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बिहार: भागलपुर में आजादी की निशानियां आज भी मौजूद, बीच शहर में इन 5 जगहों के इतिहास से आप भी होंगे अंजान..

भागलपुर में आजादी के दिनों की कई यादें आज भी मौजूद हैं. ऐसा अक्सर शायद होता होगा कि आप इन जगहों को देखकर पास से गुजर जाते होंगे लेकिन उसके इतिहास से शायद अंजान होंगे. जानिए आपके शहर के बीचोंबीच स्थित इन जगहों को जिसका इतिहास आजादी के दिनों से जुड़ा है.

स्वतंत्रता दिवस 2023 को लेकर पूरा देश तैयारी में लगा है. आजादी का जश्न हर तरफ मनाया जा रहा है. वर्ष 1947 में 15 अगस्त को ही देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिली थी. भारत को आजाद कराने में बिहार के सपूतों का भी अहम योगदान रहा है. वहीं बिहार की धरती आजादी के लिए बेहद उवर्रक रही है, इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं. भागलपुर का इतिहास भी क्रांतिकारी रहा है. यहां की 5 ऐसी निशानियों को जानिए जिसे देखकर आप भी आजादी के दिनों के संघर्ष और पूर्वजों के योगदान व बलिदान को महसूस कर सकेंगे.

महात्मा गांधी ने टिल्हा कोठी से जनसभा को किया था संबोधित..

भागलपुर में आजादी की कई निशानियां आज भी मौजूद हैं. तिलकामांझी भागलपुर विश्विद्यालय क्षेत्र में टील्हा कोठी ( वर्तमान में रवींद्र भवन) उन दिनों की यादें ताजा करवाता है जब आजादी के लिए बिगुल बजा था और महात्मा गांधी भागलपुर आए. इसी टील्हा कोठी पर उन्होंने सभा की थी. असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने इसी टिल्हा कोठी से जनसभा को संबोधित किया था. उस समय भागलपुर में विदेशी कपड़ों को जलाकर होली मनाई गयी और लोगों ने खादी धारण किया था. 1917 में बिहार छात्र सम्मेलन की अध्यक्षता करने पहली बार महात्मा गांधी यहां आए थे. डॉ राजेंद्र प्रसाद और बाबू दीपनारायण सिंह भी उनके साथ मौजूद थे. 1920 में फिर महात्मा गांधी यहां आए थे और उनके साथ इस बार शौकत अली और मौलाना अबुल कलाम आजाद भी थे. अंग्रेजी हुकूमत को इसी टिल्हा कोठी से उन्होंने शैतान का शासन कहा था.

जब टिल्हा कोठी आए रविंद्र नाथ टैगोर

इतिहास के जानकार बताते हैं कि इस टिल्हा कोठी को भागलपुर के प्रथम कलेक्टर क्लीवलैंड ने बनवाया था. करीब 45 फीट ऊंचे टीले पर यह बना है. ऐसा कहा जाता है कि यहां उन दिनों रवींद्र नाथ टैगोर भी आए और इसी टिल्हा कोठी में प्रवास के दौरान गीतांजली के कुछ अंश लिखे थे. आज इस टिल्हा कोठी को रवींद्र भवन नाम दिया गया है.

सैंडिस कंपाउंड में सैंकड़ो साल पुराना बरगद का पेड़ क्यों है खास?

भागलपुर के तिलकामांझी क्षेत्र में सैंडिस कंपाउंड शहर का सबसे बड़ा मैदान है. यहां आज स्टेडियम भी हैं. स्मार्ट सिटी योजना के तहत अब यहां कई सुविधाएं मुहैया करा दी गयी हैं. लेकिन क्या आप इस मैदान का इतिहास जानते हैं? क्या आपने इस मैदान में एक कोने में स्थित उस विशाल बरगद के पेड़ को देखा है? दरअसल सैंडिस कंपाउंड के मेन गेट(पुलिस लाइन की ओर) से अंदर प्रवेश करते ही मैदान के बाहरी भाग में बिल्कुल बाईं ओर एक विशाल बरगद का पेड़ है जो सैंकड़ों साल पुराना है.

सैंडिस कंपाउंड के बरगद के पेड़ के नीचे लगती थी अदालत..

