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Thursday, March 28, 2024

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मांय माटी: बची दुनिया को बचाने की कोशिश

संसार में कुछ चीजें अनोखी और अनमोल हैं. उनमें हैं-आदिवासी संस्कृति, उनका खान पान, रहन सहन, पर्व त्योहार और प्रकृति प्रेम. उनकी अनोखी जीवन शैली यानी उनकी संस्कृति और विश्व के लिए सबसे बड़ा दर्शन है. सहअस्तित्व जो प्रकृति का मूल सिद्धांत है.

रांची: संसार में कुछ चीजें अनोखी और अनमोल हैं. उनमें हैं-आदिवासी संस्कृति, उनका खान पान, रहन सहन, पर्व त्योहार और प्रकृति प्रेम. उनकी अनोखी जीवन शैली यानी उनकी संस्कृति और विश्व के लिए सबसे बड़ा दर्शन है. सहअस्तित्व जो प्रकृति का मूल सिद्धांत है. इसी दर्शन के साथ आदिवासी समुदाय सदियों से वन्य जीवों, वनस्पतियों, जल जंगल जमीन के साथ निवास करते आया है. और समाज में रहते हुए भाषा का विकास किया है. भाषा के बिना मनुष्य की कोई गति नहीं हो सकती है. भाषा ही मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है और यह भी सच है कि हमारे समाज और इतिहास के निर्माण में भाषा और संस्कृति की अहम भूमिका होती है. भाषा चाहे जो भी हो, संवाद स्थापित करने का सशक्त माध्यम है. वह संप्रेषण का सशक्त जरिया होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने 2022 _32 को स्वदेशी भाषाओं का दशक घोषित किया है जो आगामी नौ अगस्त, 2022 को होने वाले विश्व आदिवासी दिवस का थीम है.

मालूम हो कि दिसंबर, 1994 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा के द्वारा विश्व आदिवासी दिवस की घोषणा की गई थी. तब से यह लगातार 9 अगस्त को पूरे विश्व में धूमधाम से मनायी जाती है. विश्व के समस्त आदिवासियों के अधिकार, संस्कृति और जैव विविधता का सम्मान करना इसका उद्देश्य है. विश्व के 195 देशों में से 90 देशों में 5,000 आदिवासी समुदाय निवास करती है. इनकी आबादी 37 करोड़ है जिनकी 7,000 भाषाएं हैं. इन भाषाओं में उनका परंपरागत ज्ञान और लोक चिकित्सा ज्ञान सन्निहित है जिसके सहारे वे सदियों से समुदाय का जीवन बचाते आये हैं. हमारे देश की आदिवासी आबादी 8.6 प्रतिशत है जो 705 समुदायों में बंटे हुए हैं. इनमे से 75 तो अभी भी आदिम जीवन यापन करने वाले हैं, जिनकी अपनी अपनी भाषाएं हैं. झारखंड में ही नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि यहां 32 आदिवासी समुदाय हैं. उनमें से 8 आदिम जन जाति हैं. उनकी अपनी अपनी भाषा और संस्कृति है. लेकिन विश्वविद्यालयों में सिर्फ नौ भाषाओं की ही पढ़ाई होती है. शेष भाषाएं मर मिट जाएंगी तो उसके साथ उनके सारे परंपरागत ज्ञान खत्म हो जाएंगे. जड़ी बूटियों का ज्ञान समाप्त हो जाएगा. भाषा संस्कृति और परंपरागत ज्ञान- यही है आदिवासी पहचान. इस धरोहर को सहेजकर रखने से ही आदिवासी अपनी अस्मिता को बचा सकता है.

