रांची. झारखंड के हरे-भरे जंगलों में कुछ कहानियां ऐसी हैं जो शब्दों से नहीं, पंखों की फड़फड़ाहट से कही जाती हैं. यहां के असुर, बिरहोर, खड़िया सहित अन्य 32 जनजातीय समुदायों के लिए पक्षी सिर्फ पेड़ की टहनी पर बैठा जीव नहीं, बल्कि उनके पूर्वजों, संरक्षकों और कुलदेवताओं के रूप हैं. हर चिड़िया एक पहचान है. एक रिश्ता है. एक मान्यता है. ये जनजातियां प्रकृति के साथ ऐसे घुल-मिल गयी हैं, जैसे धड़कन में लय. इनका मानना है कि हर पक्षी के पास कोई संदेश है. कोई पुरानी कहानी. कोई चेतावनी. कोई आशीर्वाद. और शायद यही कारण है कि झारखंड की जनजातियों में अपने कुल-प्रतीक पक्षियों को नुकसान पहुंचाना वर्जित है. वे इकोलॉजिकल मैनेजमेंट और सद्भाव का अनूठा मॉडल बनाते हैं, जो आज के समय में पर्यावरण-संरक्षण की सबसे बड़ी जरूरत है. आदिवासियाें और पक्षियों के बीच इसी संवेदनशील रिश्तों पर प्रभात खबर संवाददाता मनोज सिंह ने यह रिपोर्ट तैयार की है.
पंखों में दर्ज है पहचान की विरासत
झारखंड की इन जनजातियों में हर पक्षी एक कबीले की पहचान है. कोई बाज को पूजता है, तो कोई हंस को पूर्वज मानता है. कोई उल्लू को ज्ञान का प्रतीक मानकर ढोल की ताल में उसकी आवाज उतारता है, तो कोई किंगफिशर को समृद्धि का संकेत मानकर उसकी सुरक्षा में लगा रहता है.कई विद्वानों की पुस्तकों में है इसका वर्णन
पॉल ओलाफ बोडिंग और शरत चंद्र रॉय जैसे विद्वानों और कई अन्य लोगों ने इन अमूल्य सांस्कृतिक बंधनों का वर्णन अपनी लेखनी में किया है. जो आज संरक्षण और सांस्कृतिक संरक्षण प्रयासों का मार्गदर्शन करते हैं. वन विभाग के पूर्व पीसीसीएफ (वन्य प्राणी) हरिशंकर गुप्ता झारखंड, झारखंडी और उनके बर्ड्स (चिड़ियों) पर काम कर रहे हैं. इतिहास के पन्नों से निकालकर लोगों तक पहुंचाने में लगे हैं. लोगों को बता रहे हैं कि कैसे झारखंड के जंगलों में प्रत्येक पक्षी की आवाज पूर्वजों का एक रहस्य लिए हुए है. झारखंड की जनजातियां दुनिया को एक अमूल्य सबक सिखाती हैं.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

