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पृथ्वी का वरदान तो श्रम है, इसकी गरिमा शाश्वत, इसके अभाव में विकास बाधित

विजय कुमार चौधरी, अध्यक्ष, बिहार विधानसभा कहा गया है कि पूर्ण आराम अलौकिक है, पृथ्वी का वरदान तो श्रम है. श्रम का महत्व आदिकाल से ही सभी सभ्यताओं ने माना है और किसी सभ्यता के विकास के लिए शारीरिक श्रम को अपरिहार्य माना गया है. श्रम का सीधा संबंध उत्पादन से होता है और उत्पादन […]

विजय कुमार चौधरी,
अध्यक्ष, बिहार विधानसभा
कहा गया है कि पूर्ण आराम अलौकिक है, पृथ्वी का वरदान तो श्रम है. श्रम का महत्व आदिकाल से ही सभी सभ्यताओं ने माना है और किसी सभ्यता के विकास के लिए शारीरिक श्रम को अपरिहार्य माना गया है. श्रम का सीधा संबंध उत्पादन से होता है और उत्पादन का संबंध प्रगति और विकास से. श्रम के अभाव में उत्पादन प्रभावित होता है और विकास बाधित. श्रम के बिना किसी आर्थिक गतिविधि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
महात्मा गांधी ने श्रम की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि नैसर्गिक कानून के तहत ईश्वर ने मनुष्य को अपने भोजन के लिए श्रम को अपरिहार्य बनाया और जो लोेग बिना श्रम किये खाते हैं, वे चोरी करते हैं. उनका मानना था कि सभी मनुष्य को कुछ-न-कुछ शारीरिक श्रम और सेवा का काम करना चाहिए, तभी वे नैतिक रूप से रोटी या भोजन के हकदार हो सकते हैं.
गांधी शुरू से टॉलस्टॉय के ‘‘ब्रेड लेबर’’ और रस्किन के ‘‘अनटू दिस लास्ट’’ से प्रभावित थे. श्रम की मर्यादा और गरिमा को उन्होंने उसी आधार पर परिभाषित किया था. उनके अनुसार तर्क के नियम भी यही बताते हैं कि जो व्यक्ति शारीरिक श्रम नहीं करता है, उसे खाने का अधिकार नहीं है. गांधीजी कहते थे कि हर व्यक्ति को भोजन या रोटी के लिए कम-से-कम एक घंटे का शारीरिक श्रम करना चाहिए और शारीरिक श्रम नहीं करके अगर वह एक मिनट भी बेकार बैठता है तो उतने देर के लिए वह समाज और पृथ्वी पर बोझ है. इसके आधार पर उन्होंने सभी को अपना काम खुद करने की सलाह दी और किसी काम को छोटा मानने से इन्कार किया. उन्होंने लोगों को यहां तक कहा कि अपना मेहतर खुद बनें.
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में श्रम की उपयोगिता से कौन नहीं वाकिफ है. खेती, पशुपालन, बागवानी, मछलीपालन में शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है. उद्योग जगत का पहिया तो बिना श्रम के घूम ही नहीं सकता है. औद्योगिक विकास में पूंजी केसाथ-साथ श्रमबल की भी उतनी ही आवश्यकता होती है. इन सबके अलावा धर्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी श्रम की महिमा अभिन्न है.
श्रम का गुणगान हर धर्म में किया गया है. गीता का संपूर्ण ज्ञान ही कर्म की प्रधानता पर आधारित है और मनुष्य के कर्म के दायरे में ही श्रम आता है. गीता के तृतीय अध्याय में कहा गया है कि बिना यज्ञ के जो खाता है, वह चुराया हुआ भोजन है.
गांधी ने यहां यज्ञ को मनुष्य के उद्यम और श्रम के रूप में परिभाषित किया है. उनके अनुसार मजदूरों की तरह कम-से-कम एक घंटा अगर सभी श्रम करें तो इससे बड़ी भगवान की सेवा नहीं हो सकती और इससे बड़ा समाज का कल्याण भी कुछ नहीं हो सकता. हालांकि शारीरिक श्रम के महत्व बताते हुए उन्होंने बौद्धिक श्रम के महत्व को कमतर नहीं आंका है. बौद्धिक श्रम एक उच्चतर कोटि का श्रम है, लेकिन यह शारीरिक श्रम की जगह नहीं ले सकता है. बौद्धिक भोजन हमारे क्षुधाग्नि को शांत नहीं कर सकता है. इसके अलावा शारीरिक श्रम बौद्धिकता का क्षति या ह्रास करने वाला नहीं होता है. व्यावहारिक रूप से सत्य यह है कि शारीरिक श्रम किसी भी मनुष्य के बौद्धिक क्षमता और गुणवत्ता दोनों को बढ़ाता ही है.
