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1806 में महादान टोंगरी में सखुआ पेड़ की खोह में मां वनदुर्गा की मूर्ति प्रकट हुई थी

बोलबा प्रखंड के मालसाडा गांव में स्थित मां वनदुर्गा शक्ति पीठ सिमडेगा जिले का एक अत्यंत पवित्र और ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है.

मां वनदुर्गा शक्ति पीठ हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र

फोटो: 23 एसआईएम: 20- वनदूर्गा मंदिर, 21- मंदिर के अंदर स्थापित मां की प्रतिमा

रविकांत साहू, सिमडेगा

बोलबा प्रखंड के मालसाडा गांव में स्थित मां वनदुर्गा शक्ति पीठ सिमडेगा जिले का एक अत्यंत पवित्र और ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है, जो आज हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है. यह स्थल ऊंचे-ऊंचे सखुआ पेड़ों और चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ है, जिससे इसकी प्राकृतिक सुंदरता और आध्यात्मिक वातावरण और भी रमणीय हो जाता है. मां वनदुर्गा का इतिहास लगभग 215 वर्षों पुराना माना जाता है, और यहां घटित अनेक अलौकिक घटनाएं आज भी लोगों की श्रद्धा को गहराई प्रदान करती हैं.

कई अलौकिक घटनाएं लोगों की स्मृतियों में आज भी ताजा हैं

ग्रामीणों और बुजुर्गों के अनुसार, सन 1806 में महादान टोंगरी नामक स्थान पर एक सखुआ पेड़ की खोह में मां वनदुर्गा की मूर्ति प्रकट हुई थी. कुछ समय बाद वह मूर्ति रहस्यमय तरीके से गायब हो गयी. इसके बाद गांव के पाहन विश्वनाथ सिंह को स्वप्न में मां ने दर्शन देकर अपने पुनः प्रकट होने का संकेत दिया. जब ग्रामीणों ने उस स्थान पर जाकर देखा, तो मूर्ति वास्तव में वहां उपस्थित थी. इसकी सूचना तत्कालीन टैंसेर राज के राजा जगतपाल सिंह को दी गयी. राजा स्वयं वहां पहुंचे और मूर्ति को देखकर भावविभोर हो गये. उसी समय सखुआ पेड़ के नीचे सरना स्थल पर मूर्ति को स्थापित कर विशेष पूजा-अर्चना की गयी. एक ही दिन में पत्थरों और लकड़ी से छोटा मंदिर बनाकर मां को विराजमान किया गया. राजा ने पूजा के लिए एक ब्राह्मण की नियुक्ति की, लेकिन मान्यता है कि मां ने उसे स्वीकार नहीं किया और क्रोध में उसे मंदिर से बाहर फेंक दिया. इसके बाद पाहन विश्वनाथ सिंह को पुजारी नियुक्त किया गया, और तब से यह परंपरा उनके वंशजों द्वारा निभायी जा रही है.

मां वनदुर्गा स्थल से जुड़ी कई अलौकिक घटनाएं, आज भी लोगों की स्मृतियों में जीवंत हैं. सन 1957 में एक दक्षिण भारतीय संन्यासी यहां पहुंचे और इस स्थल की महिमा बताकर शतचंडी महायज्ञ का आयोजन कराया. यज्ञ के दौरान चारों ओर बिच्छू और सांपों की भरमार हो गयी, लेकिन किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ. इसी समय एक बाघ गरजते हुए यज्ञ स्थल के चारों ओर घूमता हुआ माता की उत्पत्ति स्थल की ओर चला गया. यज्ञ के दौरान जब घी की कमी हुई, तो बाबा ने वरुण देवता से प्रार्थना की और नदी का पानी यज्ञ मंडप तक पहुंचते ही घी में बदल गया. यज्ञ समाप्त होने पर तीन टीन घी वापस नदी में चढ़ा दिया गया.

