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झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 : पहले चुनावी दंगल से ही जूझ रहे पहाड़िया नेता, अब तक नहीं पहुंच सके विधानसभा

आरके नीरद संताल परगना में पहाड़िया का इतिहास ईसा से तीन सौ साल पुराना 68 साल के चुनावी इतिहास में पहाड़िया आदिम जनजाति को विधानसभा या लोकसभा में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का मौका कभी नहीं मिला है. यह बात दीगर है कि 1951 से अब तक हर चुनाव में इस जनजाति के नेता […]

आरके नीरद
संताल परगना में पहाड़िया का इतिहास ईसा से तीन सौ साल पुराना
68 साल के चुनावी इतिहास में पहाड़िया आदिम जनजाति को विधानसभा या लोकसभा में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का मौका कभी नहीं मिला है. यह बात दीगर है कि 1951 से अब तक हर चुनाव में इस जनजाति के नेता चुनाव मैदान में उतरते रहे हैं.
संताल परगना में पहाड़िया आदिम जनजाति का इतिहास ईसा से तीन सौ साल से भी पहले का है. इसका अपना इस्टेट भी था. लिहाजा में इनमें राजनीतिक चेतना भी खूब रही है. आजादी के बाद, विधानसभा के पहले चुनाव से ही इस जनजाति के नेता राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में बैठने का ख्वाब देखते रहे हैं.
1951 के पहले विस चुनाव में राजमहल (दामिन) से चंद्रमणी पहाड़िया ने चुनाव लड़ा था. ऐसा करनेवाले वह इस जनजाति के पहले नेता हैं, मगर उन्हें केवल 1.63 फीसदी वोट मिले थे और उनकी जमानत जब्त हो गयी थी. उन्हें किसी पार्टी ने टिकट नहीं दिया था. पहली बार 1962 में किसी राजनीतिक दल ने इस जाति के नेता को टिकट दिया था. तब सीपीआइ ने इस सावना देहरी और भगवान देहरी को उम्मीदवार बनाया था. सावना देहरी लिट्टीपाड़ा और भगवान देहरी शिकारीपाड़ा विधानसभा से चुनाव लड़े थे.
उस साल तीन और पहाड़िया नेता चुनाव मैदान में थे, जिन्हें किसी दल का सिंबल नहीं था. 1967 में भी सीपीआइ ने एक और पहाड़िया नेता को टिकट दिया था. वह थे बी देहरी. उन्हें सीपीआइ ने शिकारीपाड़ा सीट से चुनाव में उतारा था. उन्हें 13.68 प्रतिशत वोट मिले थे और वह भी हार गये थे.
बहरहाल, अब तक कोई पहाड़िया नेता एमएलए नहीं बना. सांसद भी नहीं. हालांकि 1991 में कालीदास मालतो ने और 1998 एवं 1999 में महेश मालतो ने राजमहल लोकसभा सीट से तथा 2005 में कालीचरण देहरी ने दुमका लोकसभा सीट से किस्मत आजमायी थी, मगर कामयाब नहीं हुए.
बहरहाल, संताल परगना में विधानसभा की 18 में से सात सीटें दुमका, शिकारीपाड़ा, जामा, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, बोरियो और बरहेट एसटी के लिए आरक्षित हैं. इस बार इन सभी आरक्षित सीटों के अलावा नाला (सामान्य) सीट से भी पहाड़िया उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं.
इनकी कुल संख्या इस बार 11 है. इनमें से एक सिमोन मालतो को भाजपा ने झामुमो के हेमंत सोरेन के खिलाफ मैदान में उतारा है. चार को बसपा, एक को सीपीआइ, एक को टीएमसी और एक को झाक्रापा ने टिकट दिया है, जबकि दो निर्दलीय हैं. 1951 से अब तक, यहां हुए 16 विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों और विधानसभा क्षेत्र में पहाड़िया उम्मीदवार के उतरने की यह सबसे बड़ी संख्या है.
सिमोमन मालतो को 2005 में भी भाजपा ने उम्मीदवार बनाया था. तब उन्हें 31.02% वोट मिले थे. वह दूसरे स्थान पर रहे थे. 2009 में भाजपा ने उन्हें टिकट से बेदखल कर दिया. तब निर्दलीय प्रत्याशी के तौर मैदान में उतरे और 14.28 फीसदी वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे थे.
2014 में झाविमो ने उन पर दांव लगाया और 10.41 फीसदी वोट लाकर वह फिर तीसरे स्थान पर रहे. भाजपा ने एक बार उन पर भरोसा किया है. अगर वह चुनाव जीत जाते हैं, तो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में वह पहले पहाड़िया नेता होंगे, जाे राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में बैठेंगे. भाजपा ने 2009 में भी एक पहाड़िया नेता मनोज सिंह को जामा सीट से चुनाव में उतारा था. वह दूसरे स्थान पर रहे थे.
मनोज को 2005 में राजद ने भी इसी सीट से टिकट दिया था, मगर वह तीसरे स्थान पर रहे थे. इन दो को छोड़ कर भाजपा ने किसी और पहाड़िया नेता पर भरोसा नहीं किया. झामुमो ने तो कभी पहाड़िया को टिकट दिया ही नहीं. विधानसभा चुनाव लड़नेवाली रेवती महारानी पहली और एकमात्र पहाड़िया महिला नेता है. 1995 में उन्हें लिट्टीपाड़ा सीट पर 0.39 फीसदी वोट मिले थे. बहरहाल, पहाड़िया नेता के विधानसभा पहुंचने का सपना इस बार पूरा होता है या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा.
पहाड़िया समाज के लोगों को है सदन में नेतृत्व मिलने की उम्मीद
कब कितने पहाड़िया नेता विस चुनाव लड़े
वर्ष उम्मीदवार
1951 01
1957 03
1962 05
1967 02
1972 03
1980 01
1985 02
वर्ष उम्मीदवार
1990 04
1995 10
2000 01
2005 07
2009 06
2014 08
2019 11

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