तिलकामांझी भागलपुर विश्चविद्यालय के प्रोफेसर व इतिहास के जानकार सुनील सिंह बताते हैं कि बरगद के इस पेड़ का अवशेष में ही इस सैंडिस कंपाउंड का इतिहास छिपा है. वर्ष 1857 से 1860 मे एक मि. आई सैंडिस नाम के जिला जज हुए. ये यहां के प्रथम जिला जज रहे. उन्हें इस बरगद के पेड़ से बेहद लगाव था. वो अक्सर इसके नीचे कोर्ट लगा दिया करते थे. कभी कभार इस पेड़ पर बैठकर भी वह बहस सुना करते थे.वो बताते हैं कि जिला जज सैंडिस की याद में ही इस मैदान का नाम सैंडिस कम्पाउंड पड़ा.सुनील सिंह कहते हैं कि यदि यह अपने पुराने जलवे में रहता तो कोलकता के अलीपुर जू स्थित बरगद के टक्कर का होता, हम यदि इसके अवशेष को भी बचा लें तो एक धरोहर की रक्षा होगी.

तिलकामांझी चौक का इतिहास

तिलकामांझी चौक का नाम तो आपने सुना ही होगा. अब इस चौक का आप इतिहास भी जान लिजिए जो शहीद तिलका मांझी से जुड़ा है. ये कहा जाता है कि अंग्रेजों को अपना लोहा मनवाने वाले और गोरों के नाक में दम कर देने वाले बाबा तिलका मांझी ने भागलपुर के तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर क्लीवलैंड को अपने हमले से जख्मी कर दिया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी. क्लीवलैंड की उम्र 30 वर्ष से भी तब कम थी, ऐसा कहा जाता है. बाद में अंग्रेजों से आमने-सामने होने पर तिलकामांझी को गिरफ्तार कर लिया गया था और कहा जाता है कि इसी जगह पर एक बरगद के पेड़ पर उन्हें लटकाकर फांसी दे दी गयी थी. यह शहादत स्थल आज तिलकामांझी चौक कहा जाता है और तीर कमान थामे यहां पर तिलकामांझी की आदमकद प्रतिमा है.

क्लीवलैंड मेमोरियल को जानिए..

तिलकामांझी चौक पर ही भागलपुर के कलेक्टर रहे क्लीवलैंड का भी स्मारक है. क्लीवलैंड मेमोरियल में पार्क भी है जहां बच्चों के झूले भी हैं. क्लीवलैंड मेमोरियल परिसर की देखरेख आज भी विशेष तौर पर की जाती है. क्लीवलैंड को तिलकामांझी ने मौत के घाट उतारा था. इसी स्मारक से थोड़ी दूरी पर तिलकाामांझी की प्रतिमा भी है. जहां पर बरगद के पेड़ पर तिलकामांझी को फांसी दी गयी थी.

जुब्बा सहनी को भागलपुर के सेंट्रल जेल में दी गयी फांसी

भागलपुर का सेंट्रल जेल, आपने इसके बारे में सुना भी हो और इसे शायद बाहर से देखा भी होगा. पर क्या इस सेंट्रल जेल का पूरा नाम आप जानते हैं. भागलपुर के सेंट्रल जेल का नाम है शहीद जुब्बा सहनी. जिनका जन्म तो मुजफ्फरपुर के मीनापुर के चैनपुर में हुआ लेकिन थानेदार को जला कर वो भागलपुर के इसी सेंट्रल जेल में फांसी पर झूले थे. जुब्बा सहनी और उनके साथियों ने 16 अगस्त, 1942 को मीनापुर थाना के थानेदार लुई वालर को थाना में ही जिंदा जला दिया और वहां यूनियन जैक को उतार कर तिरंगा फहराया था. इस घटना की सारी जिम्मेवारी जुब्बा सहनी ने अपने ऊपर ले ली.

शहीद जुब्बा सहनी क्यों पड़ा जेल का नाम?

गिरफ्तारी के बाद जब जुब्बा सहनी से पूछा गया कि अंग्रेज थानेदार को जलाने में कौन-कौन साथ था, उन्होंने अपने 54 साथियों को बचाते हुये कहा कि वे अकेले ही थाने में जाकर थानेदार को जलाया. उन्होंने न्यायाधीश को कहा कि मुझे फांसी की सजा सुनाये. थानेदार को जलाने पर जज ने फांसी की सजा सुनायी और 11 मार्च, 1944 को भागलपुर जेल में फांसी दी गयी. उनकी शहादत पर गर्व करते हुए इस सेंट्रल जेल का नाम शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा भागलपुर रखा गया है.

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