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Video: कृत्रिम रोशनी से भटक रहा गोबरैला, परागण का भी बना संकट; देसी बीज की विलुप्ति व गायों की नस्ल भी असंतुलन खतरे में

Video: फसलों की हरियाली के पीछे जो छोटे-छोटे कीट काम करते हैं, वे संकट में हैं. गोबरैला अब रोशनी के जाल में भटकता है, देसी मधुमक्खियां विदेशी प्रजातियों से हार रही हैं और किसान के हाथ से बीज भी छिन गया है. हाइब्रिड बीज और वैज्ञानिक खेती ने फसलें तो दीं, पर जमीन से उसका रिश्ता तोड़ दिया. खेती अब मुनाफे की नहीं, समझ की मांग कर रही है.

Video: खेतों में फसलों की हरियाली और फलों की मिठास के पीछे कई छोटे-छोटे जीवों की अथक मेहनत होती है, जिन्हें हम अक्सर देख ही नहीं पाते. वरिष्ठ पत्रकार विवेक मिश्रा ने इन अनदेखे योद्धाओं, खासकर गोबरैला, मधुमक्खियों और देसी कीट प्रजातियों की महत्ता को धरातल से जोड़कर रेखांकित किया है. प्रभात खबर के साथ बातचीत में उन्होंने बताया कि हमारी खाद्य सुरक्षा, पोषण व्यवस्था और पारिस्थितिकी तंत्र गंभीर संकट में है. खेतों की उर्वरता घट रही है, फलों की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है और परागणकर्ता जीवों की संख्या खतरनाक ढंग से कम हो रही है.

इसके मूल में हमारी वैज्ञानिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नीतियों का असंतुलन है. जहां एक ओर मुनाफा-प्रधान कृषि मॉडल ने बीज, मिट्टी और कीटों के प्राकृतिक चक्र को तोड़ा है, वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन और प्रकाश प्रदूषण ने प्राकृतिक सहयोगियों को गुमराह कर दिया है. यह संकट केवल उत्पादन का नहीं, बल्कि संतुलित भविष्य का है.

गोबरैला: गोबर से मिट्टी तक का पुल

विवेक मिश्रा ने गोबरैला को खेतों का मौन सेवक बताया है. यह छोटा जीव खेतों में पड़े गोबर को मिट्टी में मिलाकर उसकी उर्वरता बनाए रखता है. रोचक बात यह है कि यह रात में आकाशगंगा की रोशनी से दिशा पहचानता है और गोबर को एक गोले में लपेट कर सीधी रेखा में ले जाता है. लेकिन अब प्रकाश प्रदूषण ने उसका यह स्वाभाविक मार्ग बाधित कर दिया है. शहरों और गांवों में रात का आकाश कृत्रिम रोशनी से भर गया है, जिससे गोबरैला भटकने लगा है. इससे मिट्टी में गोबर का जैविक रूप से मिलना कम हो रहा है और उपजाऊपन घट रहा है. इस छोटे से जीव का संकट, मिट्टी और कृषि का संकट बन चुका है.

परागण संकट: उत्पादन से अधिक एक पारिस्थितिक चुनौती

परागण एक ऐसा मौन काम है जिसे कीट, तितलियां, भौंरे और मधुमक्खियां बखूबी करती हैं. लेकिन जब ये जीव नहीं होंगे, तो न केवल फलों की संख्या कम होगी, बल्कि उनका स्वाद, पोषण और आकार भी प्रभावित होगा. विवेक मिश्रा के अनुसार लीची, आम और सेब जैसी नगदी फसलें हैं, जो क्रॉस पोलिनेशन पर निर्भर हैं. इन फलों में स्वपरागण से उत्पादन तो होता है, लेकिन उसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट देखी जा रही है. यही कारण है कि देशभर में परागण संकट की गंभीरता बढ़ती जा रही है, और यह केवल कृषि की नहीं, बल्कि खाद्य सुरक्षा की भी चिंता है.

विदेशी मधुमक्खियों का वर्चस्व और देसी प्रजातियों का संकट

भारत में 1970–80 के दशक में एपिस मेलिफेरा नामक विदेशी मधुमक्खी लाई गई थी. यह पालतू मधुमक्खी व्यवसायिक दृष्टि से सफल रही, लेकिन इसका प्रसार देसी मधुमक्खियों के लिए संकट बन गया. एपिस सेराना इंडिका जैसी देशी प्रजातियां धीरे-धीरे अपने प्राकृतिक आवास और भोजन से वंचित हो रही हैं, क्योंकि विदेशी मधुमक्खी अधिक प्रतिस्पर्धी है और जल्दी भोजन ग्रहण कर लेती है.

