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गांवों में बिना किसी डिग्री के झोलाछाप डॉक्टर कर रहे लोगों की जान से खिलवाड़

जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी चिकित्सा व्यवस्था का सारा दारोमदार बगैर किसी डिग्री के झोलाछाप डॉक्टरों पर ही निर्भर है.

जहानाबाद. जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी चिकित्सा व्यवस्था का सारा दारोमदार बगैर किसी डिग्री के झोलाछाप डॉक्टरों पर ही निर्भर है. गांव में यही लोग डॉक्टर साहब के नाम से जाने जाते हैं. यह झोलाछाप डॉक्टर छोटे-मोटे दवाई दुकान चलते हैं और वही मरीज का इलाज भी करते हैं. गांव के कुछ झोलाछाप डॉक्टरो की चलती फिरती क्लिनिक होती है. ऐसे डॉक्टर साहब एक कॉल पर अपने दवाई का बैग लिए रोगी के घर पहुंच जाते हैं. छोटी मोटी किसी बीमारी में इनका इलाज सुई से ही शुरू होता है. यह ताबड़तोड़ एक साथ मरीज को कई सुइयां दे देते हैं. इनके पास न तो कोई डिग्री होती है और न कोई ज्ञान. बस गांव के ऐसे डॉक्टर साहब पहले किसी शहर में किसी डॉक्टर के यहां कंपाउंडर का काम करते हैं और यह देख कर नोट कर लेते हैं कि डॉक्टर साहब ने किस बीमारी में मरीज को कौन सी दवा दी थी. वही यह मरीज को सूई देना और स्लाइन चढ़ाना सीख लेते हैं. इसके बाद यह स्वयंभू डॉक्टर साहब बन जाते हैं. गांव में इनकी प्रैक्टिस शुरू हो जाती है. कुछ को किसी एमबीबीएस डॉक्टर के यहां कंपाउंडर बनने की जरूरत नहीं होती. ये लोग इसी झोलाछाप डॉक्टर के यहां कुछ दिन रहकर सूई देने और लाइन चढ़ाना सीख कर नयी जगह प्रैक्टिस शुरू कर देते हैं. गांव में ग्रामीण डॉक्टर का यह वर्ग दशकों से फल-फूल रहा है. आज तक इसकी व्यवस्था पर कोई चोट नहीं कर पाया है, क्योंकि पूरे गांव की चिकित्सा व्यवस्था इन्हीं पर निर्भर है. छोटी-मोटी बीमारियों में उनकी दी हुई और बताई गई दवा से लोग ठीक भी हो जाते हैं. वहीं कई बार इन तथा कथित ग्रामीण डॉक्टर यानी झोलाछाप डॉक्टर के कारण लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है. सिकरिया थाना क्षेत्र के इस्माइलपुर गांव में गुरुवार को ऐसे ही साइकिल से गिर कर मामूली रूप से घायल हुए छह वर्षीय कुंदन कुमार की तथाकथित झोलाछाप डॉक्टर द्वारा सूई दिये जाने के बाद स्थिति बिगड़ गयी और सदर अस्पताल ले जाने के पहले ही उसकी मौत हो गयी. सदर अस्पताल के डॉक्टर ने उसे मित्र घोषित कर दिया जिसके बाद उसके पिता मिथिलेश मांझी ने गांव के उस तथाकथित डॉक्टर पर गलत सूई देने का आरोप लगाते हुए कहा कि उस गांव के डॉक्टर के द्वारा दी गई सूई के कारण ही उसके बेटे की मौत हुई है. ग्रामीण डॉक्टर नहीं जानते दवा की बायोकेमिस्ट्री : गांव के यह तथाकथित डॉक्टर किसी दवा की बायोकेमिस्ट्री के बारे में जानकारी नहीं रखते, न ही उन्हें यह मालूम होता है कि जो दवा वह मरीज को दे रहे हैं उसका साइड इफेक्ट क्या है. उन्हें यह भी मालूम नहीं कि किसी दवा का