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अंग्रेजी हुकूमत का झंडा उखाड़ सीताराम सिंह ने एसडीओ कोर्ट पर फहराया था तिरंगा

समाजसेवा के प्रति सच्ची श्रद्धा, भाव रखने एवं बचपन से ही क्रांतिकारी मिजाज वाले सीताराम सिंह आजादी आंदोलन के अधीतम योद्धा है.

जहानाबाद. समाजसेवा के प्रति सच्ची श्रद्धा, भाव रखने एवं बचपन से ही क्रांतिकारी मिजाज वाले सीताराम सिंह आजादी आंदोलन के अधीतम योद्धा है. जहानाबाद के सदर प्रखंड के अमैन गांव के रहने वाले स्वतंत्रता सेनानी 1942 के अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभायी थी. वह देश के स्वाधीनता संग्राम आंदोलन का हिस्सा बन ब्रिटिश हुकूमत की सुरक्षा व्यवस्था को धत्ता बताते हुए जहानाबाद एसडीओ कोर्ट पर 1942 में अंग्रेजी हुकूमत का झंडा उखाड़ तिरंगा फहराया था. इस कार्य में उनको केशव सिंह, हजारी लाल, फिदा हुसेन, रामलखन सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम पंक्ति में खड़े सक्रिय सदस्यों का सहयोग मिला था. तिरंगा फहराने के बाद वह अंग्रेजों की आंखों के किरकरी बन गये थे और खफा अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पकड़ कर आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी. तिरंगा फहराने के आरोप में अंग्रेजों ने कारावास के दौरान करेंट प्रवाहित बेत जैसे पीड़ादायक सजा भी सुनायी गयी थी. देश भक्ति का था जज्बा, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत कर अंग्रेज अफसरों की उड़ा दी थी नींद वर्ष 1942 के आंदोलन में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले क्रांतिकारियों के दल में उनका भी नाम शुमार था, आंदोलन के दौरान जहानाबाद स्टेशन पर रेलवे ट्रैक उखाड़ने, टेलीफोन की तार को तोड़ कर ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में बगावत की लहर पैदा कर अंग्रेज अफसरों की नींद उड़ा दी थी, गांव के बुजुर्ग गया प्रसाद सिंह, रामभरोसा प्रसाद सिंह सरीखे कई लोग ऐसे देश भक्त को याद कर गांव समाज गर्व की अनुभूति करते हैं. माता-पिता का एकमात्र पुत्र रहे स्वतंत्रता सेनानी अनुग्रह बाबू को अपना आदर्श मानते थे. जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए जग-ए-आजादी में कूद गये थे, उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरा था. पुत्र भूषण सिंह, विजय सिंह अपने पिता को याद करते हुए बताते हैं कि होश संभालने के पहले ही उनकी वर्ष 1957 में असामयिक निधन हो गया, लेकिन पूर्वजों से सुनी बात को याद को ताजा कर बताते हैं कि 1942 के आंदोलन में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले क्रांतिकारियों में जब भी नाम लिया जाता है, तो उनका भी नाम आता है. यह एक हमारे लिए गर्व की बात है. वर्ष 1942 से 1947 तक अंग्रेजों के जंजीरों में रहे क्रांतिकारी ने जेल में भी वह स्वाधीनता के संग्राम में लोगों को जागरूक करते रहे और निर्भिक होकर मातृभूमि की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे. शौर्य एवं पराक्रम के बल पर जिले में उन्होंने अपने साथ स्वाधीनता के संग्राम में कई लोगों को जोड़ा था. उनमें देश व समाजसेवा का भाव इस कदर था कि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा भेजे गये प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था. पुत्र बताते है कि देशभक्ति की भावना इतनी थी कि अंग्रेजी हुकूमत ने उनके पिता कैलाश प्रसाद सिंह को पुत्र को आंदोलन का हिस्सा नहीं बनने पर सशर्त रिहा करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन पिता जब पुत्र मोह में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा दिये गये प्रस्ताव को जेल में जाकर रखा, तो उन्होंने अंग्रेजों की शर्त को ठुकरा दिया व वर्ष 1947 में देश आजाद होने के छह माह पहले जेल से रिहा किये गये थे. पंचायत के मुखिया बन की समाजसेवा बताया जाता है कि देश आजाद होने के बाद भी वह स्थिर नहीं बैठे और अमैन पंचायत के मुखिया बन कर लोगों की समाज सेवा की. बताया जाता है कि देश स्वतंत्र होने के बाद जिले में उंगली पर गिने-चुने पंचायत थे. समाजसेवा के प्रति श्रद्धा, भाव एवं ईमानदारी के वजह से उन्हें लोगों ने पंचायत चुनाव में खड़ा कर मुखिया प्रतिनिधि के तौर पर निर्वाचित किया. ग्रामीण बताते हैं कि सुबह होते ही गांव-गलियों में झाड़ू लेकर साफ-सफाई के लिए निकल जाते थे और दूसरे को भी साफ-सफाई के प्रति प्रेरित करते थे. युवाओं को प्रेरित करने के लिए वह गांव गलियों में घूम-घूम कर स्लोगन दिया करते थे उठो नौजवानों सवेरा हुआ है. मुखिया के कार्यकाल के दौरान किसानों के खेत के सिंचाई के लिए बनाए गए मोरहर नदी पर बने घोसी बांध जैसे कई कृति आज भी विराजमान है जिसको बनाने में पैसे की कमी होने पर उन्होंने घर का रुपया-पैसा, गहना-जेवर बेच कर बांध में लगा दिया था जिसकी मजबूती आज भी मिसाल है.

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