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मानसून का मिजाज समझने की आवश्यकता

नदियों का अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं. पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल के लिए बनाये गये बांध थोड़ी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं. पहाड़, पेड़, और धरती को सांमजस्य के साथ खुला छोड़ा जाए, तो हमारे लिए जरूरी वर्षभर के पानी को भूमि अपने गर्भ में ही सहेज ले.

इस बार केरल में मानसून एक सप्ताह देर से आया, मध्य भारत आते-आते उसे और देरी हुई. पर एक सप्ताह में ही कई राज्यों में औसत बारिश से कई गुना अधिक पानी बरस गया. हरियाणा में जून के अंतिम सप्ताह में 49.1 एमएम वर्षा रिकॉर्ड की गयी, जो औसत वर्षा स्तर 17.5 एमएम से कई गुना अधिक है. दिल्ली में जून के 30 में से 17 दिन बरसात हुई है. यहां 2011 के बाद अभी तक पहली बार इतने दिन बादल बरसे हैं. इसी तरह, यहां इस बार जून में बरसात भी सामान्य से 37 प्रतिशत ज्यादा हुई है. कोलकाता में 29 जून को आठ घंटे से अधिक, 40 मिमी बारिश हुई, जो 24 घंटे के चक्र के भीतर महीने की सामान्य बारिश के 15 प्रतिशत से अधिक है.

हमारे मौसम वैज्ञानिक पहले ही चेता चुके हैं कि इस बार अल-नीनो के असर से अनियमित बरसात होगी. भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा दो वर्ष पहले तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में चेताया गया है कि तापमान में वृद्धि का असर भारत के मानसून पर भी कहर ढा रहा है. देश की ग्रीष्मकालीन मानसून बारिश (जून से सितंबर) में 1951 से 2015 तक लगभग छह प्रतिशत की गिरावट आयी है. गर्मियों में मानसून के 1951-1980 की अवधि की तुलना में 1981-2011 के दौरान 27 प्रतिशत अधिक दिन सूखे दर्ज किये गये. बीते छह दशक में बढ़ती गर्मी और मानसून में कम बारिश के चलते देश में सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ रहे हैं. सूखे से प्रभावित क्षेत्र में प्रति दशक 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है. पर पर्याप्त आंकड़े, आकलन और चेतावनी के बावजूद अभी तक हमारा देश मानसून को बदलते मौसम के अनुरूप ढाल नहीं पाया है. न हम उस तरह के जल संरक्षण के उपाय अपना पाये, न सड़क-पुल-नहर का निर्माण कर पाये. सबसे अधिक जागरूकता की जरूरत खेती के क्षेत्र में है, जहां अभी भी किसान पारंपरिक कैलेंडर के अनुसार ही बुवाई कर रहे हैं.

असल में पानी को लेकर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण रही है. हमें बता दिया गया कि नदी, नहर, तालाब, झील आदि पानी के स्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश में पानी का स्रोत केवल मानसून ही है, नदी-झील आदि तो उसे सहेजने का स्थान मात्र हैं. पानी के कारण ही धरती जीवों से आबाद है, पर पानी के आगम मानसून की हम कदर नहीं करते, उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिये. मानसून केवल बरसात भर नहीं है, यह मिट्टी की नमी व घने जंगलों के लिए अनिवार्य होने के साथ तापमान नियंत्रण का अकेला उपाय तथा धरती के हजारों-लाखों जीव-जंतुओं के प्रजनन, भोजन, विस्थापन और निबंधन का भी काल है. मानसून के विदा होते ही देश के कई क्षेत्र में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारामारी होगी और फिर बारीकी से देखना होगा कि मानसून में जल का विस्तार हमारी जमीन पर हुआ है या वास्तव में हमने ही जल विस्तार के नैसर्गिक परिधि पर अपना कब्जा जमा लिया है.

हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन किस्म की जलवायु है- मानसून, मानसून पूर्व और मानसून पश्चात. इसी के चलते भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है. भारत के लोकजीवन, अर्थव्यवस्था, पर्व-त्योहारों का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है. खेती-हरियाली और वर्षभर के जल का जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है. इसके बावजूद, जब प्रकृति अपना आशीष इन बूंदों के रूप में देती है, तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं. इसका असल कारण है हमारे देश में मानसून को सम्मान देने की परंपरा का समाप्त होते जाना.

विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं, परंतु मानसून से मिले जल को संरक्षित करने को नहीं, बल्कि इसके मार्ग में हम खुद ही रोड़ा अटकाते हैं. नदियों का अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं. फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल के लिए बनाये गये बांध, अरबों की लगात, दशकों का समय, विस्थापन के बाद भी थोड़ी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं. पहाड़, पेड़, और धरती को सांमजस्य के साथ खुला छोड़ा जाए, तो हमारे लिए जरूरी वर्षभर के पानी को भूमि अपने गर्भ में ही सहेज ले.

हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम के साथ बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति न तो गंभीर हैं, न ही कुछ नया सीखना चाहते हैं. पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है, जबकि सर्वविदित है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है. मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं, इससे इंजीनियरिंग, ड्रेनेज, सैनिटेशन, कृषि, सहित बहुत कुछ जुड़ा है. बदलते हुए मौसम के तेवर को देखते हुए मानसून प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे समाज और स्कूलों से लेकर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में भी हो, जिसमें केवल मानसून में पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, शहरों में पानी के निकासी के माकूल प्रबंधन व संरक्षण जैसे अध्याय हों. विशेषकर अचानक बरसात के कारण उपजे संकटों के प्रबंधन पर.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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