भारत में ऋषिकेश और हरिद्वार हिंदुओं के पवित्र शहर होने के कारण हर साल बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को आकर्षित करते हैं.
बड़ी संख्या में लोगों के आने के चलते वैज्ञानिक यहां एंटीबायोटिक प्रतिरोधक में वृद्धि के कारणों को समझने की कोशिश कर रहे हैं. उनका मानना है कि वो इस विस्तार के पीछे काम कर रही प्रणाली के रहस्य का पता लगा सकेंगे.
एक वैश्विक समाज में, एंटीबायोटिक प्रतिरोधक के बढ़ने की एक वजह यात्रा को बताया जा सकता है.
अब न्यूकेसेल यूनीवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड ग्राहम और उनके अंतरराष्ट्रीय सहयोग इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि कितनी बड़ी संख्या में लोगों का जमावड़ा जीन के प्रसार के लिए आकर्षण का केंद्र बन सकता है, जो प्रतिरोध का कारण है.
इसके लिए उन्हें एक ऐसी जगह की जरूरत थी जो आमतौर पर प्रदूषण से मुक्त हो और जहां वो मानव गतिविधियों का अध्ययन कर सकें.
बड़ा जमावड़ा
ऐसे में ऋषिकेश और हरिद्वार उस समय प्रसिद्ध हो गए जब 1960 में इन शहरों को इस मामले के अध्ययन के लिए एकदम सही पाया गया.
हर साल मई और जून में इन शहरों में लाखों तीर्थयात्री आते हैं और शहर की आबादी करीब तीन लाख से बढ़कर दस लाख से अधिक हो जाती है.
इन शहरों में बहने वाली नदी साल के ज्यादातर दिनों में स्वच्छ रहती हैं, लेकिन इन दिनों में मानव कचरा जैसे प्रदूषण इसमें मिलने लगते हैं.
प्रोफेसर ग्राहम बताते हैं, "जब बहुत अधिक लोग होते हैं को स्थानीय बुनियादी ढांचा नाकाफी पड़ जाता है और मलीय पदार्थों के बाहर आने की संभावना बढ़ जाती है."
मानव अवशिष्ट का बढ़ा हुआ स्तर ये समझने के लिए महत्वपूर्ण है कि एंटीबायोटिक प्रतिरोध के जीन किस तरह फैलते हैं.
ऐसा इसलिए है क्योंकि बैक्टीरिया में प्रतिरोधक जीन कहां स्थित रहते हैं और कैसे इन बैक्टीरिया को इंसान प्रसारित करते हैं.
बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक प्रतिरोधक स्वाभाविक रूप से जीन के जरिए नियंत्रित होता है.
फैलाव की वजह
ये जीन डीएनए के छोटे छल्लों, जिन्हें प्लाज्मिड कहा जाता है, पर पाए जाते हैं.
प्लाज्मिड बैक्टीरिया के बीच आसानी से आवाजाही कर सकते हैं और उन्हें एंटीबायोटिक प्रतिरोध जैसे लक्षणों को तेजी से अपनाने में मदद करते हैं.
कई लोगों की आंतों में ऐसी रचनाएं होती हैं, जिनमें ये जीन रहते हैं. आमतौर पर ये इंसान को तब तक प्रभावित नहीं करते हैं जब तक वो कुछ निश्चित एंटीबायोटिक नहीं लेते हैं.
प्रोफ़ेसर ग्राहम और उनके दल ने नदी से जो नमूने लिए हैं, उनसे पता चलता है कि जब मई और जून के दौरान नदी में मानव अवशिष्ट का स्तर बढ़ता है तो एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन का स्तर करीब 60 गुना बढ़ जाता है.
इससे पता चलता है कि लोगों की आंतों में प्रतिरोधक जीव मल के साथ नदी में मिल सकती है.
मलीय जीव बहुत लंबे समय तक जीवत नहीं रहते हैं लेकिन एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन को ले जाने वाला प्लाज्मिड नदी में तेजी से दूसरे जीवों में बदल जाता है.
इससे ये संभावना बढ़ जाती है कि जब लोग नदी का पानी पिएंगे या उसमें नहाएंगे तो एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन युक्त बैक्टीरिया को निगल लेंगे.
संक्रमण
इसके बाद वो उन्हें अपनी आंतों के सहारे अपने कस्बों और शहरों में ले आते हैं. इस तरह एंटीबायोटिक जीन दुनिया भर में फैला है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि जब बड़ी संख्या में लोग पर्याप्त सुविधाओं के बिना साथ-साथ रहते हैं तो एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन के फैलने की संभावना बढ़ेगी.
ऐसा दुनिया में किसी भी बड़े जमावड़े के दौरान होगा.
एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन के प्रसार से मौजूदा स्वास्थ्य चिंताएं और बढ़ी हैं.
लंदन स्कूल ऑफ हाईजीन एंड ट्रोपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर डेविड हेमैन का कहना है, "बड़े जमावड़े में साफ-सफाई, जल आपूर्ति और खानपान की खामियों के चलते इंसानों के बीच संक्रमण फैलने की गुंजाइश रहती है."
हालांकि गंगा जैसी नदी में तीर्थयात्रियों का आना संस्कृति के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है.
प्रोफ़ेसर ग्राहम कहते हैं, "यहां हमारा लक्ष्य सामाजिक गतिविधियों को बाधित करना नहीं है, बल्कि इसे सुरक्षित बनाने में मदद करना है."
वो कहते हैं कि बड़े जमावड़े महत्वपूर्ण हैं और निश्चित रूप से जारी रहने चाहिए. लेकिन संक्रमण के जोखिमों को न्यूनतम कर उन्हें अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है.
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