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सिसक रहा बचपन, टूट रहे सपने, विभागीय अधिकारी मौन
होटल व गैरेज में धड़ल्ले से हो रहा है बाल मजदूरी बाल श्रम से जुड़ा विभाग व अधिकारी बने हैं उदासीन श्रुतिकांत सहरसा : जिला मुख्यालय में ढ़ाबे और गैराजों में बचपन सिसक रहा है और मासूमों के सपने टूट रहे हैं. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन नन्हें हाथों में कलम […]
होटल व गैरेज में धड़ल्ले से हो रहा है बाल मजदूरी
बाल श्रम से जुड़ा विभाग व अधिकारी बने हैं उदासीन
श्रुतिकांत
सहरसा : जिला मुख्यालय में ढ़ाबे और गैराजों में बचपन सिसक रहा है और मासूमों के सपने टूट रहे हैं. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन नन्हें हाथों में कलम होनी चाहिए, वहां जूठे बरतन व छेनी-हथौड़े थमा दिए गए हैं. बुद्धिजीवी, अधिकारी और धनाढ्यों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाते बाल मजदूर समाज के नैतिक पतन की कहानी को रोकने की बजाय आगे बढ़ा रहे हैं. बालश्रम निषेध के लिए अधिनियम बनाये गये हैं. लेकिन खुद अधिनियम भी हालात और धनाढ़्यों की दासी बन कर रह गयी है. प्रावधान से भी बढ़ कर इस कलंक मुक्ति के लिए सामाजिक संकल्प की जरूरत है. सूत्रों के अनुसार जिला मुख्यालय से लेकर ग्रामीण क्षेत्र के सभी होटल व गैरेज में सैकड़ों की संख्या में बाल मजदूर काम कर रहे हैं. लेकिन बालश्रम मुक्ति के जिम्मेवार अधिकारियो को वे बच्चे नजर नही आते हैं.
सूत्रों के अनुसार जब कोई वरीय अधिकारी व आयोग के आने की सूचना मिलती है तो उस सूचना को आग की तरह फैला दी जाती है और अधिकारी व आयोग के सदस्यों को दिखाने के लिए कुछ बच्चों को मुक्त करा अपनी पीठ थपथपा ली जाती है. मालूम हो कि कुछ दिन पूर्व आयोग की सदस्य ललिता जायसवाल के नेतृत्व में शहर के कई होटलों में छापेमारी कर कई बच्चों को मुक्त कराया गया था. हालांकि उनके जाते ही कार्रवाई भी शांत हो गयी.
जागरूकता की है आवश्यकता:
बालश्रम की वजह से वह अनपढ़ रह जाते हैं और अपने अधिकार से भी वाकिफ नहीं हो पाते हैं. इस प्रकार बालश्रम पीढ़ी दर पीढ़ी भी स्थानांतरित होती है. ऐसे में जागरूकता ही ऐसा अचूक हथियार है. जिसके बल पर बालश्रम में काफी हद तक कमी लायी जा सकती है. बालश्रम निषेध से जुड़े प्रावधान वर्ष 1986 में बालश्रम प्रतिषेध एवं विनियमन अधिनियम अस्तित्व में आया. इसके तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ढ़ाबा, रेस्टोरेंट, होटल, चाय की दुकान, घरेलू कामगार, ईंट भट्ठा, गैराज, भवन निर्माण आदि स्थानों पर नियोजन प्रतिबंधित किया गया.
ऐसा किये जाने पर दोषी नियोजकों को 20 हजार रुपये के जुर्माने का प्रावधान किया गया. वहीं नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 के तहत 06 से 14 वर्ष के उम्र के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी. जबकि किशोर न्याय अधिनियम 2006 के तहत 18 साल तक के सभी बच्चों को शोषण से संरक्षण प्रदान करता है.उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1996 में एक मामले की सुनवाई करते हुए निर्देश दिया था कि बाल श्रमिक रखने वाले नियोजकों से 20 हजार रुपये जुर्माने के रूप में वसूल कर बच्चों के पुनर्वास के लिए बाल कल्याण कोष में जमा करना होगा. संविधान का अनुच्छेद 24 भी 14 साल से कम उम्र के बच्चे को खतरनाक कार्यों में लगाना प्रतिबंधित करता है। विडंबना यह है कि यहां बाल श्रम चाइल्ड ट्रैफिकिंग से भी जुड़ा हुआ है. समय-समय पर ऐसे बच्चे बरामद भी हुए हैं. बाबजूद बच्चों के संरक्षण का जिम्मा लेने वाले संगठन व अधिकारियों को यह नजर नही आता है.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब बच्चे अपने और परिवार की जीविका के लिए काम करने के लिए मजबूर होते हैं. जिससे उन्हें शैक्षणिक और सामाजिक हानि होती है, बाल श्रम कहलाता है.
इसके अलावा जब बच्चों को उनके परिवार से अलग कर दिया जाता है और समय पूर्व वयस्क जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है, बाल श्रम कहलाता है. वहीं मानव संसाधन विकास विभाग के अनुसार स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे बाल श्रमिक होते हैं. क्योंकि स्कूल नहीं जाने का आशय होता है कि वह किसी न किसी तरह के काम में लगे होते हैं. गरीबी से अधिक जागरूकता की कमी है कारण. नि:संदेह बाल श्रम का मुख्य कारण गरीबी, बढ़ती आबादी और अशिक्षा है. जब तक गरीबी रहेगी, तब तक इसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है. लेकिन यह कारण पूरा सच नहीं है. वास्तविकता यह है कि बाल श्रम से गरीबी बढ़ती भी है. बाल श्रमिक बाद में अकुशल वयस्क बन जाते हैं और पूरी जिंदगी कम आमदनी और गरीबी से घिरे रहते हैं.
वर्ष 2015 में राज्य सरकार द्वारा मुस्कान परियोजना चलायी गयी. जिसके तहत जिले की पुलिस को बाल श्रमिकों को मुक्त कराने की जिम्मेवारी सौंपी गयी. जिला मुख्यालय में भी जोर-शोर से यह अभियान चलाया गया. लेकिन इसक कुछ ख़ास परिणाम भी सामने नही आये हालांकि कुछ बाल श्रमिकों को गैराजों और ढाबे से मुक्त भी कराया भी गया . इनके नियोजक के खिलाफ पुलिस ने एफआइआर भी दर्ज किया. लेकिन कतिपय कारणों से यह योजना भी ठंडे बस्ते में चली गयी और पूर्व की तरह जिला मुख्यालय स्थित होटल और गैराज में बाल श्रम धड़ल्ले से जारी है और इस कलंक श्रम के बीच हर दिन सपने टूट रहे हैं.
बाल श्रमिकों की तादाद तमाम कवायद के बावजूद बढ़ती ही जा रही है. आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाके में बाल श्रमिकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. जिला मुख्यालय में ही सैकड़ों गैराज और सैकड़ों होटल और ढाबे हैं, जहां बाल श्रमिक कार्यरत हैं. ऐसे में महज नाम मात्र के बाल श्रमिकों की मुक्ति आम लोगों के भी गले नहीं उतर रही है. जबकि बाल श्रमिकों की मुक्ति के लिए जिले में धावा दल गठित हैं, जिसके संयोजक जिले के श्रम अधीक्षक होते हैं. इस दल का कार्य बाल श्रमिकों की मुक्ति के लिए प्रतिष्ठानों एवं व्यक्तियों के घर छापा मारना होता है.
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