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World Environment Day 2021 : जंगल बचाने की जिद में गहने, खेत और मवेशी तक रख दिये बंधक, माफियाओं पर नकेल कसकर उजड़े जंगलों में ला दी हरियाली, पढ़िए इन पर्यावरणप्रेमियों के संघर्ष की गाथा

World Environment Day 2021, बोकारो न्यूज (दीपक सवाल) : हरे-भरे जंगल कसमार प्रखंड की विशेष पहचान हैं. इन जंगलों की हरियाली लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेती है, लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब ये जंगल पूरी तरह से उजड़ चुके थे. खासकर वह 1980 का दशक था, जब बहुत सारे जंगलों में पेड़-पौधों के नाम पर केवल ठूंठ शेष रह गए थे. जिन गांवों में थोड़े-बहुत जंगल बचे थे, उसके भी जल्द उजड़ने का खतरा बना हुआ था. वन माफिया पूरी तरह से हावी थे और स्थानीय ग्रामीण भी उनका साथ देते थे. जंगलों के इस कदर विनाश के कगार पर पहुंचने के बाद अंततः हिसीम गांव के कुछ ग्रामीण जगे और वनों को फिर से आबाद करने की ठानी और जिद से वे इसमें कामयाब भी हो गये. घर के गहने, खेत और मवेशी बेच या बंधक रखकर भी इन्होंने वनों को बचाने की मुहिम जारी रखी.

World Environment Day 2021, बोकारो न्यूज (दीपक सवाल) : हरे-भरे जंगल कसमार प्रखंड की विशेष पहचान हैं. इन जंगलों की हरियाली लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेती है, लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब ये जंगल पूरी तरह से उजड़ चुके थे. खासकर वह 1980 का दशक था, जब बहुत सारे जंगलों में पेड़-पौधों के नाम पर केवल ठूंठ शेष रह गए थे. जिन गांवों में थोड़े-बहुत जंगल बचे थे, उसके भी जल्द उजड़ने का खतरा बना हुआ था. वन माफिया पूरी तरह से हावी थे और स्थानीय ग्रामीण भी उनका साथ देते थे. जंगलों के इस कदर विनाश के कगार पर पहुंचने के बाद अंततः हिसीम गांव के कुछ ग्रामीण जगे और वनों को फिर से आबाद करने की ठानी और जिद से वे इसमें कामयाब भी हो गये. घर के गहने, खेत और मवेशी बेच या बंधक रखकर भी इन्होंने वनों को बचाने की मुहिम जारी रखी.

गांव के एक छोटे-से मुहल्ले से इसकी शुरुआत हुई. देखते ही देखते कसमार समेत अन्य प्रखंडों के गांवों में भी वन सुरक्षा समितियां बनने लगी और कुछ वर्षों में इस अभियान का विस्तार झारखंड के लगभग 430 गांवों में हो गया. समितियों की अथक मेहनत से जंगल फिर से खिलने लगे. पर, यह सब बहुत आसानी से नहीं हुआ. इसके लिए नेतृत्वकर्ताओं को काफी संघर्ष करने पड़े हैं. कई लोगों ने अपना पूरा जीवन ही इसमें झोंक दिया था. घर के गहने, खेत और मवेशी बेच या बंधक रखकर वनों को बचाने की मुहिम जारी रखी. कई जगहों पर वन माफियाओं के साथ आमने-सामने का मुकाबला हुआ. अपनों के साथ भी झड़प हुई. मिलों पैदल चले. रातों में जगकर पहरेदारी की. अब ये सारे जंगल फिर से लहलहा रहे हैं. पर, इसकी रक्षा और आबाद करने वाले ये वीर गुमनाम-सा होकर रहे गए. विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर ‘प्रभात खबर’ ने इस बार कसमार प्रखंड के कुछ ऐसे ही वीर रक्षक वीरों को फोकस किया है.

