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खलनायकों का सफर

कुछ खास विषयों पर बनी फिल्मों को छोड़ दें, तो हिंदी सिनेमा में नायक-खलनायक के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों पर ज्यादा फिल्में बनती हैं. बॉलीवुड की फिल्मों में दो ही किरदार मुख्य होते हैं- एक नायक और दूसरा खलनायक. जिस तरह से नायकों के अनेक रूप हैं, वैसे ही खलनायकों के भी अनेक रूप हैं और […]

कुछ खास विषयों पर बनी फिल्मों को छोड़ दें, तो हिंदी सिनेमा में नायक-खलनायक के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों पर ज्यादा फिल्में बनती हैं. बॉलीवुड की फिल्मों में दो ही किरदार मुख्य होते हैं- एक नायक और दूसरा खलनायक.

जिस तरह से नायकों के अनेक रूप हैं, वैसे ही खलनायकों के भी अनेक रूप हैं और वक्त के ऐतबार से इन खलनायकों के रूप न सिर्फ बदलते और विस्तार लेते रहे हैं, बल्कि नायकों से कहीं ज्यादा ये ही मशहूर भी हुए हैं. ऐसी अनेक फिल्में हैं, जो अपने नायकत्व के लिए नहीं, बल्कि खलनायकत्व के लिए जानी-पहचानी-देखी जाती हैं.

इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल फिल्म शोले है. शोले को हम ‘गब्बर’ के किरदार और उसके डायलॉग की वजह से ज्यादा पसंद करते हैं. लेकिन हां, जहां यह बात सच है कि हिंदी सिनेमा नायक-प्रधान रहा है, वहीं यह बात भी पूरी तरह सच है कि बिना खलनायकों के इन नायकों का कोई वजूद नहीं है. और सिनेमा इसी तथ्य में विस्तार लेता रहा है.

हमारा समाज नायकों को ज्यादा पसंद करता है. कभी उनका फैन बनता है, तो कभी उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहता है. इसलिए ज्यादातर लेखकों ने भी फिल्मी नायकों को ही अपनी किताबों के केंद्र में रखा है.

लेकिन, इस लीक से हटकर जब फजले गुफरान ने खलनायकों की जिंदगी को अपने लेखन में जगह दी, तो वह ‘मैं हूं खलनायक (बॉलीवुड के खलनायकों का सफर)’ नाम से एक किताब की शक्ल में हमारे सामने आयी. यश पब्लिकेशन, दिल्ली से आयी इस किताब में हिंदी सिनेमा के उन सारे खलनायकों की जिंदगी की काली-सफेद तहरीरें दर्ज हैं, जिनके बिना सिनेमा और मनोरंजन दोनों अधूरे ही रहते. ऑनलाइन उपलब्ध इस किताब में खलनायकों के बारे में रुचिकर जानकारियां हैं.

अलग-अलग दौर में खलनायकों के इतने किरदार हैं कि उन्हें किसी एक किताब में सीमित नहीं किया जा सकता. फिर भी, फजले गुफरान ने न सिर्फ इसकी पूरी कोशिश की है, बल्कि किताब को कई हिस्सों में भी बांटा है. ‘नायक नहीं, खलनायक हूं मैं’, ‘सुनहरे दौर के खलनायक’, ‘नयी पीढ़ी के खलनायक’, ‘हीरो, जो बने विलेन’, ‘नायिका के साथ खलनायिका भी’ और ‘निर्देशक की विलेनगिरी’ आदि वे मुख्य हिस्से हैं, जिनको पढ़ने में पाठक अपनी अभिरुचि का ख्याल रख सकता है.

– वसीम अकरम

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