Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का बिगुल अभी पूरी तरह नहीं बजा, लेकिन सियासी माहौल पहले ही गरम हो चुका है. चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) में जब 65 लाख मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट सूची से काटे गए तो राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह सूची कारण सहित सार्वजनिक की गई है. सवाल यह है कि क्या यह कदम लोकतांत्रिक पारदर्शिता को मजबूत करेगा या फिर यह विवाद और अविश्वास की नई ज़मीन तैयार करेगा?
नाम कटने की कहानी: ज़रूरी सुधार या संगठित गड़बड़ी?
आयोग का दावा है कि मतदाता सूची से नाम हटाना प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा है. मृतक व्यक्तियों, डुप्लीकेट नाम, पते के बदलाव या अधूरी जानकारी जैसी वजहों को इसका आधार बताया गया है. पहली नज़र में यह प्रक्रिया आवश्यक और तर्कसंगत दिखती है. लेकिन जब प्रभावित लोगों की संख्या 65 लाख हो, तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर सुधार वास्तव में ज़रूरी था या फिर इसमें कहीं न कहीं गड़बड़ी की गुंजाइश है?
65 लाख मतदाताओं के नाम, चुनाव आयोग ने जारी की उनकी लिस्ट जारी करना, यह कदम अकेले आयोग की इच्छा से नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद संभव हुआ. अदालत ने साफ़ निर्देश दिया कि सूची न केवल प्रकाशित की जाए, बल्कि प्रत्येक नाम कटने का कारण भी सामने लाया जाए.
यह अपने आप में ऐतिहासिक है, क्योंकि भारत में मतदाता सूची को लेकर इस तरह की पारदर्शिता की मिसाल कम ही देखने को मिलती है. यह आदेश आयोग को जवाबदेह बनाता है और प्रभावित मतदाताओं को अधिकार दिलाने की दिशा में बड़ी राहत है.

एक महीने का दावा — अधिकार वापस पाने की चुनौती
मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने घोषणा की है कि हर प्रभावित व्यक्ति को अपने नाम वापस जुड़वाने के लिए एक महीने का समय मिलेगा. यह लोकतंत्र की मरम्मत की कोशिश जैसा है. लेकिन सवाल यह भी है कि क्या ग्रामीण इलाकों के साधारण मतदाता, जिनके पास इंटरनेट या आवश्यक कागज़ात नहीं हैं, वे इस प्रक्रिया का लाभ उठा पाएंगे? शहरी और जागरूक वर्ग के लिए तो यह संभव है, लेकिन लाखों प्रवासी, मज़दूर और गरीब तबकों का क्या होगा?
यहाँ मुख्य सवाल यह भी है कि प्रभावित वोटर किस हद तक अपने अधिकार वापस ले पाते हैं. अगर बड़ी संख्या में गरीब, अल्पसंख्यक या प्रवासी मतदाता सूची से बाहर रह जाते हैं, तो इसका सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ेगा.
लोकतंत्र की असली परीक्षा
मतदाता सूची लोकतंत्र की नींव है. यदि लाखों लोग अपने ही नाम से वंचित रह जाते हैं तो चुनावी प्रक्रिया पर जनता का भरोसा डगमगा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद, असली चुनौती यह है कि आयोग यह साबित कर पाए कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य निष्पक्षता है, न कि किसी राजनीतिक गणित को साधना.
चुनाव से पहले की यह हलचल केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि आने वाले समय की राजनीति का संकेत है. यह तय करेगा कि जनता पारदर्शिता के तर्क से सहमत होती है या फिर इसे लोकतांत्रिक अधिकारों की कटौती मानकर सत्ता विरोध में लामबंद होती है.
अब गेंद मतदाताओं के पाले में है — क्या वे समय रहते अपने अधिकार वापस ले पाएंगे या फिर यह चुनाव बिहार की राजनीति में नए विवाद की इबारत लिखेगा?
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