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देवशरण हेंब्रम हिसीम पहाड़ पर अवस्थित केदला गांव के निवासी हैं. वनों की सुरक्षा में इनकी काफी महत्वपूर्ण भागीदारी रही है. 1966 में ही वनों की सुरक्षा में अपने स्तर से लग गए थे. वर्ष 1984 में जब यहां वन सुरक्षा समिति का विधिवत गठन हुआ और वनों की सुरक्षा का अभियान छेड़ा गया तो इसकी बागडोर संभालने वालों में वे भी थे. उस समय इन्हें उत्तरी छोटानागपुर वन-पर्यावरण सुरक्षा समिति का संयोजक बनाया गया था. इनके नेतृत्व में कसमार प्रखंड समेत पूरे उत्तरी छोटानागपुर में वनों की सुरक्षा के लिए अनेक संघर्ष हुए. इनका पूरा जीवन सादगी औए संघर्ष से भरा है. साधारण धोती-कुर्ता पहनते हैं. बचपन से नंगे पांव चलते आये हैं. जूता-चप्पल का कभी उपयोग नहीं किया. पत्थरों से भरे कठिन पहाड़ी रास्तों में भी हमेशा नंगे पांव ही घूम-घूम कर वनों को बचाने और फिर से आबाद करने का काम किया. आज 78 वर्ष को उम्र में भी इनमें वही जुनून व स्फूर्ति है और वनों की सुरक्षा के प्रति उतने ही सजग व सचेत रहते हैं.

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कसमार प्रखंड के लोधकियारी गांव निवासी विष्णु चरण महतो पिछले 35 वर्षों से वनों की सुरक्षा में लगे हुए हैं. 1984 में जब केदला में कतिपय ग्राम स्तरीय वन सुरक्षा समितियों को मिलाकर उत्तरी छोटानागपुर वन-पर्यावरण सुरक्षा समिति का विधिवत गठन हुआ, तब इन्हें ही अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इनके नेतृत्व में वनों को बचाने के लिए जबरदस्त अभियान चला। अन्य प्रखंडों में भी वन समितियों का विस्तार किया. अनेक जगहों पर वन माफियाओं के साथ आमने-सामने का मुकाबला हुआ. तरह-तरह की कठिनाइयां झेली, पर पीछे नहीं हटे. लोधकियारी वन सुरक्षा समिति के अध्यक्ष के नाते गांव के जंगलों को बचाने में भी अहम भूमिका निभाई. 1990 के दशक में हुए केंद्रीय वन-पर्यावरण सुरक्षा सह प्रबंधन समिति के वार्षिक महासम्मेलनों समेत अन्य कार्यक्रमों को सफल बनाने में भी इनका अहम योगदान रहा है. श्री महतो कहते हैं कि वन सुरक्षा अभियान का अपना एक व्यापक इतिहास रहा है. इसमें लंबे समय तक कड़े संघर्ष करने पड़े हैं. बाद के दिनों में इन्हें केंद्रीय कमेटी का उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.

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गंगाधर महतो झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर अवस्थित कसमार प्रखंड के पाड़ी गांव के निवासी हैं. 1990-91 से वन सुरक्षा अभियान में जुटे हैं. उस समय इन्हें वन सुरक्षा समितियों की कसमार प्रखंड स्तरीय कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था. आज तीन दशक बाद भी उस जिम्मेदारी को उठा रहे हैं. इस अवधि में इन्हें भी काफी संघर्ष करने पड़े हैं. वे बताते हैं- उन दिनों वनों की सुरक्षा के कार्य काफी कठिन थे. सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण बंगाल के लोग यहां के जंगलों में आकर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करते थे. रोकने पर आक्रोशित थे. वे और समिति के सदस्य जब बंगाल जाते थे तो रास्ते में रोक कर परेशान किया जाता था, खदेड़ा जाता था. स्थानीय लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ता था. कोतोगाड़ा, पिरगुल आदि गांवों के वन सुरक्षा अभियान के विरोधी लोग रास्ते में रोक कर उनकी और समिति के सदस्यों की सब्जी आदि सामानों को छीनकर फेंक देते थे. श्री महतो बताते हैं कि वन सुरक्षा का ऐसा नशा था कि इस अभियान को जारी रखने के लिए बीबी के गहने और घर की गाय-बकरी, साइकिल-बाइक तक बेच या बंधक रख दी थी.

