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यादें : ”मेरा शाप है कि आप VC हो जाएं” और भागलपुर विश्वविद्यालय के छठे कुलपति बन गये रामधारी सिंह दिनकर

रामधारी सिंह दिनकर भागलपुर विश्वविद्यालय के छठे कुलपति थे. वे यहां साल 1964 से 1965 तक कुल 16 महीनों तक कुलपति रहे.

रामधारी सिंह दिनकर भागलपुर विश्वविद्यालय के छठे कुलपति थे. वे यहां साल 1964 से 1965 तक कुल 16 महीनों तक कुलपति रहे. यहां आने के पूर्व वे राज्यसभा सदस्य के रूप में दिल्ली में निवास कर रहे थे. इसी दौरान मधुमेह और उच्च रक्तचाप नामक दो बीमारियों के शिकार हो चुके थे. उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर ही तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्णवल्लभ सहाय ने उन्हें बिहार लोकसेवा आयोग का सदस्य बनाना चाहा था. किंतु उसे उन्होंने अस्वीकृत कर दिया. उसके बाद मजाक में मुख्यमंत्री ने उन्हें यह कह कर भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया कि ”अब मेरा शाप है कि आप वाइस चांसलर हो जाएं”.

भागलपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट् की दी थी मानद उपाधि

उन दिनों भागलपुर विश्वविद्यालय अपेक्षाकृत शांत और संयत समझा जाता था. दूसरी बात यह थी कि यह दिनकर जी का अपन गृह विश्वविद्यालय था. इसने उन्हें मानद डी. लिट् देकर सम्मानित किया था. इसलिए उन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपतित्व सहर्ष स्वीकार कर लिया था. किंतु थोड़े ही दिनों में उन्हें कटू यथार्थ का सामना करना पड़ा. उन्हें कई समस्याओं से दो चार होना पड़ा. पहली समस्या परीक्षा में कदाचार की थी. कुछ बदमाश लड़के छुरा दिखा कर, वीक्षकों को डरा-धमकाकर नकल करना चाहते थे. कहीं-कहीं लाउडस्पीकर से प्रश्नों के उत्तर लिखाये जाते थे. केंद्र पर्यवेक्षकों को भगा दिया जाता था. कुलपति के रूप में दिनकर ने परीक्षा रद्द कर दी थी या परीक्षा केंद्र बदल दिया था. इसका विरोध विधायक ने कर दिया था. यह घटना उन्हें अप्रीतिकर लगी.

सिंडिकेट की निरर्थक बहस सुन कर बाहर टहलने लगते थे दिनकर 

दूसरा प्रसंग गांव वालों और छात्रों के बीच मारपीट का था, जिसे दो शिक्षकों ने मौके पर पहुंचकर सुलझा दिया था. तीसरा प्रसंग सिंडिकेट में निरर्थक बहस का था. डॉ जाकिर हुसैन के नक्शेकदम पर चलते हुए दिनकर ने सिद्धांत बनाया था कि कोई भी निर्णय सर्वसम्मति से हो, पर ऐसा हो नहीं सका. वे नीरस बहस सुनते-सुनते बाहर निकलकर टहलने लगते. यद्यपि सिंडिकेट के सारे सदस्यों से उनके संबंध सौहार्दपूर्ण थे. अंततः सिंडिकेट के निर्णय को वे मान लेते थे.

स्वास्थ्य खराब होने पर महामहिम को भेजा त्यागपत्र

कुलपति के पद पर रहते हुए दिनकर ने महसूस किया कि शिक्षा का स्तर गिर रहा है. 1947 के समय में कुल विश्वविद्यालय 18 थे. इस समय 80 हैं. कई कॉलेज बिना किसी तैयारी के खोल दिये गये थे. राष्ट्रीय आय का मात्र 3 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो रहा था. 1986 तक छह फीसदी करने का प्रस्ताव था, जो अब तक अमल में नहीं लाया जा सका. इस दौरान उनकी पढ़ाई-लिखाई, यहां तक कि चिट्ठी-पत्री तक लगभग छूट गयी थी. आखिरकार उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ. बाध्य होकर उन्होंने महामहिम को अपना त्यागपत्र भेज दिया, जो कुछ माह बाद स्वीकृत हुआ.

‘नेहरूवियन स्टडी सेंटर’ खोलने का सपना रह गया अधूरा

कुलपति के रूप में दिनकर की उपलब्धियां गिनाने योग्य नहीं हैं. वे यहां नेहरूवियन स्टडी सेंटर खोलना चाहते थे, जो पूरा ना हो सका. गांधी विचार विभाग के मूल में उनकी संकल्पना थी. वे यहां अक्सर अपनी शामें स्टूडियो चित्रशाला में कविताएं सुनाते और सुनते हुए बिताते थे. श्रोताओं में बनफूल दंपती डॉ बेचन और हरिकुंज हुआ करते थे. उन्हीं दिनों उनकी पुस्तक ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ छप कर आ चुकी थी. वे इसकी पंक्तियां सुनाया करते थे.

प्रो. बहादुर मिश्रा

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