थावे. बिहार के प्रमुख शक्तिपीठ थावे में एक माह तक चलने वाला पारंपरिक व ऐतिहासिक मेला आधुनिकता के चकाचौंध में गुम हो गया है. थावे मेले की रौनक भी छिन गयी है. नवरात्र में मां सिंहासनी के दर्शन के लिए आने वाले पर्यटकों तक ही भीड़ हो रही. मेला भी अब इतिहास बन गया है. थावे का ऐतिहासिक मेला, जो कभी बिहार के गोपालगंज जिले में थावे दुर्गा मंदिर के आसपास आयोजित होता था, आधुनिकता और विकास के कारण धीरे-धीरे कम हो गया है, अब यह ले कि आधुनिकता और विकास के कारण, मेले का स्वरूप बदल गया है और यह पहले की तरह भव्य नहीं रहा है. मेला पहले जैसा नहीं रहा, अब थावे में ना तो थियेटर आती है ना ही मौत का कुआं, अब ना तो सिलौट, लोढ़ा, मसाला, फर्नीचर का दुकानें भी नहीं लगतीं. दो दशक पहले तक यहां का मेला ऐतिहासिक हुआ करता था. भरपूर मनोरंजन के लिए एक माह के लिए नामी-गिरामी थियेटर लगते थे. मौत का कुआं, झूला आकर्षण का केंद्र बनता था, तो शादी-विवाह के लिए लकड़ी के फर्नीचर से लेकर तोसक, तकिया, मसाला तक की खरीदारी करने लोग यहां आते थे. कई जिलों के कारोबारी मेला आते थे. लोग सालभर का जरूरी सामान भी खरीदकर स्टॉक कर लेते थे. वयोवृद्ध पत्रकार नागेंद्र श्रीवास्तव ने बताया कि 1990 तक दूर- दूर से लोग बैलगाड़ी से आकर मेले से खरीदारी करते थे. अब किसी के पास वक्त कहां है कि मेले में खरीदारी करें. मां सिंहासनी के कारण थावे मंदिर और उससे जुड़ी सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवित है.
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