सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
लोकसभा में 2 जनवरी को हंगामा कर रहे अन्नाद्रमुक के 24 सदस्यों को स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सदन से पांच काम-काजी दिवसों के लिए निलंबित कर दिया. लोस स्पीकर का यह कदम सराहनीय है. हालांकि, यह सजा काफी कम है. यह सजा सबक सिखाने के लिए तो बिलकुल ही अपर्याप्त होगी. खैर शुरुआत अच्छी है.
अब राज्यों की विधायिकाओं के पीठासीन पदाधिकारियों को भी जरूरत पड़ने पर ऐसे ही कदम उठाने ही चाहिए. ऐसा करके वे लोकतंत्र का भला करेंगे. लोकसभा में लगभग रोज ही हो रहे हंगामे से क्षुब्ध स्पीकर ने पिछले महीने कहा था कि आपकी हालत तो स्कूली छात्रों से भी बदतर है.
ठीक ही कहा था. उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि यदि हंगामा बंद नहीं हुआ तो कार्रवाई होगी. उन्होंने कार्रवाई की शुरुआत भी कर दी. उधर, राज्यसभा में पीठासीन पदाधिकारी हंगामों से अब भी परेशान रहते हैं. दरअसल सत्ताधारी गठबंधन को वहां बहुमत हासिल नहीं है, लगता है इसलिए किसी तरह की सख्त कार्रवाई में हिचक है.
लेकिन, बिहार सहित देश की अनेक राज्य विधानसभाओं में अनुशासन लाने के लिए संबंधित पीठासीन पदाधिकारी लोक सभा स्पीकर का अनुसरण कर सकते हैं. उससे लोकतांत्रिक संस्था के प्रति नयी पीढ़ी में गलत धारणा नहीं बनेगी. उनको इसका श्रेय भी मिलेगा. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि देश की अधिकतर विधायिकाएं ‘हंगामा सभाएं’ बन कर रह गयी हैं. इसके लिए सारे दल जिम्मेदार हैं.
जो जहां प्रतिपक्ष में है, वहां वह हंगामा करना अपना कर्तव्य समझता है. नतीजतन लोकतंत्र लहूलुहान हो रहा है. नयी पीढ़ी को गलत संदेश मिल रहा है. संसद की कार्यवाही देखने गये एक स्कूली छात्र ने एक बार कहा था कि ‘हम तो इनसे अच्छे हैं.’
नोमोफोबिया से ग्रस्त : नोमोफोबिया यानी एक ऐसी बीमारी जिसमें मोबाइल साथ में नहीं रहने पर डर लगता हो! कहीं जरूरी फोन करना है तो काम बिगड़ सकता है, यदि उस समय मेरे पास मोबाइल नहीं हो। यह है डर!
अब तो स्मार्ट फोन का जमाना आ गया है. शहर से गांव तक यह महामारी के रूप मौजूद है. बढ़ता जा रहा है. स्मार्ट फोन में व्यस्त पिता को पुत्र से बात करने की फुर्सत नहीं तो पति को पत्नी से. अब तो पत्नियों के हाथों में भी स्मार्ट फोन नजर आने लगा है.
इससे सबसे अधिक खतरा बच्चों की आंखों को है. पर कौन ध्यान देता है! कई बार तो आपके ड्राइंग रूम में बैठे आपके चारों-पांचों मित्रों की नजरें अपने-अपने स्मार्ट फोन पर होती हैं और आपकी तरफ से वे लगातार लापारवाह रहते हैं़ हद तो तब हो जाती है जब कोई राजनीतिक दल या संगठन किसी गंभीर विषय पर बात करने के लिए कुछ प्रमुख व्यक्तियों की बैठक बुलाये. बैठक में रह-रह कर मोबाइल की घंटियां ध्यान बंटा देती हैं.
हाल में दार्जिलिंग में जब गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने गंभीर चिंतन के लिए बैठक बुलायी तो उसने सख्त हिदायत दे दी थी कि किसी के हाथ में मोबाइल सेट नहीं होगा. ऐसी बैठकों के लिए एक अन्य उपाय भी हो सकता है. उससे ‘नो-मो-फोबिया’ से एक हद तक लोगों को बचाया जा सकता है. बैठक हाॅल में प्रवेश करने से पहले सारे लोग अपने मोबाइल सेट की बैट्री एक छोटे लिफाफे में रखकर एक जगह जमा कर दें. जाहिर है कि उन लिफाफों में उनके नाम लिखे होंगे. इससे लौटाने में सुविधा होगी.
मोबाइल सेट तो पास में रहने का संतोष होगा, पर बात नहीं कर पायेंगे. यानी यह संतोष रहेगा कि कुछ देर बाद बैट्री वापस मिलते ही बातें होने लगेंगी. शायद इससे ‘नोमोफोबिया’ से बचा जा सके! याद रहे कि नोमोफोबिया शब्द 2010 से ही चलन में है.