1984 में दो पक्षो के बीच हुआ था विवाद

सन 1984 में मां वनदुर्गा की उत्पत्ति स्थल को लेकर दो पक्षों के बीच विवाद हुआ. दोनों पक्षों ने थाने में शिकायत दर्ज करायी. इसी बीच महादान टोंगरी पर एक और मूर्ति प्रकट हुई, जहां पूजा-अर्चना शुरू हो गयी. अधिकारियों ने हस्तक्षेप कर मूर्ति और झंडे को हटाया, लेकिन बाद में दैविक प्रकोप का अनुभव होने पर मूर्ति को पुनः स्थापित किया गया. आज उसे मां समलेश्वरी के नाम से पूजा जाता है. यह मामला कोर्ट तक गया और फैसला वनदुर्गा समिति के पक्ष में आया.

1987 में विराट हिंदू सम्मेलन का हुआ आयोजन

सन 1987 में विराट हिंदू सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें जशपुर के राजा दिलीप सिंह जूदेव मुख्य अतिथि बने थे. वे जुलूस के साथ महादान टोंगरी पहुंचे थे. रामरेखा धाम से भी इस स्थल का आध्यात्मिक जुड़ाव हुआ. रामरेखा बाबा की प्रेरणा और जन सहयोग से दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया गया, जो 1984 में पूर्ण हुआ. बाद में यहां बजरंगबली का मंदिर भी स्थापित किया गया.

दक्षिणमुखी हैं मां

श्रद्धालुओं का मानना है कि मां वनदुर्गा दक्षिणमुखी और उग्र स्वरूपा हैं. यहां शक्ति तंत्र शीघ्र सिद्ध होता है और सच्चे मन से की गयी प्रार्थना अवश्य पूर्ण होती है. आज इस स्थल पर प्रतिदिन पूजा-अर्चना, आरती और प्रसाद वितरण होता है. प्रतिवर्ष चैती दुर्गा पूजा और अखंड कीर्तन का आयोजन किया जाता है. चैती पूजा के दौरान प्रतिपदा से पूर्णिमा तक जीव बलि पर रोक रहती है. यहां मुंडन, जनेऊ संस्कार, विवाह और घर वापसी जैसे अनुष्ठान भी संपन्न होते हैं.

केरसई के पंडित मदन गोपाल मिश्र को संतान नहीं थी, लेकिन मां से मन्नत मांगने पर उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. पालकोट के राजा लाल साहब प्रतिवर्ष बलि चढ़ाने आते थे. इसी प्रकार सिमडेगा के कई प्रशासनिक अधिकारी और न्यायाधीश भी मां की शक्ति का अनुभव कर चुके हैं.

मंदिर परिसर में अनुशासन का विशेष ध्यान रखा जाता है. यहां शराब पीना, मुर्गा-अंडा खाना, जुआ खेलना और प्लास्टिक का उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित है. यह स्थल सिमडेगा से 52 किलोमीटर, सुंदरगढ़ से 45 किलोमीटर, रामरेखा धाम से 56 किलोमीटर, टांगर गांव से 15 किलोमीटर तथा आसपास के कई गांवों से जुड़ा हुआ है.

नवरात्र के शुभ अवसर पर यहां कलश स्थापना के साथ पूजन प्रारंभ किया जाता है. प्रत्येक दिन भक्तों द्वारा दुर्गा पाठ किया जाता है और संध्या 6.30 बजे आरती होती है. मां वनदुर्गा शक्ति पीठ आज न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी सशक्त आस्था का प्रतीक बन चुका है. यहां आने वाले श्रद्धालु माता की कृपा से अपने को धन्य महसूस करते हैं और मनोकामना पूर्ण होने की बात विश्वासपूर्वक कहते हैं. प्रशासन भी इस स्थल को पर्यटन एवं धार्मिक दृष्टिकोण से विकसित करने के प्रयास कर रहा है.

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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