रांची : मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. यह कहावत इन खिलाड़ियों पर सटीक बैठती है. ये सभी खिलाड़ी दिव्यांग हैं, लेकिन इनकी प्रतिभा की दिव्यता चारों तरफ फैल रही है. इनका हौसला बुलंदी पर है. हौसलों के दम पर ही राष्ट्रीय स्तर पर अपना दम दिखा रहे हैं. इनके जीवन का एक ही लक्ष्य है : मुश्किल हालात में भी खुद की पहचान बनाना. इन खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान साबित कर यह बता दिया है कि हम किसी से कम नहीं हैं. इनकी सफलता जोश, जज्बा और जुनून की जीत है. ऐसे ही मजबूत इरादों वाले छह खिलाड़ियों पर पढ़िए दिवाकर सिंह की रिपोर्ट…
मजदूर की बेटी ने राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीत बनायी पहचान
झारखंड के सिल्ली के आसपास में बसा है गांव बदायु. इसी गांव की रहनेवाली कल्याणी कुमारी. दिव्यांग हैं. ठीक से चल नहीं पाती हैं, लेकिन इनका हौसला कभी लड़खड़ाया नहीं. इस खिलाड़ी ने तीरंदाजी की पहली राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में ही रजत पदक अपने नाम कर लिया. पिता जीतनलाल महतो और मां लखीमनी मजदूरी कर अपना घर चलाते हैं. बेटी को पढ़ाने के लिए भी पैसा नहीं था, लेकिन कस्तूरबा विद्यालय में एडमिशन हुआ, तो तीरंदाजी का भी रास्ता खुल गया. कल्याणी ने सिल्ली आर्चरी अकादमी में 2014 में धनुष थामा. इसके बाद कभी पीछे नहीं मुड़ी.
एक साल में ही मार ली बाजी
कल्याणी को बेहतर तीरंदाज बनने में ज्यादा समय नहीं लगा. बहुत कम समय में तीरंदाजी की बारीकियां सीख ली. यह साबित कर दिया कि हौसला है तो कुछ भी मुश्किल नहीं है. 2014 में तीरंदाजी अकादमी में दाखिला हुआ. यहां एक साल जमकर मेहनत की और पहले पारा आर्चरी नेशनल प्रतियोगिता में रजत पदक जीता. 2016 में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में रजत पदक हासिल किया. कल्याणी का कहना है कि अब उनका लक्ष्य स्वर्ण पदक जीतना है.
जीतू राम बेदिया, राष्ट्रीय तीरंदाज
होटल में करते थे सफाई आज साध रहे निशाना
झारखंड के जोन्हा में यह छोटा सा गांव है बांधटोली. यही के रहनेवाले हैं दिव्यांग जीतू राम बेदिया. सीनियर पारा नेशनल तीरंदाजी में दो कांस्य पदक जीत चुके हैं. आज राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी के रूप में पहचान बन चुकी है. एक समय था जब इन्होंने कभी धनुष को छुआ तक नहीं था. जोन्हा के स्थानीय बाजार में एक होटल में साफ-सफाई का काम करते थे. इसी दौरान कोच रोहित की पारखी नजर पड़ी. आज जीतू अपनी मेहनत से अलग पहचान बना चुके हैं.
दो साल की मेहनत से बन गये राष्ट्रीय तीरंदाज
जीतूराम बेदिया के पिता लखीराम मजदूरी करते हैं. घर की आर्थिक स्थिति खराब है, लेकिन इनका हौसला हमेशा बुलंदी पर रहा. कोच रोहित ने तीरंदाजी सिखाना शुरू किया. दो साल इन्होंने जमकर मेहनत की. राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में बेहतरीन प्रदर्शन किया. इसके बाद इनका चयन राष्ट्रीय पारा नेशनल प्रतियोगिता के लिए हुआ. इस प्रतियोगिता में झारखंड के लिए दो कांस्य पदक जीते. जीतू का सपना पारा ओलिंपिक में मेडल जीत कर देश का नाम रोशन करना है. वह कहते हैं कि उनके करियर में जोन्हा आर्चरी सेंटर की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. यही रहकर तीरंदाजी का अभ्यास करते हैं. कोच रोहित का कहना है कि जीतू दिव्यांग जरूर हैं, लेकिन तीरंदाजी में किसी से कम नहीं है. इनमें अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में मेडल जीतने का दमखम है.
मुकेश कंचन, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर
जब क्रिकेट खेलना शुरू किया, तो सभी कहते थे खेलकर क्या करोगे?
झारखंड की राजधानी रांची के मुकेश कंचन ठीक से चल नहीं पाते हैं, लेकिन क्रिकेट के मैदान में इनकी प्रतिभा देख हर कोई तारीफ कर बैठता है. 2002 में जब इन्होंने क्रिकेट खेलना शुरू किया था तब लोगों ने कहा कि क्रिकेट खेलकर क्या करोगे? कुछ काम करो. कई बार कही आने-जाने के पैसे तक नहीं हुआ करते थे. किसी तरह क्रिकेट का अभ्यास करते. स्टेट दिव्यांग क्रिकेट प्रतियोगिता में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का मौका मिला. 2015 में इनकी कप्तानी में भारतीय दिव्यांग क्रिकेट टीम ने एशिया कप जीता.