पीएम उम्मीदवार ममता बनर्जी : तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री की उम्मीदवार के रूप में पेश करके चुनाव लड़ेगी. पार्टी के स्थापना दिवस पर यह घोषणा की गयी. ममता बनर्जी के भतीजा व सांसद अभिषेक बनर्जी ने उम्मीद जतायी है कि नया साल अच्छे दिन लायेगा.
खबर मिल रही है कि देश के कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के कुछ नेता भी उम्मीद कर रहे हैं कि शायद उन्हें भी उसी तरह प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल सकता है जिस तरह नब्बे के दशक में एचडी देवगौड़ा को मिला था. हालांकि, बेल के पेड़ के नीचे संयोग से ही आम मिला करता है. पर ‘हम किससे कम!’ इसी तर्ज पर राजनीति चल रही है.
पर, इसमें एक दिक्कत भी है. अधिकतर क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी औकात से अधिक लोकसभा सीटों पर लड़ना चाहते हैं, ताकि अधिक सीटें जीतें. अधिक विजयी सांसद यानी उस दल के नेता के पीएम बनने के उतना ही अधिक चांस! पर, इस सिलसिले में विभिन्न दलों के बीच चुनावी तालमेल में दिक्कतें आ रही हैं. देखना है कि आने वाले दिनों में महागठबंधन व फेडरल फ्रंट इस समस्या का किस तरह समाधान करते हैं.
बांध के साथ ही घाट का भी निर्माण जरूरी : सारण जिले के दरियापुर अंचल के भरहापुर गांव के पास की नदी पर इस राज्य सरकार ने कुछ साल पहले मजबूत व ऊंचा बांध बनवाया. इसकी जरूरत भी थी. लोग खुश हुए. बांध बनने से पहले नदी के घाट पर लोग नहाते व छठ पूजा वगैरह करते थे. पहले घाट काम चला देते थे. पर अब उस काम में काफी दिक्कतें आ रही हैं. क्योंकि बांध से उतर कर नदी में जाने के लिए ढलान अब बहुत तीखा हो गया है. सरकार नदियों में घाट बनाती ही रहती है. यदि बांध निर्माण को घाट निर्माण के काम से जोड़ दिया जाये तो लोगों की खुशियां दुगुनी हो जायेंगी.
भूली-बिसरी याद : आजादी के तत्काल बाद राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर कई अच्छे कानून बनाये गये, पर उन्हें कड़ाई से लागू नहीं किया गया. पश्चिम बंगाल का बटाईदारी कानून उसका बड़ा उदाहरण है. जानकार बताते हैं कि बिहार का जमींदारी उन्मूलन कानून भी कुछ वैसा ही था. जमींदारों के फायदे के लिए उसमें कुछ छेद छोड़ दिये गये थे.
पश्चिम बंगाल का वाम मोर्चा : सरकार का ‘बरगा आॅपरेशन’ काफी चर्चित और कारगर रहा. उसका राजनीतिक लाभ वर्षों तक वाम मोर्चा को मिला. पर, वाम सरकार का बरगा अभियान कोई नया नहीं था. डाॅ विधान चन्द्र राय के कांग्रेसी मंत्रिमंडल के समय के भूराजस्व मंत्री विमल चन्द्र सिंह ने बटाईदारों को जोतदारों द्वारा अनवरत बेदखल किये जाते देख एक कानून बनाया था. विमल चन्द्र सिंह हालांकि खुद बहुत बड़े जमीन्दार थे.
उस कानून के तहत बटाईदारों के नाम दर्ज करना जरूरी कर दिया गया था. उस मंत्री ने उस समय यह भी कहा था कि जो भी बटाईदार अपना नाम दर्ज कराने आयेगा, उसका नाम दर्ज करना अनिवार्य होगा. पर, कांग्रेसी सरकार ने उस कानून पर अमल ही नहीं किया. अमल किया ज्योति बसु के नेतृत्व वाली वाम सरकार ने.
और अंत में : इस देश के कुछ खास नेताओं की मीडिया के एक हिस्से से अक्सर एक खास तरह की शिकायत रहती है. वे कभी कहते हैं कि उनके बयान को गलत ढंग से पेश किया गया. कभी कहते हैं कि मेरे बयान का गलत अर्थ लगाया गया. कभी कुछ और तो कभी कुछ और!
अरे भई नेता जी, आपके ही बयानों के साथ अक्सर ऐसा क्यों होता है? आप द्विअर्थी संवाद आखिर बोलते ही क्यों हैं? ऐसे बयान देते ही क्यों हैं जिनके दो अर्थ लग सकते हों? पर, शायद आप जानबूझकर ऐसे बयान देते हैं. आप कुछ खास संदेश भी देना चाहते हैं.
साथ ही अपने बयान के कुपरिणाम से बचना भी चाहते हैं. ऐसे में मीडिया पर दोषारोपण कर देने से बढ़िया और कोई उपाय है भी नहीं! हां, ऐसे आदतन द्विअर्थी संवाद अदायगी वाले नेताओं का मीडिया बहिष्कार करने लगे तो उनके होश ठिकाने आ जायेंगे.