हजरत मुहम्मद साहब व्यापार करते थे, लेकिन अपना सारा काम जैसे झाड़ू लगाना, आग जलाना आदि खुद करते थे. एक बार जाबिर नामक एक लोहार से हाथ मिलाते हुए उसके हाथ का रूखापन और त्वचा की हालत देखकर उन्होंने उसका हाथ चूम लिया और फरमाया कि अल्लाह श्रम करने वाले को हमेशा ज्यादा प्यार करता है.
उनके अनुसार अल्लाह की सबसे नजदीकी दोस्ती शारीरिक श्रम करने वालों से होती है. ईसा मसीह का तो सीधा कहना था कि भगवान ने मनुष्य को एक उद्देश्य के साथ पैदा किया है और श्रम करना मनुष्य की जिंदगी के लिए भगवान द्वारा बनायी गयी योजना का अंग है. उन्होंने जोर देकर कहा कि तुम्हारे हाथ जो भी काम कर सकते हैं करो, क्योंकि अंत में जहां तुम पहुंचोगे, वहां तुम्हारे लिए न कोई काम है, न योजना, न ज्ञान, न बुद्धि. ईसाई धर्म कहता है कि मनुष्य को अपने माथे के पसीने से रोटी अर्जित करनी चाहिए.
गुरु नानक एक बार जब अपने सहयोगियों बाला और मरदाना के साथ सुदूर देहाती क्षेत्र का भ्रमण कर रहे थे तो लालो नामक बढ़ई ने उन्हें घर बुलाकर रोटी खिलायी. उसी इलाके के समृद्ध व्यक्ति मालिक भागो ने जब अपने यहां खाने का निमंत्रण दिया, तो वहां जाकर उन्होंने रोटी खाने से इन्कार कर दिया. फिर दोनों जगहों की रोटी मंगाकर उसे सभी लोगों के समक्ष दबाया और निचोड़ा. उल्लेख है कि बढ़ई की रोटी से दूध निकला और धनवान की रोटी से खून निकला. इस कहानी से सिख धर्म का उपदेश तो स्पष्ट है कि शारीरिक श्रम और ईमानदारी से अर्जित रोटी बेहतर है. सिखों में धार्मिक कथन है ‘‘दस नाहुन दी कीरत’’ यानी सभी मनुष्यों को अपने हाथों की दसों उंगलियों से अपेक्षित कर्म और श्रम करना चाहिए. श्रम के सामाजिक पक्ष की बात करें तो जन स्वास्थ्य की बेहतरी में इसका प्रभावकारी योगदान है. स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक श्रम और सक्रियता को आज पूरी दुनिया मान रही है.
प्राचीन और मध्यकाल में लोग शारीरिक रूप से अधिक सक्रिय रहते थे और अधिक स्वस्थ रहते थे. धीरे-धीरे विकास के क्रम में जब मनुष्य के उपभोग के लिए सुविधाएं सुलभ हो गयीं तो लोग शारीरिक श्रम से दूर होते चले गये.
इसका कुप्रभाव धीरे-धीरे मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा. आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि रोग चाहे किसी प्रकार का हो, चिकित्सकों द्वारा हर व्यक्ति को कुछ-न-कुछ शारीरिक व्यायाम, योग, कसरत आदि की सलाह अनिवार्य रूप से दी जाती है. गांव, शहर कहीं भी हर उम्र के लोगों को सूर्योदय के साथ ही सड़कों और पार्कों में टहलते, दौड़ते, व्यायाम करते देखा जा सकता है. हम स्वस्थ रहने के लिए सड़कों और पार्कों में पसीना बहाते हैं.
सभी धर्मों में यही कहा गया है कि
मनुष्य को माथे के पसीने यानी परिश्रम से रोटी अर्जित करनी चाहिए. जब हमने रोटी के लिए पसीना बहाना छोड़कर सिर्फ बुद्धि की कमाई खाने लगे तो नतीजतन अब स्वस्थ रहने के लिए हमें सड़कों पर और पार्कों में पसीना बहाना पड़ता है. इस तरह बहने वाले पसीने का महत्व सिर्फ सेहत के लिए होता है और उत्पादकता शून्य होती है. मेहनतकश लोगों का पसीना उनके स्वास्थ्य को ठीक रखता है और साथ ही उत्पादकता से भी जुड़ा हुआ है.
उसी उत्पादन से उनके साथ हमारा भी भोजन चलता है. हम चाहे जितना धन अर्जित कर लें, हमारे भोजन का उत्पादन तो शारीरिक श्रम से ही होगा. सोचने वाली बात यह है कि सुबह-शाम सड़कों और पार्कों में बहने वाले पसीने का फलित अगर किसी उत्पादकता से जुड़ जाये तो समाज और राष्ट्र की तरक्की का क्या स्वरूप होगा?

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