अब तक खेल चुके हैं 54 अंतरराष्ट्रीय मैच
मुकेश कंचन अब तक 54 अंतरराष्ट्रीय मैच खेल चुके हैं. वहीं 21 मैचों में कप्तानी की है. इसके अलावा कई देशों का दौरा भी कर चुके हैं. अभी खिलाड़ियों को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं.
यमुना पासवान, ताइक्वांडो
सड़क दुर्घटना में हाथ गंवाने के बाद खींची सफलता की लकीर
झारखंड धनबाद के रहनेवाले यमुना पासवान का 2003 में एक सड़क दुर्घटना में हाथ कट गया था. हादसे के बाद करीब तीन महीने तक अस्पताल में रहे. इसी दौरान यमुना ने ताइक्वांडो की ट्रेनिंग लेने की योजना बनायी. इसमें उन्हें सफलता मिली. 2004 में धनबाद में हुई जिला ताइक्वांडो चैंपियनशीप में पहला गोल्ड मेडल जीता. इसके बाद यमुना ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. कड़ी मेहनत का ही नतीजा है कि वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ताइक्वांडो प्रतियोगिता में अपनी पहचान बना चुके हैं. यमुना अभी तक 54 मेडल जीत चुके हैं. 2006 में 24वीं नेशनल ताइक्वांडो प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक, 2009 में स्कूल नेशनल प्रतियोगिता में कांस्य और 2010 में इंटरनेशनल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया.
अक्षय ने दिया था एक लाख रुपये
यमुना की प्रतिभा की तारीफ अभिनेता अक्षय कुमार भी कर चुके हैं. 2010 में जब यमुना ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता तब इनके मार्शल आर्ट को देखकर अक्षय ने इस खिलाड़ी को एक लाख रुपये देकर सम्मानित किया था.
उमेश विक्रम, पैरा बैडमिंटन खिलाड़ी
दिव्यांग होने के कारण कभी कोई साथ खेलने को तैयार नहीं था
जमशेदपुर के रहने वाले पारा बैडमिंटन खिलाड़ी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित बैडमिंटन प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता है. बचपन में हुए पोलियो के शिकार के कारण इन्हें चलने में परेशानी होती है. इन्होंने पढ़ाई के साथ बैडमिंटन को शौक के तौर पर खेलना शुरू किया. लेकिन कोई नहीं जानता था कि शौक से शुरू किये गये इस खेल से इनको पहचान मिलेगी. बीआइटी मेसरा से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके उमेश ने 2011 में कॉलेज में ही रैकेट थामा, लेकिन दिव्यांग होने के कारण कोई इनके साथ खेलने को तैयार नहीं था. इसके बाद 2014 में रांची के खेलगांव के इंडोर स्टेडियम में बैडमिंटन का अभ्यास शुरू किया. यहीं से सफलता की कहानी शुरू हो गयी.
बीआइटी मेसरा से कर चुके हैं इंजीनियरिंग
उमेश विक्रम ने 2014 में ही ओड़िशा में आयोजित राष्ट्रीय पैरा बैडमिंटन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और स्वर्ण पदक जीता. इसके बाद 2016 में हरियाणा में आयोजित नेशनल में स्वर्ण, 2018 में नेशनल में रजत पदक जीतकर खुद को साबित किया. वहीं 2019 में अगस्त में स्पेन में आयोजित इंटरनेशनल प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता.
महिमा कुमारी, पैरासीटिंग वॉलीबॉल
परिवार की मदद के लिए करती हैं सिलाई-कटाई
धुर्वा के पास एक गांव की महिमा कुमारी ठीक से चल नहीं पाती हैं. 2018 में पैरा सीटिंग वॉलीबॉल से जुड़ीं. हर दिन अभ्यास करने के लिए लगभग 15 किलोमीटर मोरहाबादी के बिरसा मुंडा फुटबॉल स्टेडियम पहुंचती हैं. इसके लिए इन्हें पहले अपने गांव से दो से ढाई किलोमीटर पैदल चलकर सड़क तक पहुंचना होता है. एक साल अभ्यास करने के दौरान इस खिलाड़ी को पैरा नेशनल वॉलीबॉल प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला. झारखंड की टीम ने इस प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता था. इस दौरान महिमा ने शानदार प्रदर्शन किया. महिमा कुमारी ने खिलाड़ी के रूप में तो अपना करियर बना लिया, लेकिन सबसे बड़ी समस्या थी कि घर का गुजारा कैसे चले. इसको देखते हुए महिमा ने सिलाई का काम शुरू किया और अपनी पढ़ाई के साथ अपना खेल भी जारी रखा. महिमा का कहना है कि खेल से जुड़ने के बाद उनके अंदर हौसला आया और कुछ बेहतर करने की सीख मिली.