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पटना : डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने केंद्रीय मंत्री के रूप में भी किये कई उल्लेखनीय कार्य

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक पटना : सन् 1996 के प्रारंभ में कुछ ही सप्ताह पहले चारा घोटाले को बोफोर्स और हवाला का ‘ग्रेट ग्रैंड फादर’ करार देने वाले डा.जगन्नाथ मिश्र बाद में खुद भी इस घोटाले के आरोपित बन गये थे. बाद में रांची लोअर कोर्ट से सजायाफ्ता भी हुए. इसे विडंबना ही कह सकते […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
पटना : सन् 1996 के प्रारंभ में कुछ ही सप्ताह पहले चारा घोटाले को बोफोर्स और हवाला का ‘ग्रेट ग्रैंड फादर’ करार देने वाले डा.जगन्नाथ मिश्र बाद में खुद भी इस घोटाले के आरोपित बन गये थे. बाद में रांची लोअर कोर्ट से सजायाफ्ता भी हुए. इसे विडंबना ही कह सकते हैं. 3 फरवरी .1996 को डा.मिश्र जब यह बात संवाददाताओं को बता रहे थे,तब उन्हें अपने बारे में इसकी कोई आशंका ही नहीं थी.
वे संभवतः यह समझ रहे थे कि चारा घोटालेबाजों से जितना भी और जैसा उनका ‘संपर्क’ रहा,वह एक आम राजनीतिक चलन मान कर नजरअंदाज कर दिया जायेगा, पर ऐसा नहीं हो सका. उन्हें लंबी जेल यात्राएं भी करनी पड़ीं. गंभीर बीमारी के आधार पर ही उन्हें जमानत मिली थी. बीमारी अंततः जानलेवा साबित हुई.
जब जगन्नाथ मिश्र को जमानत मिली थी तो कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया था कि एक ही केस में लालू प्रसाद भीतर और मिश्र बाहर क्यों ?. कम से कम वैसे दिलजले लोगों को अब समझ में आ जाना चाहिए कि मिश्र को जमानत देने का अदालत का निर्णय कितना सही था. पर, डा.मिश्र के राजनीतिक जीवन का सिर्फ यही एक पक्ष नहीं है.
उन्होंने दशकों तक बिहार की राजनीति को प्रभावित किया. सकारात्मक ढंग से भी और नकारात्मक तरीके से भी. दरअसल उन्हें अपने अग्रज,स्वतंत्रता सेनानी व दिग्गज कांग्रेसी नेता दिवंगत ललित नारायण मिश्र की लगभग पूरी राजनीतिक विरासत मिल गयी थी. ललित बाबू स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थे. खुद प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे .
ललित बाबू ने केंद्रीय मंत्री के रूप में बिहार खास कर उत्तर बिहार के विकास के लिए महत्वपूर्ण काम किये थे. ललित बाबू की 1975 की जनवरी में हत्या के बाद राजनीतिक क्षतिपूर्ति के तौर पर 1975 में ही डा.मिश्र को मुख्य मंत्री बनाया गया था. उससे पहले वे बिहार के सिंचाई मंत्री थे.
वे 1977 तक मुख्य मंत्री उस पद पर रहे. इस बीच देश में इमरजेंसी लग गयी थी. आपातकाल ज्यादतियों का दौर था. बिहार भी उससे अछूता नहीं रहा, पर डा.मिश्र के कार्यकाल में भूमि सुधार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम भी हुए. खास कर हदबंदी से फाजिल जमीन निकालने के सिलसिले में. इमरजेंसी की ज्यादतियों के साथ -साथ भूमि सुधार के कारण भी अनेक भूमिपति लोग कांग्रेस से सख्त नाराज थे. उनमें से कुछ ने मुझे यह बात बतायी भी थी.
बिहार में 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस सारी सीटें हार गयी. पर 1980 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस फिर सत्ता में आ गयी. संजय गांधी की मेहरबानी से डा.मिश्र एक बार फिर 1980 में मुख्यमंत्री बने. 1983 में विवादास्पद परिस्थितियों में उन्हें पद छोड़ना पड़ा. तब तक राजीव गांधी कव उदय हो चुका था.
1980-83 का डा.मिश्र का कार्यकाल कुल मिलाकर विवादास्पद रहा. इस कार्य अवधि में उन पर तरह -तरह के आरोप लगे. हालांकि पटना अरबन काॅपरेटिव घोटाले में डा.मिश्र को सुप्रीम कोर्ट से क्लिन चिट मिल गयी. कांग्रेस के भीतर की एक मजबूत लाॅबी डा.मिश्र के खिलाफ थी. पटना के स्थानीय अखबार समूह से उनकी ठन गयी.
मिश्र सरकार ने प्रेस को कंट्रोल करने के लिए विवादास्पद प्रेस बिल लाया. वह एक कलंकपूर्ण अध्याय था. प्रेस बिल के खिलाफ बिहार सहित पूरे देश में पत्रकारों का आंदोलन चला. अंततः उन्हें बिहार प्रेस बिल वापस लेना पड़ा.
प्रेस बिल तो वापस हो गया,पर मीडिया से डा.मिश्र का पहले जैसा मधुर संबंध नहीं रहा. 1983 में उन्हें मुख्य मंत्री पद छोड़ने के लिए हाइकमान ने बाध्य कर दिया. उससे कांग्रेस से असंतुष्ट होकर उन्होंने पार्टी छोड़ दी. तब उनके समर्थकों की अपनी अच्छी -खासी जमात थी. फिर भी उनकी पार्टी नहीं चली. फिर कांग्रेस में गये. केंद्र में मंत्री भी बने, पर चारा घोटाले ने उनके कैरियर पर विराम लगा दिया.
इसके बावजूद जदयू ने उन्हें अपने दल में मिलाकर उनके पुत्र को बिहार में मंत्री बना दिया था. ऐसा उनके समर्थकों की अच्छी -खासी संख्या के कारण ही संभव हुआ. डा.मिश्र जैसे एक विवादास्पद नेता को जदयू में मिलाने पर जब प्रश्न चिन्ह लगाया गया तो जदयू ने कहा कि डा.साहब के मिथिला के हर विधान सभा क्षेत्र में चार-पांच हजार ठोस समर्थक हैं. वे राजग को काम आयेंगे वे काम आए भी और 2005 में बिहार में राजग सत्ता में आ गया.

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