भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार ने औपचारिक रूप से कामकाज संभालने से पहले ही एक बड़ा क़दम उठा कर राजनयिक मोर्चे पर सुर्खियां बटोर ली हैं.
ये क़दम है नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के लिए पड़ोसी पाकिस्तान समेत सभी दक्षिण एशियाई देशों के नेताओं को आमंत्रित करना.
जानकारों की राय है कि नरेंद्र मोदी ने इस क़दम से जहां एक तरफ अपनी छवि को लेकर मौजूद आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया, वहीं पड़ोसी देशों को ये संदेश देने की भी कोशिश की है कि वो उन्हें साथ लेकर चलना चाहते हैं.
वैसे आम चुनावों में जब पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी ने शानदार जीत दर्ज की तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने मोदी को फोन किया और पाकिस्तान आने का न्यौता दिया.
दोनों देशों के बीच कुछ समय को छोड़कर ज़्यादातर तनाव रहा है. इस लिहाज़ से इसे दोनों तरफ से एक अच्छे संकेत के तौर पर देखा जा सकता है.
मुंबई में 2008 के चरमपंथी हमलों के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्ते एक तरह से ठंडे बस्ते में हैं. इसके अलावा नियंत्रण रेखा पर हाल के दिनों में लगातार तनाव देखने को मिला है.
निर्याणक फैसलों की उम्मीद
नरेंद्र मोदी को ऐसे नेता के तौर पर देखा जाता है जो राष्ट्रीय सुरक्षा पर समझौता नहीं करना चाहते हैं और उनकी पार्टी पाकिस्तान के प्रति सख्त रुख अपनाने की वकालत करती रही है.
इसके अलावा पूर्वोत्तर भारत में अपनी चुनावी रैलियों में मोदी ने गैर क़ानूनी तौर पर भारत में आने वाले बांग्लादेशियों को लेकर सख्त क़दम उठाने की बातें कही थीं.
ऐसे में पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत सभी पड़ोसियों को लेकर उनकी नीति पर सबकी नज़रें टिकी हैं.
लेकिन संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत रह चुके हरदीप पुरी कहते हैं कि राजनीतिक और चुनावी मोर्चे पर दिए गए बयान और सरकार में आकर काम करना, दोनों बातों में फर्क होता है.
बीबीसी बांग्ला सेवा के संवाददाता शुभोज्योति के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, "जो कुछ भी चुनावों के दौरान कहा जाता है, जो बयानबाज़ी होती है, उसे सरकार में आने पर एक तरफ रख देना होता है. जब आप सरकार में आते हैं तो आपको मुद्दों को प्रशासनिक नज़रिए से देखना होगा, पड़ोसियों के साथ संबंध मज़बूत करने के नज़रिए से देखना होगा."
भारत में लगभग तीन दशक बाद किसी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर अपने दम पर स्पष्ट बहुमत मिला है. ऐसे में जाना जा रहा है कि मोदी पड़ोसी देशों को लेकर कहीं ज़्यादा निर्णायक तरीके से फ़ैसले ले सकते हैं.
दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर और दक्षिण एशियाई मामलों के जानकार अश्विनी राय कहते हैं कि पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत पड़ोसी देशों के नेताओं को शपथ ग्रहण में आने का न्यौता देकर मोदी ने अपनी छवि को बदलने की कोशिश की है.
वो कहते हैं, "मुसलमानों के बीच उनकी छवि अच्छी नहीं रही है. ख़ास कर गुजरात में हुए 2002 दंगों के कारण. ऐसे में मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी एक संदेश देना चाहते हैं कि किसी को भी घबराने की ज़रूरत नहीं है."
भारत के दो अहम पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश मुस्लिम बहुल हैं, ऐसे में उनके नेताओं को आमंत्रित करना मोदी की विदेशी नीति को लेकर पहला संकेत माना जा सकता है.
‘पड़ोसी भी रखें ख़्याल’
हरदीप पुरी कहते हैं, "ये फैसला बहुत सी सोच समझ कर उठाया गया है. दक्षिण एशिया में एशिया की आबादी का बड़ा हिस्सा निवास करता है. इस क्षेत्र में विकास की चुनौतियां एक जैसी हैं, सभी के लिए ग़रीबी एक बड़ी समस्या है. इन देशों के बीच आपसी कारोबार भी बहुत कम होता है. ऐसे में ये फैसला इस बात का संकेत है कि हम अपने पड़ोसियों का ख़्याल रखते हैं."
इस्लामाबाद में बीबीसी संवाददाता एम इलियास का कहना है कि नवाज़ शरीफ पर मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में जाने का दबाव तो होगा क्योंकि पिछले साल जब उन्होंने सत्ता संभाली थी तो अपने शपथ ग्रहण समारोह के लिए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन को आमंत्रित किया था, हालांकि मनमोहन सिंह ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था.
दिल्ली में पाकिस्तान उच्चायोग ने प्रधानमंत्री शरीफ को निमंत्रण पत्र प्राप्त होने की बात कही है.
शरीफ मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल होंगे या नहीं, ये तो अभी साफ नहीं है, लेकिन इसे भारत की नई सरकार की तरफ़ से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के तौर पर देखा जा रहा है.
हरदीप पुरी कहते हैं, "भाजपा का घोषणापत्र साफ़ कहता है कि हम पड़ोसियों से रिश्ते बढ़ाने के लिए पूरे प्रयास करेंगे, लेकिन पड़ोसियों को भी हमारी संवदेनशीलताओं का ख़्याल रखना होगा."
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