साइड इफेक्ट सामने आने पर उसके बचाव के लिए कौन सी दवा दी जाती है. इसके साथ ही ऐसे झोलाछाप ग्रामीण डॉक्टर को दवा का डोज भी पता नहीं होता. मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरों की पढ़ाई के दौरान उन्हें बताया जाता है कि कौन सी दवा मरीज पर केजी, वेट के हिसाब से कितना एमजी दिया जायेगा. यानी किसी मरीज के वजन के हिसाब से दवा का डोज होता है. बच्चों में दवा की मात्रा उम्र और वजन के हिसाब से दी जाती है. बच्चों का कद और वजन हर उम्र में अलग-अलग होता है. इसी कारण एमबीबीएस डॉक्टर को भी बच्चों का इलाज करने के लिए अलग से पेडियाट्रिक में एमडी करना होता है. जबकि झोलाछाप डॉक्टर बगैर एमबीबीएस किए ही बच्चों से लेकर बूढ़े तक हर उम्र के हरेक बीमारी का इलाज धड़ल्ले से करते हैं. ऐसे में अगर बच्चों में सही दवा का भी गलत डोज दे दी जाए तो उससे उसकी तबीयत बिगड़ सकती है और जान भी जा सकती है. इसके अलावा ग्रामीण डॉक्टर एक ही बीमारी में एक साथ उस बीमारी की कई दवा और एंटीबायोटिक की कई दवा दे देते हैं. ऐसे में दवा के रिएक्शन की संभावना बहुत ज्यादा रहती है. इसी में मरीज की जान चली जाती है. मरीज की स्थिति बिगड़ने पर फरार हो जाते हैं ऐसे डॉक्टर : गांव में मरीज के इलाज के दौरान दवा देने के बाद ऐसे किसी मरीज की स्थिति बिगड़ने पर ऐसे झोलाछाप डॉक्टर साहब फरार हो जाते हैं. इसके बाद आगे किसी सरकारी अस्पताल या बड़े डॉक्टर के यहां इलाज के दौरान वहां के डॉक्टर को यह जानकारी भी नहीं मिल पाती है कि किस दवा के रिएक्शन से इसकी तबीयत बिगड़ी है. ऐसे में बिगड़े हुए कंडीशन में उसे मरीज का सही इलाज नहीं हो पाता. इसमें भी कई मरीज की जान चली जाती है. आजादी के बाद ग्रामीण क्षेत्र में अस्पताल तो खोले गए लेकिन वहां डॉक्टरों की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की गयी. आज भी प्रखंड मुख्यालय को छोड़कर एपीएचसी, हेल्थ सेंटर और सब सेंटर में डॉक्टर नहीं मिलते हैं. ऐसे अस्पतालों में डॉक्टर साहब सप्ताह में 1 दिन हाजिरी बनाने जाते हैं. उस दिन डॉक्टर साहब से दिखलाने के लिए सरकारी अस्पताल में भारी भीड़ रहती है. भोले-भाले ग्रामीण मरीज आखिर जाए तो जाएं कहां. हर गांव में सरकारी अस्पताल नहीं है. जहां सरकारी अस्पताल है वहां डॉक्टर नहीं रहते. रात में पूरे इलाके में डॉक्टर मिलने की संभावना नगण्य है. ऐसे में किसी इमरजेंसी में गांव के लोगों को वही झोलाछाप डॉक्टर का ही एक मात्र सहारा होता है. ऐसे में वही झोलाछाप डॉक्टर कभी जान बचा देता है तो कभी जान ले लेता है. वर्तमान ग्रामीण चिकित्सकीय व्यवस्था पर काम करने की है जरूर : ग्रामीण चिकित्सा पर सरकार को भी बहुत काम करना होगा. वर्तमान चिकित्सीय व्यवस्था की लुंज पुंज स्थिति को ठीक करने की जरूरत है. सरकार के पास पूरी लिस्ट है की कौन से डॉक्टर कहां पर स्थापित हैं. वह कहां के निवासी हैं। यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है