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शंघाई का समाजवाद

शंघाई में वर्ग भेद नहीं महसूस होता. स्त्री और पुरुषों को आप कदमताल मिलाते हुए देखते हैं. असमानता दिल्ली या मुंबई महानगरों जैसी नहीं खटकती. झुग्गी झोपड़ियां या सड़कों पर गंदगी नहीं दिखती. शंघाई ‘दैत्याकार’ है. आप मेट्रो से एक छोर से दूसरे को नाप जाइये, पर लगेगा कि शंघाई को देखा ही नहीं. जिलों, […]

शंघाई में वर्ग भेद नहीं महसूस होता. स्त्री और पुरुषों को आप कदमताल मिलाते हुए देखते हैं. असमानता दिल्ली या मुंबई महानगरों जैसी नहीं खटकती. झुग्गी झोपड़ियां या सड़कों पर गंदगी नहीं दिखती.

शंघाई ‘दैत्याकार’ है. आप मेट्रो से एक छोर से दूसरे को नाप जाइये, पर लगेगा कि शंघाई को देखा ही नहीं. जिलों, नगर, उपनगर में बंटा यह शहर महानगरों का महानगर है. आबादी करीब ढाई करोड़ है, पर शहर अराजक नहीं है. भीड़ और कोलाहल के बीच एक तरह का अनुशासन है जो मेट्रो में, सड़कों पर और विश्वविद्यालयों में नजर आता है. लोग विनम्र और सहज दिखते हैं. उनमें आक्रामकता नहीं दिखती है. जाहिर है, इस अनुशासन के पीछे चीन की समाजवादी राजनीतिक व्यवस्था है.
एक सेमिनार में भाग लेने पिछले दिनों शंघाई गया तो चीन के आर्थिक विकास से साक्षात्कार हुआ. फुतोंग एयरपोर्ट से जब आप शहर में दाखिल होते हैं, तो सबसे पहले विश्वस्तरीय आधारभूत संरचनाएं व गगनचुंबी इमारतें आकर्षित करती हैं. शंघाई एक आधुनिक शहर है. इतिहास के जानकार बताते हैं कि भले ही लोग बंदरगाहों के इस शहर के इतिहास को सैकड़ों साल पीछे ले जाएं, पर यह है महज डेढ़ सौ साल पुराना.
ऐसा भी नहीं कि कभी नहीं सोनेवाले इस शहर ने पुरानी स्मृतियों को संजो कर नहीं रखा हो! सौ-सवा सौ साल पुरानी इमारतें इन स्मृतियों की धड़कन हैं, जो सैलानियों को लुभाती हैं. सैलानियों की पसंदीदा जगह ‘बंड’ इलाका दुनियाभर के कारोबारियों और वित्तीय बैकों का ठौर रहा है. ‘पीपुल्स स्काॅवयर’ से यदि आप रात में बंड की पैदल यात्रा करें, तो रंगीनियों में सजी सैकड़ों गगनचुंबी इमारतें, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ब्रांडेड दुकानें और सड़क पर लंबी कारें आपको एक स्वप्निल दुनिया में ले जायेंगी. वहां सैलानी समझकर ‘दलाल’ आपसे ये पूछेंगे- लेडीज, होटल सर्विस?
पूंजीवाद के इस रूप से समाजवादी चीन के साथ तालमेल मिलाना मुश्किल हो जाता है. पर यह स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं कि लंबी गाड़ियों के साथ-साथ साइकिल पर चलनेवाले लोगों के लिए सड़कों पर बराबर जगह है. शंघाई में वर्ग भेद नहीं महसूस होता. स्त्री और पुरुषों को आप कदमताल मिलाते हुए देखते हैं. असमानता दिल्ली या मुंबई महानगरों जैसी नहीं खटकती. झुग्गी झोपड़ियां या सड़कों पर गंदगी नहीं दिखती.
इसी तरह ‘फ्रेंच कंसेसन’ (जहां 1849–1943 के दौरान औपनिवेशक सत्ता कायम थी) इलाके में अगर आप पेड़ों से आच्छादित फुटपाथ पर पैदल भटकें, तो लगेगा ही नहीं कि यह भी शंघाई ही है. गोथिक वास्तुशिल्प और भावबोध की वजह से यह मोहक है. और आश्चर्य नहीं कई यूरोपीय युवा जोड़े इन इलाकों से गुजरते, प्रेमालाप करते मिल जाते हैं.
शंघाई से एक-दो घंटे की यात्रा की दूरी पर नदियों-नहरों के इर्द-गिर्द कई पुराने नगर संरक्षित हैं, जो चीन के कृषक समाज और उनके रहन-सहन की झलक देता है. ऐसे ही एक इलाके में जब मैं गया, तो वहां अवस्थित म्यूजियम में चीनी कृषक और लोक संस्कृति की भारतीय संस्कृति से समानता से परिचित हुआ. हालांकि ये समानता खान-पान को लेकर नहीं है. यदि आप मेरे जैसे वेजिटेरियन हैं, तो शंघाई में आपको खाने की जगह ढूढ़ने पर ही मिलेगी. यदि आप नॉन-वेजिटेरियन हैं,
तो फिर आप विभिन्न तरह के भोजन का लुत्फ उठा सकते हैं.
भले ही शंघाई में दुनियाभर के लोगों की आवाजाही रही है, पर यहां अंग्रेजी अब भी सहमी हुई भाषा है. विश्वविद्यालय से लेकर किताब की दुकानों में चीनी का बोलबाला है. हालांकि विश्वविद्यालयों में बहस इस बात पर की जा रही है कि किस तरह गुणवत्ता में इसे ग्लोबल स्तर पर स्थापित किया जाये. सेमिनार में एक चीनी प्रतिभागी से माओ के ‘कल्ट’ के बारे में जब मैंने पूछा कि वह क्या सोचती है, तो उसने कहा- ‘मैं कुछ भी नहीं सोचती, मेरे माता-पिता की पीढ़ी जरूर सोचती है.’
चीनी युवाओं में भारत और ‘बॉलीवुड’ के प्रति दिलचस्पी हैं. छात्राएं मुझसे आमिर खान के दंगल (उनके शब्द रेसलर) की चर्चा कर रही थीं. पर दोनों देशों के बीच संबंध में जो विश्वास की कमी है, उसे दोनों देशों का मीडिया हवा देने में लगा रहता है. पिछले साल डोकलम में हुआ विवाद इसका उदाहरण है.
अपनी यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि भारतीयों के प्रति चीनी सहृदय हैं, पर सवाल है कि चीन के प्रति हमारा रवैया कैसा है? राजनीतिक और राजनयिक संबंधों के अलावे इस भूमंडलीकृत दुनिया में लोगों के बीच आपसी संबंध खुशहाल दुनिया के लिए बेहद जरूरी हैं. जरूरत है कि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो, विश्वविद्यालयों के बीच करार हो, छात्रों की आवाजाही बढ़े, ताकि एक-दूसरे के प्रति लोगों में जो अविश्वास है वह कम हो. और यही आर्थिक रूप से ताकतवर दो पड़ोसी देशों के हित में भी है. ऐसा बार-बार सुनने को मिलता है कि 21वीं सदी एशिया की सदी है. शंघाई इस एशियाई विकास का रूपक है!
अरविंद दास
पत्रकार

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