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रमकंडा: थमने लगे चाक के पहिये : मिट्टी के बर्तन बनाने की परंपरा पर खतरा

गढ़वा जिले के रमकंडा प्रखंड में कुम्हार पेशा सदियों से ग्रामीण जीवन और सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न हिस्सा रहा है.

मुकेश तिवारी, रमकंडा

गढ़वा जिले के रमकंडा प्रखंड में कुम्हार पेशा सदियों से ग्रामीण जीवन और सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न हिस्सा रहा है. मिट्टी के बर्तन जैसे हंडियां, मटके, दीये और सजावटी वस्तुएं न केवल घरेलू उपयोग के लिए बल्कि परंपरा और संस्कृति के प्रतीक के रूप में भी महत्वपूर्ण रहे हैं. लेकिन आधुनिकता के प्रभाव और बदलती जीवनशैली ने इस पारंपरिक व्यवसाय को संकट में डाल दिया है.

अब स्टील, एलुमिनियम और प्लास्टिक के बर्तनों ने मिट्टी के बर्तनों की जगह ले ली है. वहीं, फ्रीज ने घड़े की उपयोगिता को कम कर दिया है. इससे मिट्टी के बर्तनों की मांग घट गयी है. सरकारी योजनाओं के तहत विद्युत चालित चाक तो मिला है, जिससे मेहनत कम हुई है, लेकिन लकड़ी की कमी और महंगाई ने बर्तनों को पकाने की प्रक्रिया को कठिन बना दिया है. लागत बढ़ने से बिक्री भी प्रभावित हो रही है, जिससे यह व्यवसाय टिकाऊ नहीं रह गया है.

नई पीढ़ी अब इस पेशे से दूरी बना रही है. रमकंडा के उमेश, महेंद्र, कृष्णा, विजय, आदित्य और संजय प्रजापति अभी भी मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, लेकिन उनके घरों के युवा अब सिलाई सेंटर, मिठाई दुकान, चिकन सेंटर और ड्राइवर जैसे आधुनिक व्यवसायों से जुड़ चुके हैं. रमेश, गोपाल, विकास, नेपाली और दामोदर प्रजापति इसका उदाहरण हैं.

मेहनत के अनुरूप कमाई नहीं: उमेश प्रजापति

फोटो: उमेश प्रजापति

उमेश प्रजापति बताते हैं कि एक हजार में मिट्टी की खरीदारी, 300 रुपये साइकिल लकड़ी की खरीदारी फिर कड़ी मेहनत के बाद मिट्टी के बर्तन बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है. उसके बाद इसकी मांग प्रत्येक वर्ष कम हो रही है. ऐसे में इस व्यवसाय से परिवार का जीवन यापन संभव नहीं है. बताते हैं कि उनके दो बेटे इससे अलग हटकर दूसरे व्यवसाय से जुड़कर जीवन यापन कर रहे हैं. बताते हैं कि अब वे इस उम्र तक पहुंच गये हैं की उनसे दूसरा काम अब नहीं हो सकता है. इसलिए किसी तरह इसी व्यवसाय से जुड़े हैं.

चाइनीज दीये और मोमबती ने मांग कम कर दी: बिनोद प्रजापति

फोटो- बिनोद प्रजापति

बिनोद प्रजापति बताते हैं कि पहले मिट्टी के बर्तन में ही भोजन पकता था. लेकिन अब आधुनिक दौर में इसकी जगह स्टील और अलमुनियम के बर्तनों ने ले ली. इसी तरह घड़ा की जगह फ्रीज और प्लास्टिक के डिब्बों ने ले किया. ऐसे में इसकी मांग काफी कम हो गयी. बताते हैं कि अभी दीवाली और छत महापर्व का समय आ गया है. लेकिन अब दिये की जगह चाइनीज दिये और मोमबती ने ली. जिससे मिट्टी के दिए की भी मांग पहले जैसी नहीं होती है. इससे उन्हें काफी दिक्कत हो रही है.

अब नया काम कर नहीं सकते : महेंद्र प्रजापति

फोटो: महेंद्र प्रजापति

महेंद्र प्रजापति बताते हैं की आज भी वे मिट्टी के चाक पर ही बर्तनों को गढ़ते हैं. उन्हें सरकारी योजना के तहत विद्युत चालित चाक नहीं मिला है. बावजूद वे पुरानी परंपरा के तहत ही काम में लगे हैं. बताते हैं कि मिट्टी के बर्तनों से उनके परिवारों का भरण पोषण सिर्फ हो रहा है. नयी पीढ़ी इस व्यवसाय को छोड़ चुके हैं. बताते हैं की यहां इनकी मांग भी नहीं है. इससे कुम्हारों को परेशानी हो रही है.

मिट्टी के बर्तनों की कीमत

मिट्टी के दीये : 80-100 रुपये

घड़े की कीमत : 30-100 रुपये

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