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बुंदेलखंड का ‘राई नृत्य’ जो युद्ध में जीत के जश्न की बना पहचान, पोशाक से लेकर शैली, सब कुछ है बेहद खास

अगर आप कभी बुंदेलखंड की यात्रा पर गए हैं और आपने राई नृत्य देखा हो तो कभी इसे भूल नहीं पाएंगे. राई नृत्य बुंदेलखंड की लोक कला का अद्भुत नमूना है, जिसके बिना आज भी यहां के बड़े कार्यक्रम अधूरे माने जाते हैं. ये लोकनृत्य यहां की बेड़नी समुदाय की जीविका का प्रमुख हिस्सा रहा है.

Bundelkhand Rai Folk Dance: बुंदेलखंड का इतिहास शूरवीरता की दास्तान से भरा पड़ा है. आज भी लोग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और आल्हा-ऊदल के किस्से गर्व से सुनाते हैं. बुंदेलों की धरती जहां आन बान और शान का प्रतीक है, वहीं इसका सांस्कृतिक पहलू भी बेजोड़ है.

सांस्कृतिक लिहाज से धनी रहा है बुंदेलखंड

उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड को आमतौर पर पिछड़ा हुआ क्षेत्र माना जाता है. इसके विकास के नाम पर आज भी राजनीतिक दलों में जमकर सियासत होती है. लेकिन, सांस्कृतिक लिहाज से बुंदेलखंड हमेशा से धनी रहा और आज भी है. यहां की संस्कृति भारतीय लोक कला का वह हिस्सा है, जिसके हर पहलू से मिट्टी की सोंधी महक आती है. बुंदेलखंड के राई, सैरा नृत्य इसी का अहम हिस्सा हैं.

युद्ध के मैदान में सैनिकों का जोश बढ़ाते थे बुंदेली लोक कलाकार

बुंदेलखंड के नृत्यों की विशेषता और उसके ऐतिहासि​क व सांस्कृतिक पहलू पर नजर डालें तो शौर्य, पराक्रम और वैभव की दास्तान लिखने वाले बुंदेले जितना युद्ध के मैदान में दुश्मनों को पटखनी देने में माहिर थे, उतना ही उनमें अपनी संस्कृति के प्रति दीवानगी भी थी. यहां तक कि युद्ध के दौरान अपनी सेना की हौसलाअफजाई के लिए भी लोक कला से जुड़े संगीत और नृत्यों का सहारा लिया जाता था.

ये कलाकार सैनिकों का जोश कई गुना बढ़ा देते थे और युद्ध के मैदान में कई बार माहौल एकतरफा हो जाता था. इसके साथ ही युद्ध में मिली जीत के बाद जश्न भी पारंपरिक लोक उत्सवों के जरिए मनाया जाता था. इस तरह लोक नृत्य कलाकारों को भी सम्मान होता था.

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इन कलाकारों ने देश-विदेश में बुंदेलखंड के नृत्यों का खास पहचान दिलाई है. बुंदेलखंड के लोक नृत्यों में ‘राई’ की बात करें तो इसका मतलब सरसों होता है. जिस तरीके से तश्तरी में रखे सरसों के दाने घूमते हैं, उसी तरह बुंदेली नर्तक भी नगाड़ा, ढोलक, झीका और रमतूला के पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर नाचते हैं.

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युद्ध की जीत के बाद राई नृत्य करने की थी परंपरा

इसमें बुंदेली गोरी यानी महिला अपने नव गज लहंगे, पारंपरिक आभूषण जैसे बेंडा, टिकुली, करधनी, पैजनी पहने हुए गांव के गोरे यानी पुरुष के साथ नृत्य करती है. बुंदेलखंड के इलाके में लगभग 140 तरह के पारंपरिक लोक नृत्यों में से एक राई लोक नृत्य के अच्छी फसल, शादी और राजाओं के युद्ध से सफल वापस आने पर किए जाने की परंपरा थी.

इतिहासकारों के मुताबिक राई नृत्य बुंदेलखंड की समृद्धशाली लोक कला का बेजोड़ नमूना है. ये नृत्य राजाओं की युद्ध की जीत के बाद जहां बेड़नियां करती थीं. वहीं इसमें बुंदेली संस्कृति और पर्दा प्रथा की साफ झलक मिलती है. लोक मर्यादा के चलते लंबा घूंघट डाले इन महिलाओं का चेहरा जहां कोई देख नहीं सकता है वहीं इस राई नृत्य की खासियत इसका पारंपरिक पहनावा और गहने भी हैं.

बुंदेलखंड के कार्यक्रम राई नृत्य के बिना माने जाते हैं अधूरे

बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में आज भी भीड़ जुटाने के लिए खासतौर से चुनाव को लेकर सियासी माहौल में राई नृत्य सबसे अहम जरिया माना जाता है. ये नृत्य लंबे समय तक भीड़ को बांधे रखता है. यही कारण है कि राई नृत्यांगनाओं की टोलियों को चुनावों से भी खास उम्मीद रहती है.