नेचर जर्नल और आइसीएआर के शोध यह स्पष्ट करते हैं कि जिन बागानों में क्रॉस पोलिनेशन नहीं हुआ, वहां फल कम बने, स्वादहीन थे और उत्पादन क्षमता भी कम रही. मुजफ्फरपुर की लीची और बिहार के आम इसका जीता-जागता उदाहरण हैं. वहीं, जब देसी मधुमक्खियों को उचित पर्यावरण मिला, तो उत्पादन और गुणवत्ता दोनों में सुधार देखा गया.

प्रकाश, कीटनाशक और कीट संकट

गोबरैला से लेकर मधुमक्खी तक सभी जैव विविधता के अहम अंग हैं. लेकिन कीटनाशकों का बेतहाशा उपयोग, रातभर जलने वाली तेज लाइट्स और शहरीकरण ने इन जीवों का घर उजाड़ दिया है. खेती में उपयोगी छोटे कीट जैसे टिड्डे, केंचुए, या रात में सक्रिय पोलिनेटर कीट प्रकाश प्रदूषण और रसायनों की मार से तेजी से खत्म हो रहे हैं. जब इन जीवों की संख्या घटती है, तो मिट्टी कमजोर होती है. वहीं, उत्पादन घटता है और पूरा पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाता है.

बीज संकट और हाइब्रिड बाजार की गिरफ्त में स्वास्थ्य

पहले किसान अपने खुद जैविक और पारंपरिक बीजों को संजोता था. लेकिन अब वह हाइब्रिड बीजों और निजी कंपनियों पर निर्भर हो गया है. ये बीज अधिक उत्पादन तो देते हैं, लेकिन इनमें न तो जलवायु सहनशीलता होती है, न पोषण. साथ ही, हर साल इन्हें खरीदना पड़ता है, जिससे किसान की आत्मनिर्भरता खत्म हो गई है. बीजों की विविधता तेजी से घट रही है और देसी बीज विलुप्ति के कगार पर हैं. साथ ही, हाइब्रिड बीजों का बाजार गर्म होता जा रहा है.

आइसीएआर ने अपने एक अध्ययन में पाया कि 1980 के बाद की फसलों में पोषण घटा है. गेहूं और चावल जैसे प्रमुख अनाजों में न्यूट्रिएंट्स की मात्रा घटकर आधे से भी कम रह गई है, जबकि कैलोरी ज्यादा है. वहीं, पिछले 50 सालों में करीब गेहूं व चावल में 45 फीसदी पोषण मात्रा कम हुई है. इसका नतीजा मोटापा, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों का प्रकोप है. भारत में वैश्विक डायबिटिक मरीजों का 17 प्रतिशत अकेले भारत में है. न्यूट्रिशन विहीन कृषि नीति ने समाज को बीमार बना दिया है. अगर समय पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आंकड़ें में और भी इजाफा होता चला जाएगा.

गायों की नस्ल और मादा-नर असंतुलन का भी खतरा

पत्रकार विवेक मिश्रा बताते हैं कि सरकार की कामधेनु योजना के अंतर्गत मादा बछड़ों को तरजीह दी जा रही है ताकि दूध उत्पादन बढ़े. इसके कारण नर बछड़ों की संख्या घट रही है, जिससे देसी नस्लों की आनुवंशिक विविधता संकट में है. गिर और साहीवाल जैसी देसी नस्लें अब मुश्किल से मिलती हैं. यह जैव विविधता के साथ खिलवाड़ है, जो दीर्घकालीन संकट को जन्म दे सकता है.

बैल और सीमांत किसानों का भविष्य

बिहार जैसे राज्य, जहां छोटे खेतों की संख्या अधिक है, वहां बैल खेती के लिए एक व्यावहारिक विकल्प हो सकता है. लेकिन हाइब्रिड गायें खेती योग्य बछड़ा जन्म नहीं देतीं. ऐसे में सीमांत किसानों के पास मशीनों का विकल्प नहीं होने से उत्पादन प्रभावित होता है. तकनीक और नस्लीय विविधता दोनों का समावेश जरूरी है. वहीं, बैल से खेतों को जोतने से पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है.

वर्षा में गिरावट और जल संकट

आइआइटी गांधीनगर के अध्ययन के अनुसार, पिछले एक दशक में गंगा के मैदानी भागों में बारिश कम हुई है. इससे सिंचाई संकट गहराया है. वहीं शहरीकरण के कारण नदियों से पानी खींचा जा रहा है, जिससे जलस्तर में गिरावट आई है. खेतों को सींचने वाले स्रोत सूख रहे हैं, और बारिश पर निर्भर खेती संकट में है.

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