!!राशिद किदवई, वरिष्ठ पत्रकार!!
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले कांग्रेस और सपा का गंठबंधन अचानक हुआ. इस गंठबंधन में कांग्रेस पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं की रायशुमारी नहीं ली. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी और कांग्रेस वर्किंग कमिटी के बीच इस गंठबंधन को लेकर कोई विधिवत रणनीतिक बैठक भी नहीं हुई. राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और प्रशांत किशोर ने दिल्ली में बैठ कर इतना बड़ा फैसला ले लिया. यही वजह है कि कार्यकर्ताओं के पास बहुत ज्यादा समय नहीं मिला कि वे जमीनी स्तर पर कुछ ठोस रणनीति बना सकें.
दूसरी बात यह है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच निचले स्तर पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते दोनों में आपस में कोई तालमेल नहीं रहा. इस तालमेल की कमी के चलते कांग्रेस की अगड़ी जातियों का वोट सीधे भाजपा को चला गया. जहां तक चुनाव प्रचार का सवाल है, दोनों पार्टियों ने एक साथ बहुत ही कम प्रचार किया.
इस वक्त कांग्रेस के लिए बहुत ही संवेदनशील मसला है. हालांकि, कांग्रेस ने गोवा और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश की जमीनी हकीकत पंजाब और गोवा से बिल्कुल अलग है. हालांकि उत्तर प्रदेश के साथ-साथ कांग्रेस ने उत्तराखंड भी गंवा दिया है, लेकिन राहुल की पंजाब में सराहना की जायेगी कि उन्होंने कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में भाजपा को हरा दिया है. अमरिंदर सिंह के लिए बीते ढाई-तीन साल में दो बातें अहम हैं- एक, लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमृतसर में अरुण जेटली को हराया. दो, विधानसभा चुनाव में उन्होंने बहुत मेहनत की.
कांग्रेस के लिए यह चिंतन-मनन का समय है, और राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के बारे में भी. इस वक्त कांग्रेस के अंदर आपसी तालमेल और पारदर्शिता की सख्त जरूरत है. उसे इस मामले में बहुत जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है. सिर्फ प्रशांत किशोर के भरोसे कोई भी चुनाव नहीं जीता जा सकता, क्योंकि किशोर प्रबंधन के विद्यार्थी हैं और वे सिर्फ माहौल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन उस माहौल को जमीनी स्तर पर भुनाने का काम कांग्रेस और पार्टी कार्यकर्ता ही कर सकते हैं. यहीं राहुल गांधी की जिम्मेवारी बढ़ जाती है. अब राहुल गांधी को चाहिए कि वे कम-से-कम केंद्र में विपक्ष की भूमिका में बैठी कांग्रेस को मजबूत बनाने की कोशिश करें, जो बहुत ही कमजोर स्थिति में है. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस में इस वक्त सोच-विचार की सख्त जरूरत है. सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार नहीं किया, लेकिन कार्यकर्ताओं के बीच उनकी मांग ज्यादा थी. वहीं दूसरी बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश से आनेवाले कांग्रेस के दर्जन भर नेताओं का चुनाव प्रचार में कहीं न दिखना भी पार्टी को मजबूती नहीं दे सका.
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब अखिलेश यादव ने एग्जिट पोल को देखते हुए कहा था कि जरूरत पड़ने पर वे बसपा के साथ भी जा सकते हैं, तो यह काम पहले ही होना चाहिए था. यानी अगर सपा को गंठबंधन करना ही था, तो कांग्रेस के साथ-साथ बसपा और राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ लेना चाहिए था, तब दृश्य कुछ और ही होता. बहरहाल, कांग्रेस के लिए अब सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि वह अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ पारदर्शी रहे और जमीनी स्तर पर ज्यादा काम करने की कोशिश करे. अभी भी कांग्रेस के पास दो साल का वक्त बचा हुआ है, जिसमें वह एक मजबूत विपक्ष की बड़ी और जिम्मेवार भूमिका निभा सकती है. अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है, तो साल 2019 में उसके लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जायेंगी.