पटना शहर पिछले 40 साल में किस कदर बदला और कितने अद्भुत अनोखे लोगों को इस शहर ने अपने गोद में संवारा उसे महसूसा. इन तमाम बातों की जानकारी दे रही हैं साहित्यकार निवेदिता. पटना ओह मेरा पटना-3 रिक्शा एक मकान के सामने जाकर रुका . काले घुंघराले लंबे बाल, सफेद धोती कुर्ते में एक […]
पटना शहर पिछले 40 साल में किस कदर बदला और कितने अद्भुत अनोखे लोगों को इस शहर ने अपने गोद में संवारा उसे महसूसा. इन तमाम बातों की जानकारी दे रही हैं साहित्यकार निवेदिता.
पटना ओह मेरा पटना-3
रिक्शा एक मकान के सामने जाकर रुका . काले घुंघराले लंबे बाल, सफेद धोती कुर्ते में एक आदमी उतरा और अंदर चला गया .दरवाजे पर सूर्ख फूलों वाला पर्दा पड़ा था. अंदर दो कमरे. दूसरी तरफ बाबर्चीखाना.अमरुद के दरख्त के नीचे पानी का नल . वह आदमी सीढ़ियों से होते हुए दूसरी मंजिल पर चला गया. हम बच्चे उसी घर के नीचे खेल रहे थे. बच्चों ने कहा लतिका दीदी के घर कोई आया है. दूसरे बच्चे ने कहा तुम नहीं जानती इन्हें ! अरे ये वही हैं जिनकी किताब पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म बनी है . बच्चे हैरानी से उन्हें देखने लगे. यही हैं! ’ फणीश्वर नाथ रेणु ‘ ये बात आज से करीब 41 साल पहले की है . पटना के तारीक का एक खूबसूरत अध्याय. यह वही जगह है जहां हमने जिंदगी बेहतरीन वक़्त गुज़ारा है .
पहली बार हमने उन्हें यहीं देखा था. उनदिनों मेरे पिता राजेंद्र नगर में रहते थे. हमारे घर के ठीक बगल में लतिका जी रहती थीं . लतिका जी के बहनोई बुद्धदेव भटाचार्य मेरे पिता के दोस्त थे. वे लोग अक्सर लतिका जी से मिलने आते और फिर हमारे घर आते. रेणु जी से तो कभी कभार ही मिलना होता पर लतिका जी के घर बच्चों का अड्डा रहता . लतिका जी राजेंद्र के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के मकान के दूसरी मंजिल पर रहती थीं. किताबों से मुहब्बत मुझे बचपन से थी. जब रेणु जी के बारे में पता चला तो एक दिन मैं चुपके से उनके घर पहुंच गयी. दबे पांव चलती कमरे के खुले दरीचे के नीचे पहुंच कर अंदर झांका. कमरे में शाम की पीली धूप चमक रही थी . जिसकी आभा रेणु जी के चेहरे पर पड़ रही थी. उनके हाथों में कोई किताब थी. कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. किताबें और नटराज की प्रतिमा .
मैं चुपचाप खड़ी उन्हें निहारती रही. अचानक उनकी नज़र मुझ पर पड़ी. अरे तुम बाहर क्यों खड़ी हो. लतिका देखो कोई बच्ची आई है. ये कह कर उन्होंने मुझे अंदर बुलाया. अपनी किताब बंद कर दी. मुस्कुराते हुए मेरा नाम पूछा . मैंने शरमाते हुए कहा निवेदिता . वे हंस पड़े . अरे वाह तुम्हारा नाम बहुत सुंदर है . बाहर अमलताश की झुकी शाखाएं हलकी हवा में डोल रही थी . और मेरी आंखों के सामने हिरामन डोल रहा था .
बहुत बाद में मैंने रेणु को पढ़ा और डूबती रही . उनको पढ़ते हुए लगा कहानी उनके रेशे –रेशे में थी . जितनी बाहर थी उससे कहीं ज्यादे उनके भीतर थी. उनकी सारी कहानियां और उपन्यास के पात्र जैसे हमसब के आसपास बिखरे पड़े हैं. चाहे रसप्रिया हो या तीसरी कसम, लाल पान की बेगम हो या पंचलाइट हो रेणु हिंदी में नयी कहानी की विशेष धारा हैं. जिसमें आंचलिकता की खुशबू है. उनपर बहुत कुछ लिखा जा चुका है . मैं तो उनके बहाने उस पटना को याद कर रही हूं जिसने रेणु जैसे कथाकार को जिया है . पटना में आज भी मुझे राजेंद्र नगर का इलाका सबसे ज्यादा पसंद है .
शायद बचपन और जवानी के दिन ही ऐसे होते हैं की आप जहां रहें वो जगह गुलज़ार रहती है . मेरी यादो में पटना और पटना में राजेंद्र नगर सबसे ज्यादा बसा है . जहां पुराने शहर की झलक मिल जाती है. सड़क के दोनों किनारे पुरानी ईटों की इमारतें. जिनकी मेहराबों के नीचे बूढ़े , जवान बात करते मिल जाते हैं. नर्म धीमी धीमी तहजीब. यहां आज भी अंग्रेजी अहद की यादगार इमारतें गर्द – आलूद सड़कों के किनारे खड़ी है. वही कचरियां, वही बागात, वही डाकबंगले ,वही रेले स्टेशनों के ऊंची चाट वाले वेटिंगरूम और पुराने टूटे फर्नीचर.
अगर आपको पुराना पटना याद हो तो पटना में तांगे,बसों और साईकिल और रिक्शा सवारों के रेले गुजरते थे . तब मोटर कार से सड़कें इस कदर लहू लुहान नहीं थीं . ऊंचे दरख्त और गंगा पर बरसती हुयी चांदनी से नहाया हुआ मेरा पटना ऐसा ही था . उर्दू के शायर अदीब , हिंदी और बंगला के अफसानानिगार पटना के गलियों , चौराहों पर मज़मा लगाये मिल जाते थे. चंद मील के फासले पर पटना यूनिवर्सिटी की खूबसूरत इमारतें . किताब की दुकानें . पुरानी चीज़े पुराने दोस्तों की तरह होते हैं . जिनको देखते हुए हम उन्हें नहीं अपनी गुजरी हुई जिंदगी को देखते हैं .