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क्या करे अभिनेता?, कहां जाये अभिनेता?
राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी हिंदी रंगमंच में अभिनेता के रूप में जीने की कोई सूरत नहीं है, यदि आप एनएसडी रंगमंडल या ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ जैसे किसी गैर-रंगमंचीय व्यावसायिक उपक्रम से नहीं जुड़े हों. ये दोनों रोजगार के सर्वोत्तम उपलब्ध विकल्प होते हुए भी सीमित हैं और दोनों में पचास-साठ अभिनेताओं का ही समायोजन हो […]
राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी
हिंदी रंगमंच में अभिनेता के रूप में जीने की कोई सूरत नहीं है, यदि आप एनएसडी रंगमंडल या ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ जैसे किसी गैर-रंगमंचीय व्यावसायिक उपक्रम से नहीं जुड़े हों. ये दोनों रोजगार के सर्वोत्तम उपलब्ध विकल्प होते हुए भी सीमित हैं और दोनों में पचास-साठ अभिनेताओं का ही समायोजन हो पाता है. ये विकल्प अल्पकालिक हैं, और आपको कभी भी बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है!
हिंदी प्रदेशों में आज भले ही सैकड़ों की संख्या में रंगमंडल हैं, जिन्हें सरकार प्रतिवर्ष 10 से 15 लाख रुपये का वेतन अनुदान मुहैया कराती है, पर वहां भी अभिनेताओं की हैसियत बंधुआ या बेगार खटनेवाले मजदूरों से ज्यादा नहीं होती! अधिकांश रंगमंडलों के संचालक या निर्देशक सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से अभिनेताओं का वेतन हड़प लेते हैं.
जहां कहीं कुछ मुखर और सयाने अभिनेताओं को वेतन मिलता भी है, तो वह इतना कम (मात्र 6,000 रुपये) होता है कि उससे एक व्यक्ति के खाने और आवागमन का खर्चा भी निकलना कठिन है, जबकि कई अभिनेताओं पर परिवार चलाने की जिम्मेदारी भी होती है.
दिल्ली, पटना, लखनऊ, भोपाल और चंडीगढ़ जैसे महानगरों में सत्तर-अस्सी के दशक के कई ऐसे ‘जड़ियाये और घुन खाये हुए’ निर्देशक मौजूद हैं, जिनका एकसूत्री अभियान मंत्रालय से अधिकतम अनुदान झटकना है. इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) और संगीत नाटक अकादमी जैसी नियामक और विशेषाधिकार-संपन्न शासकीय संस्थाओं और उनके प्राधिकारियों के इर्द-गिर्द कृपापात्र बनकर रहना पड़ता हैै. लाखों रुपये की अनुदान राशि मिलते ही वे कोई ‘रेडीमेड‘ नाटक कर उसे निपटाने की जुगत में अभिनेता जुटाते हैं और किसी सस्ते सभागार में दस-बीस ‘तालीबाजों’ को बुलाकर शो कर देते हैं!
रंगमंच के अभिनेताओं को न प्रशिक्षण मिलता है, न पैसे मिलते हैं! ऊपर से कुछ निर्देशक उन्हें अपशब्द बोलते हैं! आश्चर्य क्या कि आज पंचानबे फीसदी रंग-अभिनेता मुश्किल से एक-दो साल काम करने के बाद निर्देशक बनने की होड़ में उतर जाते हैं. उन्हें जल्दी ही मालूम हो जाता है कि यहां जीना है और पैसा कमाना है, तो ‘आयोजक’ या ‘कॉन्ट्रैक्टर‘ बनना होगा, अनुदान लेने होंगे, महोत्सव करना होगा. यानी रंगमंच में अभिनेता नहीं निर्देशक बनना होगा!
इस भेंड़ियाधसान के कारण आज हमारे चारों तरफ ऐसे नये निर्देशकों की बहुतायत हो गयी है, जिन्हें रंगमंच, साहित्य और समाज की प्रारंभिक समझ भी नहीं है. उनके पास न सीखने का समय है और न ही आंतरिक जरूरत. वे अपने आप में मुग्ध हैं. पुरानी पीढ़ियों ने उनको लालच, मूल्यहीनता और आत्ममुग्धता की यही विरासत सौंपी है! सातवें-आठवें-नवें दशक की जिस पीढ़ी की मैं बात कर रहा हूं, वे आज किस तरह के काम कर रहे हैं? क्या उनके काम में कोई नवीनता या नवाचार दिखायी देता है? क्या उनका समाज के साथ कोई जीवंत रिश्ता बचा है?
बहुत न्यून संभावना होगी इस बात की. वे वर्षों से अपने आपको दोहराते आ रहे हैं, उनके अंदर थिएटर अब नहीं बचा यह सिद्ध हो चुका. वे एक ओर संसाधनों का रोना रोते हैं और सरकार को कोसते भी रहते हैं, दूसरी तरफ उन्होंने तमाम शक्ति केंद्रों पर भी नियंत्रण और वर्चस्व बनाकर रखा है. वे सारी जगह घेरकर बैठे हुए हैं.
सवाल उठता है कि युवा पीढ़ी को क्या वह अहमियत और मान्यता और प्रोफेशनल संतुष्टि नहीं चाहिए, जिस पर हर आनेवाली पीढ़ी का स्वाभाविक अधिकार होता है? उसे रंगमंच की दिशा तय करने का अवसर नहीं चाहिए? जो केवल पेंशन और सम्मान पाने लायक हैं, उनको अपना, रंगमंच का नियामक बनाये रखना क्या ठीक है? युवा पीढ़ी को अपना स्थान, महत्व और सर्वाधिकार लेने के लिए आगे आना चाहिए. रंगमंच को फिर से समाज की पटरी पर लाने की जिम्मेदारी से वे भाग नहीं सकते.
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