धनबादः ‘मैं बॉगनल श्रेणी का 064 टाइप वाष्पजनित इंजन एके 7 हूं. सन 1914 में लंदन की कंपनी मेसर्स डब्ल्यू जी बॉगनल ने मेरा निर्माण किया तथा लंदन के ही मेसर्स मैकलियोड एंड कंपनी ने मुङो खरीदा. मैंने अपनी सेवा सन 1915 में शुरू की. सन 1954 में मुङो लंदन से भारत लाया गया तथा सन 1963 में पूर्व रेलवे ने मुङो अधिगृहीत कर मेरी सेवा अहमदपुर-कटवा नैरो गेज सेक्शन में ली. 32 वर्षो से पूर्व रेलवे की निरंतर यात्री सेवा के पश्चात मेरी अंतिम यात्र 31/3/1995 को समाप्त हो गयी.’
मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय के दरवाजे पर खड़ा इंजन उर्वशी, जिस पर समय की धूल चढ़ती जा रही है, पर लिखा यह विवरण दरअसल रेलवे की ही नहीं समूचे जगत के बदलाव की कहानी कहता है. यह हमें उन बीते दिनों की याद दिलाता है जब छोटी लाइन पर वाष्प इंजन से ट्रेनें छुकछुक कर चला करती थी. अतीत के मामलों में आम तौर पर दिल में एक कसक सी होती है. लेकिन विकास के पथ पर आगे बढ़ने की खुशी भी. लेकिन इस इंजन और उस दौर को याद रखना जरूरी हैअगर आप स्टेशन के पूरब की तरफ लोको शेड जायें तो ‘कल चमन था आज एक सहरा हुआ’ का अहसास होगा.
पुराने लोगों को मालूम है यहां पर कितनी रौनक, भागम-भाग मची रहती थी. वाष्प इंजन की सीटियां बजती रहती थी. लोको कर्मी काम में व्यस्त रहते थे. लेकिन अब वहां सन्नाटा पसरा रहता है. विभागीय कार्यालय सुनसान पड़े हैं. वाष्प इंजन की जगह पहले डीजल इंजन और इलेक्ट्रिक इंजन ने ले लिया है. लोको की दीवारों पर पुराने भाप इंजन के रेखांकन के साथ धुंधली-धुंधली लिखी इबारत आज भी पढ़ी जा सकती है : कभी मैं भी थी.. पर अब यह अध्याय समाप्त हो गया है. सिद्धेश्वर प्रसाद धनबाद मंडल में ड्राइवर के पद से 1999 में रिटायर हुए हैं. वह बताते हैं : 1965 में बतौर अप्रेंटिश रेलवे में बहाली हुई. उसके बाद फायरमैन (स्टीम इंजन के अंदर जलती हुई आग में कोयला डालने वाला कर्मचारी) के पद पर पदोन्नति हुई. धीरे-धीरे डीजल इंजन का ड्राइवर और फिर राजधानी ट्रेन का ड्राइवर बना. यह बताते हुए उनके चेहरे पर संतोष झलकता है.