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झरीराम महतो हिसीम गांव के निवासी हैं. बचपन से जुझारू और संघर्षशील रहे हैं. 1984 में स्कूली जीवन में ही वनों की सुरक्षा में कूद पड़े थे. 1990-91 में इसमें पूरी तरह से सक्रिय होकर जुड़े. करीब दो दशक तक इस अभियान में साथ रहे और वनों को बचाने के लिए अनेक संघर्षों में साथ दिया. विभिन्न जगहों पर वन माफियाओं के विरोध और झड़प का सामना करना पड़ा, पर पीछे नहीं हटे. वनों को बचाने के लिए रात-रात भर जंगलों में घूमा करते थे. कई बार ऐसा भी हुआ कि दिन भर खाना नसीब नहीं हुआ, पर संघर्ष करना नहीं छोड़ा. केंद्रीय वन सुरक्षा समिति के महासम्मेलनों व अन्य कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए भी काफी मेहनत की. इन्होंने अपनी रैयती जमीन पर भी वृक्षारोपण कर लोगों को प्रेरित किया. इन्होंने एक जगह पर 100 गम्हार व 10 आम के पौधे लगाए, जो शत-प्रतिशत विकसित हुए. एक अन्य जगह पर भी काफी पेड़ लगाए थे. उसमें 70-80 गम्हार व सागवान के पौधे विकसित हुए हैं. इन्हें आज भी वनों की उतनी ही चिंता है.

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वन सुरक्षा अभियान को गति देने में हिसीम निवासी आनंद महतो का योगदान भी काफी अहम रहा है. वे भी स्कूली जीवन में ही इसमें कूद पड़े थे वनों को बचाने के लिए काफी संघर्षों के सामना किया. 1980 के दशक में हिसीम गांव में इनके ही मोहल्ले से जलेश्वर कहतो, गोलकनाथ महतो आदि की पहल पर इस अभियान की शुरुआत मोहल्ला स्तर पर हुई थी, जो बाद के दिनों में अन्य जगहों पर भी फैलती गई. श्री महतो बताते हैं कि वन माफियाओं से झड़प आम बात हो गई थी. उस समय साइकिल तक के संसाधन नहीं थे, पर वन बचाने का नशा कुछ इस कदर था कि एक बार पैदल ही मीटिंग करने गोमिया चले गए. दिनभर भूखों रहकर मीटिंग की. वापसी में 10 रुपये का चना खरीदा और खाते हुए पैदल घर लौटे. इसी तरह डुमरी विहार गोमिया में मीटिंग के दौरान वन माफियाओं ने घेर लिया था.मुश्किल से जान बचाकर निकले थे. गोला प्रखंड के गांवों में भी पैदल घूम-घूम कर वनों को बचाते थे. संग्रामडीह, मुरीडीह जाने के लिए श्रमदान से रास्ता बनवाया, ताकि वनों की सुरक्षा में सहूलियत हो सके. संघर्ष के ऐसे अनेक किस्से हैं.

कसमार में जंगलों को आबाद करने के लिए संघर्ष करने वाले गुमनाम नेतृत्वकर्ताओं में और भी कई विशेष नाम हैं. इनमें केदला के काशीनाथ सोरेन, लोधकियारी के प्रफुल्ल कुमार महतो, खुदीबेड़ा के अधीरचंद्र चक्रवर्ती व अजय कुमार गोस्वामी, दुर्गापुर के दुर्गा प्रसाद महतो व तपेश्वर महतो, पाड़ी के सुनील कुमार महतो, हिसीम के जलेश्वर महतो, श्रीकांत महतो व गोलक महतो, — के नाम विशेष तौर पर लिए जा सकते हैं. इनके संघर्षों की भी लंबी दास्तां है. इनमें हिसीम के जगदीश महतो का संघर्ष भी शामिल है.

Posted By : Guru Swarup Mishra

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