कि वह अपने निवास स्थान पर प्राइवेट क्लीनिक चला रहे हैं या पोस्टिंग वाली जगह के पास प्रखंड या जिला मुख्यालय में, या फिर उनकी क्लीनिक राज्य मुख्यालय में चलती है. बहुत सारे ऐसे डॉक्टर हैं जिनका आवास पटना अथवा गया में है. उनकी पोस्टिंग ग्रामीण क्षेत्र में है. ऐसे डॉक्टर पटना या गया क्लिनिक चला कर सप्ताह में एक दिन अपनी पोस्टिंग वाली जगह पर हाजिरी बनाने जाते हैं. उनके मोबाइल लोकेशन से भी इसकी जानकारी मिल सकती है कि ड्यूटी वाले आवर में डॉक्टर साहब सरकारी अस्पताल में ड्यूटी पर थे या अपनी क्लीनिक की ड्यूटी पर. सदर अस्पताल में ही ड्यूटी करने वाले कई डॉक्टर जिला मुख्यालय में अपनी क्लीनिक चला रहे हैं. ओपीडी की ड्यूटी के समय वह अपने प्राइवेट क्लीनिक में रहते हैं फिर भी आज तक नहीं पकड़े गये. उनका एक आदमी ड्यूटी वाली जगह पर मौजूद होता है. हंगामा होते ही वह डॉक्टर साहब को फोन कर देता है. इसके बाद वह पांच मिनट में अस्पताल पहुंच जाते हैं और कहते हैं बाथरूम गये थे. ग्रामीण क्षेत्र में ड्यूटी के बदले मिलता है प्रमोशन : रकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा देने के बदले प्रमोशन का ऑप्शन रखा है. किसी एमबीबीएस सरकारी डॉक्टर को बिना ग्रामीण क्षेत्र में ड्यूटी किए हुए प्रमोशन नहीं मिल सकता है. यहां तक कि एमडी या एमएस डॉक्टर को भी ग्रामीण क्षेत्र में ड्यूटी करनी पड़ती है. उसके बाद ही उन्हें पीएचसी सदर अस्पताल में ड्यूटी मिलती है किंतु ऐसे डॉक्टर साहब की पोस्टिंग तो ग्रामीण क्षेत्र में जरूर होती है लेकिन उनके क्लीनिक किसी बड़े शहर में होती है. डॉक्टर साहब अपने प्राइवेट क्लीनिक में मरीजों का इलाज करते हैं और सप्ताह में एक दिन हाजिरी बनाने के लिए ड्यूटी वाली जगह पर जाते हैं. सरकार आज तक इस पर रोक नहीं लगा सकी है. हाल तो यह है कि जिला मुख्यालय स्थित सदर अस्पताल तक में डॉक्टर ड्यूटी से गायब रहते हैं. जिला मुख्यालय में तमाम बड़े आइएएस पदाधिकारी के बावजूद डॉक्टरों की उपस्थिति अस्पताल में सुनिश्चित नहीं हो पाती है. जिला मुख्यालय में भी अक्सर इमरजेंसी की ड्यूटी से भी डॉक्टर गायब पाये गये हैं. ओपीडी और रात की ड्यूटी से तो डॉक्टर गायब रहते ही हैं. उनकी हाजिरी काटी जाती है सो कैसे होता है लेकिन सिविल सर्जन कार्यालय से उस दिन का वेतन भी बन जाता है. ग्रामीण क्षेत्र में तैनात अधिकांश डॉक्टर की क्लीनिक प्रखंड मुख्यालय जिला मुख्यालय या फिर राज्य के मुख्यालय में चलती है. कोई सरकारी तंत्र और पदाधिकारी इस पर रोक नहीं लगा सके हैं. क्या कहते हैं अधिकारी सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की उपस्थिति को लेकर औचक निरीक्षण किया जायेगा. ग्रामीण क्षेत्र में बगैर डिग्री वाले ऐसे क्लिनिक को चलाने वाले पर कार्रवाई होगी. राजीव रंजन सिन्हा, अनुमंडल अधिकारी, जहानाबाद

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