बुंदेलखंड के राई के बिना उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई जिलों में आज भी संपन्न लोगों के बड़े कार्यक्रम अधूरे माने जाते हैं. लोक धुनों पर धूम मचाने वाली राई ऐसा नृत्य है, जिसमें नर्तकी लोगों की भीड़ जुटाती भी है और अपने अंदाज में नचाती भी है.

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ये लोकनृत्य यहां की बेड़िया जनजाति की महिलाएं की जीविका का प्रमुख हिस्सा रहा है. इसके साथ अब कई टोलियां भी राई, सैरा जैसे लोकनृत्यों को आगे बढ़ा रही हैं. लोग बड़े आयोजनों और पार्टियों में राई नृत्यांगनाओं को बुलाते रहे हैं. महोत्सवों में भी इनके लिए बड़े मौके होते रहे हैं.

राजाओं के समय में दरबारी नृत्य के रूप में मिली मान्यता

राई नृत्य आम तौर प भादों में कृष्ण जन्माष्टमी से प्रारम्भ होकर फाल्गुन माह में होली तक चलता है. इस नृत्य का नाम राई क्यों पड़ा, इसका तो कोई निश्चित कारण नहीं है. लोग इसे अपनी पीढ़ी के बताई जानकारी के आधार पर वर्णन करते हैं. लेकिन, बुंदेलखंड की बेड़नियों द्वारा किया जाने वाला मयूर-मुद्राओं का सौन्दर्य समेटे ये नृत्य अपने यौवन काल में राज्याश्रय प्राप्त दरबारी नृत्य रहा जरूर माना जाता रहा है. अब इसे अन्य लोग भी करने लगे हैं.

नाचते हुए मोर का होता है आभास

बेड़नियां इस नृत्य को करते हुए अपनी शरीर को इस प्रकार लोच और रूप देती हैं कि बादलों की गड़गड़ाहट पर मस्त होकर नाचने वाले मोर की आकृति का आभास मिलता हैं. इनका लहंगा सात गज से लेकर सत्रह गज तक घेरे का हो सकता है. मुख्य नृत्य मुद्रा में अपने चेहरे को घूंघट से ढककर लहंगे को दो सिरों से जब नर्तकी दोनों हाथों से पृथ्वी के समानांतर कन्धें तक उठा लेती है, तो उसके पावों पर से अर्द्ध चंद्राकार होकर कंधे तक उठा यह लहंगा नाचते हुए मोर के खुले पंखों का आभास देता हैं.

नृत्य में पद संचालन इतना बेहतरीन होता है कि नर्तकी दर्शकों के केंद्र बिंदु में रहती है. इसमें शुरुआत में ताल दादरा होती है, जो बाद में बदल जाती है. साथ में पुरुष वर्ग लोक धुन के जरिए समां बाधता है. नृत्य की गति धीरे-धीरे तेज होती जाती है. राई में ढोलकिया की भी विशिष्ट भूमिका होती है.

एक से अधिक ढोलकिए भी नृत्य में हो सकते हैं ढोलकिए नाचती हुई नर्तकी के साथ ढोलक की थाप पर उसके साथ आगे-पीछे चक्कर लगाकर साथ देते हैं. नृत्य के चरम पर ढोलकिया दोनों हाथों के पंजों पर अपनी शरीर का पूरा बोझ संभाले हुए, टांगे आकाश की ओर कर अर्द्धवाकार रेखा बनाकर आगे-पीछे चलता है. इस मुद्रा में इसे बिच्छू कहा जाता है.

राई नृत्य में नर्तकी की मुख्य पोशाक-लहंगा और ओढ़नी होती है. वस्त्र विभिन्न चमकदार रंगों के होते हैं. पुरुष वादक के तौर पर बुंदेलखंडी पगड़ी, सलूका और धोती पहनते हैं. राई के मुख्य वाद्य ढोलक, डफला, मंजीरा, तथा रमतुला हैं.

कई ये हस्तियों ने राई नृत्य को सराहा

बुंदेली शैली के इस नृत्य को देखकर जहां 1978 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह भी इसकी तारीफ करते नहीं थके थे, वहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सोनिया गांधी तो त्रिमूर्ति भवन में इस कलाकारों के साथ जमकर थिरके भी थे.

बुंदेलखंड की लोक नृत्यों में यहां की खुशबू

राई नृत्य कलाकार रेवती बताती हैं कि ये नृत्य विलुप्त न हो जाएं इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं और इस नृत्य को सिखाते भी हैं. रेवती कहती हैं कि बुंदेलखंड में ये नृत्य हम खुशी के मौकों पर और पर्व पर करते है. इसमें जो विधाएं हैं, ख्याल, फाग ये गाये जाते हैं. इनमें रंगों का भी मिश्रण होता है और नगड़िया, शहनाई, मजीरा इस नृत्य में सहायक रहते हैं. इस नृत्य में बुंदेलखंड की खुशबू को महसूस किया जा सकता है. बुंदेलंखड के लोक कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है, तभी ये कला पीढ़ी दर पीढ़ी आगे पहुंच सकेगी.

Sanjay Singh
Sanjay Singh
working in media since 2003. specialization in political stories, documentary script, feature writing.

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