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वैश्विक नैतिकता व स्थिर भविष्य पर नालंदा में हुआ मंथन

नालंदा विश्वविद्यालय में शुक्रवार को “धर्म और वैश्विक नैतिकता: भारतीय शास्त्र-परंपरा के आलोक में” विषयक एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया.

प्रतिनिधि, राजगीर. नालंदा विश्वविद्यालय में शुक्रवार को “धर्म और वैश्विक नैतिकता: भारतीय शास्त्र-परंपरा के आलोक में” विषयक एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस सम्मेलन में भारत सहित रूस, बेलारूस, मलेशिया, नेपाल, थाईलैंड, कज़ाकिस्तान, चीन, इथियोपिया, हंगरी और फिजी समेत अनेक देशों के प्रतिष्ठित विद्वान, नीति-निर्माता, धार्मिक साधक और शोधकर्ता शामिल हुए. सम्मेलन का उद्देश्य धर्म, सभ्यतागत अनुभवों, वैश्विक नैतिकता, स्थिरता और समकालीन नैतिक चुनौतियों पर गहन विमर्श प्रस्तुत करना था. भारतीय शास्त्रीय परंपरा, जिन्हें कभी अध्ययन की परिधि में देखा जाता था, अब शैक्षणिक विमर्श और वैश्विक नैतिक संवाद के केंद्र में अपनी महत्ता स्थापित कर रही हैं. नालंदा विश्वविद्यालय ने इस सम्मेलन के माध्यम से प्राचीन भारतीय ज्ञान की समकालीन उपयोगिता को रेखांकित करते हुए इसे आधुनिक समस्याओं के समाधान से जोड़ने का प्रयास किया है. कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर की गई। इसके पश्चात विश्वविद्यालय के छात्रों ने भागवद्गीता के ध्यान-श्लोकों का सामूहिक पाठ कर ‘ज्ञान और प्रकाश’ के संदेश को उद्घोषित किया। इस अवसर पर एसबीएसपीसीआर स्कूल के डीन एवं सम्मेलन संयोजक प्रो. गोदावरिश मिश्रा ने अतिथियों का स्वागत करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा की कालातीत प्रासंगिकता और वैश्विक चिंतन में इसके योगदान पर प्रकाश डाला. सम्मेलन के मुख्य वक्ता, शिक्षा मंत्रालय के भारतीय ज्ञान प्रणाली प्रभाग के राष्ट्रीय समन्वयक प्रो. गंटी एस. मूर्ति ने भारतीय शास्त्र-परंपरा और आधुनिक ज्ञान-प्रणाली के बीच गहरे संबंध को समझाया. उन्होंने कहा कि भारतीय बौद्धिक परंपराएँ एक समन्वित और सुसंगत दृष्टिकोण प्रदान करती हैं, जो वैज्ञानिक अन्वेषण तथा नैतिक नेतृत्व दोनों के लिए प्रेरक शक्ति बन सकती हैं. थाईलैंड के विख्यात संस्कृत विद्वान पद्मश्री प्रो. चिरापत प्रपांद्विद्या ने संस्कृत व पाली ग्रंथों में निहित एशियाई सभ्यताओं की साझा सांस्कृतिक विरासत पर चर्चा करते हुए कहा कि शास्त्रीय ग्रंथ धर्म को एक सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करते हैं. विदेश मंत्रालय की संयुक्त सचिव अंजु रंजन ने अंतर-सांस्कृतिक संवाद, वैश्विक परस्परता और सभ्यतागत सहयोग की अनिवार्यता पर जोर दिया. नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सचिन चतुर्वेदी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में करुणा, पारस्परिकता, शांति और नैतिक संयम जैसी मूल्यों की पुनर्स्थापना को समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता बताया. उन्होंने कहा कि वैश्विक अस्थिरता और बढ़ते तनाव के बीच यह अनिवार्य है कि हम एक ऐसे वैश्विक समुदाय का निर्माण करें जो करुणा, अहिंसा और मानव कल्याण के सिद्धांतों पर आधारित हो. सम्मेलन में कुल चार प्लेनरी सत्र आयोजित किए गए, जिनमें धर्म और संस्कृति, धर्म और दर्शन, धर्म और अर्थ, तथा धर्म और पर्यावरण जैसे विषयों पर गहन चर्चा की गई. ‘लोकसंग्रह और समकालीन विश्व’ विषय पर आयोजित सार्वजनिक सत्र में नैतिक नेतृत्व और वैश्विक उत्तरदायित्व पर प्रस्तुत विचार विशेष रूप से सराहे गए. विभिन्न देशों से आए विशेषज्ञों ने इस बात पर सहमति जताई कि भारतीय दार्शनिक परंपराएँ—विशेषकर उपनिषद, गीता, बौद्ध और जैन दर्शन आधुनिक वैश्विक चुनौतियों का व्यवहारिक समाधान प्रस्तुत कर सकती हैं और एक संतुलित, करुणामय तथा उत्तरदायी विश्व व्यवस्था की दिशा में मार्गदर्शन करती हैं. समापन सत्र में नालंदा विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में राष्ट्रगीत प्रस्तुत किया गया. सम्मेलन ने न केवल भारतीय ज्ञान-परंपरा को वैश्विक मंच पर सुदृढ़ किया, बल्कि भावी सहयोग और संयुक्त शोध के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क भी तैयार किया. इस प्रकार नालंदा विश्वविद्यालय में आयोजित यह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन वैश्विक नैतिकता, स्थिरता और सभ्यतागत संवाद के मार्ग को और अधिक मजबूत करते हुए सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ.

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