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अंगरेजों से लोहा लेनेवाले वीर शहीद तेलंगा खड़िया गुमनाम
दुर्जय पासवान गुमला : देश की आजादी के लिए जान देने वाले कई वीर शहीद आज भी गुमनाम हैं. इन्हीं में एक हैं गुमला जिले के सिसई प्रखंड स्थित मुरगू गांव के वीर शहीद तेलंगा खड़िया. इनकी वीरता की गाथा आज गुमला तक ही सिमट कर रह गयी है. अंगरेजों के जुल्मों सितम व जमींदारी […]
दुर्जय पासवान
गुमला : देश की आजादी के लिए जान देने वाले कई वीर शहीद आज भी गुमनाम हैं. इन्हीं में एक हैं गुमला जिले के सिसई प्रखंड स्थित मुरगू गांव के वीर शहीद तेलंगा खड़िया. इनकी वीरता की गाथा आज गुमला तक ही सिमट कर रह गयी है. अंगरेजों के जुल्मों सितम व जमींदारी प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले वीर शहीद तेलंगा खड़िया की कुरबानी आज भले ही चंद लोगों की जुबां पर है, लेकिन इन्होंने जो काम किया है, उसे भुलाया नहीं जा सकता है.
मुरगू गांव में ठुइयां खड़िया व पेतो खड़िया के घर जन्मे तेलंगा खड़िया बचपन से ही साहसी थे. नौ फरवरी 1806 को तेलंगा का जन्म हुआ था. तेलंगा बचपन से ही अंगरेजों के जुल्मों सितम की कहानी अपने माता व पिता से सुन चुके थे. इसलिए अंगरेजों को वे फूटी कौड़ी भी देखना पसंद नहीं करते थे. यही वजह है कि वे युवा काल से ही अंगरेजों के खिलाफ हो गये और लुक-छिप कर अंगरेजों को नुकसान पहुंचाते रहते थे.
40 वर्ष की आयु में तेलंगा की शादी रतनी खड़िया से हुई. दोनों से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम जोगिया खड़िया रखा गया. इस दौरान अंगरेजों का जुल्म बढ़ गया था. तेलंगा ने अंगरेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया. तेलंगा गांव-गांव में घूम कर लोगों को एकजुट करने लगे. इसी दौरान बसिया में जूरी पंचायत के गठन के समय स्थानीय दलालों के सहयोग से अंगरेजों ने तेलंगा के पकड़ लिया. दो वर्ष तक तेलंगा जेल में रहे.
जेल से छूटने के बाद तेलंगा मुरगू गांव लौटे. मुरगू आने के बाद वे पुन: जमींदारी प्रथा के खिलाफ लोगों को एकत्रित करने लगे. इसी दौरान 23 अप्रैल 1880 को अंगरेजों के एक दलाल ने तेलंगा को गोली मार दी, जिससे उनकी मौत हो गयी. उनकी याद में आज भी खड़िया समाज में तेलंगा संवत की प्रथा प्रचलित है. गुमला शहर से तीन किमी दूर चंदाली में उनका समाधि स्थल बनाया गया है. वहीं पैतृक गांव मुरगू में तेलंगा के माता व पिता की समाधि स्थल है.
खड़िया जाति के लोग अपने आपको तेलंगा के वंशज मानते हैं और उन्हें ईश्वर की तरह पूजते हैं. हालांकि सरकार की ओर से शहीद को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिला है. इतिहास की पुस्तकों में जरूर दो-तीन पंक्तियों में शहीद का नाम जुड़ा हुआ है, लेकिन आज भी वीर शहीद तेलंगा गुमनाम हैं.
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