवाली मनाते रहे. यही नजारा मॉरीशस, फिजी, कैरीबियन देशों, रीयूनियन द्वीप और मलय में भी देखने को मिलता है.
अंग्रेजों को दीपावली से परिचय कानून की पढ़ाई करने गये मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने शुरुआती भाषण में भी कराया, जो बाद में ‘फेस्टिवल्स ऑफ इंडिया’ नाम से संकलित हुआ. उन्होंने दिवाली को एक दिन नहीं, पूरे मास मनाने के रूप में समझाया.
हालांकि, ब्रिटिश उस वक्त अक्खड़ ही थे, और लंदन में दिवाली मनाने में खास रुचि नहीं थी. अब यह हाल है कि डेविड कैमरुन अपने घर पर दिवाली मनाते हैं. बहुसांस्कृतिक छवि भी बनानी है, और वोट भी लेने हैं.
छोटे देशों जैसे नॉर्वे में भी अब हजारों भारतीय हो गये हैं. हिंदू सनातन सभा की दिवाली, आर्य समाज की दिवाली, शहरों के अलग-अलग भारतीय संगठनों की दिवाली, क्षेत्रीय संगठनों की दिवाली, दूतावास की सरकारी दिवाली, गरबा वाली दिवाली, भांगड़ा वाली दिवाली, डिस्को वाली दिवाली.
न जाने कितनी दिवाली. हालात ये हो गये हैं कि लोग भागे फिर रहे हैं कि कितनी दीपावलियों में जाएं, घर में चुपके से मना कर छुट्टी करें. और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सबसे बनाये रखने के चक्कर में हर जगह जा रहे हैं. और इसलिए इंतजामात भी ऐसे हैं कि दिवाली एक दिन न होकर पूरे महीने मनाया जा रहा है. कहीं एक हफ्ते तो कहीं दूजे हफ्ते.
मेरा वर्तमान निवास ओस्लो से अस्सी किमी दूर कॉन्ग्सबर्ग नामक शहर में है. यहां इस हफ्ते बहुधा हिंदीभाषियों की दिवाली है, अगले हफ्ते बिहार से प्रवासियों की अलग दिवाली है, उसके अगले हफ्ते दक्षिण भारतीयों की दिवाली है, और इसी मध्य सनातन हिंदू मंदिर की भी दिवाली है. मैंने हर जगह पर्ची कटा ली है कि सबसे बात-मुलाकात हो जाये.
मेरे जैसे और भी कई लोगों ने पर्ची कटा ली होगी और कुछ लोगों ने कहीं की नहीं कटायी होगी कि कौन जाए! पर्ची कटाने का मतलब हर जगह के खर्च भारतीय ही उठाते हैं, तो पैसे भी भरने ही होते हैं. और तोहफेबाजी भी तो होगी. कुल मिला कर दिवाली में जेब का दिवाला निकलना तय है. मिठाई की दुकानें अधिकतर पाकिस्तानियों की है और उन्हें भी मालूम है कि दिवाली में डिमांड बढ़ेगी, तो तैयारी पूरी रखते हैं.
हां! पटाखों पर पाबंदी है, लेकिन फुलझड़ी और कुछ हल्की-फुल्की लड़ियां लोग चला ही लेते हैं. गीत-नृत्य भी खूब होता है और मंदिरों में गरबा भी मिल सकता है. बड़े देशों में तो खैर बॉलीवुड कलाकार भी पहुंच जाते हैं, यहां भी कोई न कोई आ ही जाता है. कई विदेशी भी भारतीय परिधान पहनकर यह तमाशा देखने आ जाते हैं. उन्हें यह क्रिसमस का ही समकक्ष लगता है कि रोशनी है, हंसी-खुशी है, खान-पान है और तोहफे हैं. यह भी कि नया साल आ रहा है.