देश के संपूर्ण भौगोलिक इलाके का अमूमन 20 फीसद हिस्से में आदिवासी आबादी निवास करती है, जहां अनुमानतः राष्ट्रीय संसाधन का 70 फीसदी खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन मौजूद है. ये पांचवीं और छठी अनुसूची के इलाके हैं, जहां जमीन के मालिक आदिवासी हैं. अगर इन इलाकों में ग्राम सभा की सहमति से विकास की परियोजनाएं लगायी भी जाएं तो 25 प्रतिशत फायदा वहां के समुदाय को मिलनी चाहिए. लेकिन इसके उलट उन्हें बेदखल कर दिया जाता है. बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी, मानव व्यापार, वेश्यावृति, पलायन आदि मुद्दों को विस्थापन जनित समस्या के बतौर देखा जा सकता है. वर्ष 2007 में संयुक्त राष्ट्र के द्वारा आदिवासियों के लिए जो घोषणा पत्र बनाये गये, जिसमें विश्व के लगभग 193 देशों ने हस्ताक्षर किए, उस अधिकार पत्र के अंतर्गत भूमि, भूभाग, संसाधन और संस्कृति पर आदिवासियों का अधिकार है. सरसरी निगाह से देखें तो विश्व की 80 फीसद जैव विविधता आदिवासी आबादी के द्वारा संरक्षित की जाती है. जबकि हमें ही जंगल को उजाड़नेवाला बताया जाता है. जबकि खनन उद्योग ने सबसे अधिक जंगल उजाड़ा है. मुनाफा आधारित पूंजीवाद ने हमारा शोषण किया है.

दुनिया के बड़े देश कनाडा, न्यूजीलैंड, रूस, फिजी, मलेशिया, ब्राजील, बेनेजुएला इत्यादि देशों ने हाल के वर्षों में अपने देश के संविधान में आदिवासियों के कल्याण के लिए कई प्रावधान जोड़े हैं. भारत ने भी आदिवासियों के लिए कई प्रावधान बनाया है. लेकिन उसे लागू करने की राजनीतिक मंशा यहां के अगुओं और नौकरशाहों में नहीं है. पांचवीं और छठी अनुसूची में प्रशासन और नियंत्रण का काम अभी भी अधूरा है. पेसा नियमावली 26 वर्षों के बाद भी नहीं बनायी गयी. वन भूमि पर कब्जे को मान्यता देने के लिए वनाधिकार कानून, 2006 बनाया तो गया है लेकिन अभी भी वन निवासियों के ऊपर दमन जारी है. सरना/आदिवासी कोड की मांग वर्षों से लंबित है. सरना मता वलंबियों को हिंदू धर्मावलंबी बताकर उनके धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की साजिश की जा रही है. झारखंड में कई भूमि संरक्षण कानूनों के अस्तित्व में रहने के बावजूद हमारी जमीन का तेजी से क्षरण हो रहा है. यद्यपि हमारे राज्य में 27 प्रतिशत आदिवासी आबादी है, तथापि स्थानीय जनता के अनुरूप रोजगार की नीति नहीं बनायी गयी. लाखों झारखंडी लोग दूरस्थ राज्यों में सस्ते मजदूर के रूप में काम करने को मजबूर हैं जहां वे शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं. कई ऐसे उदाहरण हैं जिसमे ठेकेदार ने नाबालिग लड़के लड़कियों को बेच दिया. यह अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी है.

आज भी आदिवासियों के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, रंग रूप और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है. एक बार संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधि दल ने यह घोषणा कर दिया था कि भारत में कोई आदिवासी नहीं हैं. यहां अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं. लेकिन एक शोध में यह पता चला कि भारत के आदिवासियों का डीएनए 73,000 वर्ष पुराना है. जबकि आदिवासियों की मौजूदगी को नकारने वालों का डीएनए महज 3,500 वर्ष पुराना है. इंडिजीनस वर्ग को खारिज करने में सिर्फ भारत का ही नाम नहीं है. इंडोनेशिया की सरकार कहती है कि उनके देश में इंडिजीनस पीपल्स नहीं रहते जबकि वहां ‘पपुवान’ नामक आदिवासी समुदाय सदियों पूर्व से रहता आया है. बंगला देश की सरकार भी यह नकारते रही है कि उनके देश में कोई आदिवासी समुदाय नहीं रहता है जबकि सच यह है कि वहां ‘जुमा’ नामक आदिवासी रहता है. वियतनाम भी नही स्वीकारता है कि उसके देश में एबॉर्जिनल्स रहते हैं. हमारे देश के पूर्वोत्तर राज्यों से जब लोग आते हैं तो उन्हें चिंकिज कहा जाता है जो कि सरासर गलत है. हम विश्व आदिवासी दिवस इसीलिए मनाते हैं कि आदिवासियों के साथ बरते जा रहे भेदभाव और असमानता को मिटाने के लिए सभी देश अपने अपने संविधान में प्रावधान लाएं.

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