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जीवन हारना नहीं, हमने जीतना सीखा है : नदी में समायी बस्तियां, नहीं मानी हार, बसाये गांव तो खिलखिला पड़ी जिंदगी

संजीव/गौतम @ भागलपुर महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फसल बर्बाद होने से किसानों ने आत्महत्या कर ली. अपने बच्चों को गिरवी रख दिया. लेकिन ऐसे दारुण समय में भागलपुर के किसानों की जीवटता देश भर में अनूठा उदाहरण पेश करते हुए डर […]

संजीव/गौतम @ भागलपुर

महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फसल बर्बाद होने से किसानों ने आत्महत्या कर ली. अपने बच्चों को गिरवी रख दिया. लेकिन ऐसे दारुण समय में भागलपुर के किसानों की जीवटता देश भर में अनूठा उदाहरण पेश करते हुए डर के आगे जीत है का मिसाल पेश करती है. किसानी छूट गयी, पर नये कौशल सीख रोजगार पैदा कर दिये. अपने जुदा हो गये, रिश्तेदार दूर हो गये, मचान पर बैठकी के शागिर्द हमेशा के लिए कहीं और चले गये, पर नये लोग और नये रिश्ते के साथ फिर से जिंदगी में नयी ऊर्जा भर ली. कभी कई एकड़ खेत के मालिक थे और अब भले ही कटनी, बंधनी, भौली व मजदूरी ही क्यों न करना पड़े, पर जिंदगी से हार नहीं मानी.

दर्द : सरकारी जमीन पर रहते हैं हुजूर

खरीक प्रखंड के भवनपुरा गांव का आधा हिस्सा 2003 में कटकर कोसी में बह चुका था. इसमें 274 घर कोसी में विलीन हो गये. खेत कटने के बाद पांच हजार लोग विस्थापित होकर खरीक स्टेशन के बाहर झोपड़ी डालकर रह रहे हैं. इसका नाम भवनपुरा नया टोला रखा गया है. खेती करनेवाले मजदूर हो गये और नाविक बन गये हलवाई. जिंदगी तो इस गांव के लोगाें ने बसा ली, पर सरकारी जमीन पर बसे होने के कारण आज भी उनका वोटर लिस्ट पुराने गांव का ही है. इसी कारण पंचायत सरकार से कोई सुविधा नहीं मिलती.

गर्व : सेना में भर्ती हो कर रहे देश सेवा

नाथनगर के शंकरपुर चवनियां में कटाव के बाद तकरीबन 200 घर के लोग नगर निगम क्षेत्र के सच्चिदानंदनगर में आकर बस गये. कई आंदोलन के बाद सरकार से बसने को जमीन मिली. आज भी इस गांव का स्वरूप किसी अविकसित गांव की तरह है. बावजूद इसके जीवन के इसी संघर्ष के बीच अमित कुमार, योगेंद्र किशोर, नवलकिशोर, सुनील कुमार, दिलीप कुमार समेत एक दर्जन युवा सेना के विभिन्न विंग में कार्यरत हैं. कई युवा अलग-अलग सरकारी सेवा में हैं.

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हारना नहीं, जीतना सीखा : जगह बदली, गांव बदले, लेकिन आज भी गलियों में महसूस होती है पीड़ा

नये गांव नये अनुभव

पहले अपने खेत से तोड़ लाते थे बत्थू और चने की साग,

अब एक मुट्ठी का देना पड़ता है 10 रुपये,

डर का साया पहले बेखौफ घूमते थे बच्चे,

नहीं था ट्रेन के अचानक गुजर जाने का अनुभव,

अब जा रही जानें,

तूफां से ही तो लड़ने कोखुदा ने तुम्हें गढ़ा है…

नदी संस्कृति की एक विडंबना है कि वह स्थिर नहीं रहती. शायद इसी कारण इस संस्कृति में जीवटता का वास है. भागलपुर इसी प्राचीन संस्कृति का संवाहक रहा है. यहां गंगा है, गीत है, खेती-किसानी है और इसी में पलती है लाखों जिंदगी. गंगा मोक्ष देती है, लेकिन वह जीना सिखाती है. यह गंगा कछार की संस्कृति है. गंगा के कटाव और बाढ़ में हजारों एकड़ जमीन गंगा की गोद में समा जाने के बाद भी यहां के किसानों को अथक परिश्रम करने की सीख गंगा ने ही दी है. वे स्मृति को जीते हैं, उससे हताश नहीं होते. सब कुछ छिन जाने के बाद भी नयी दुनिया बसा लेते हैं, क्योंकि दुनिया तो रोज बनती है…

पुश्तैनी गांव रहा नहीं, फिर भी अपनी संस्कृति, अपने देस का मोह नहीं छूटा और नये गांव बसा लिये, नयी जगह पर नये तरीके से जीना सीख लिया. हर साल आनेवाली बाढ़ और हर पांच साल पर होनेवाले भीषण कटाव की पीड़ा किसान झेलते हैं, पर इसके बाद जीने की लालसा नये सपने गढ़ने को प्रेरित करने लगती है. वे मेहनत के बल पर कई ऐसे अवसर पैदा कर लेते हैं, जो उन्हें कभी रुकने नहीं देता. बाप-दादा को इस संघर्ष से सामना करते देखते आयी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपदाओं से लड़ना सीखती रहती है. यहां के किसानों ने कभी ठहरना नहीं सीखा.पेश है ऐसे ही किसानों और बस्तियों की कहानी…

‘ये मत कहो खुदा से मेरी मुश्किलें बड़ी हैं,

इन मुश्किलों से कह दो मेरा खुदा बड़ा है

आती हैं आंधियां तो कर उनका खैरमकदम

तूफां से ही तो लड़ने खुदा ने तुम्हें गढ़ा है.’

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यह है ‘पटरी टोला’

ये गोढ़ी टोला या यादव टोला नहीं, यह है ‘पटरी टोला’. गांव उजड़ गया, लेकिन गांव की स्मृति नहीं मिटी और गांव के नाम के आगे टोला लगा कर रेलवे पटरी के किनारे बस गये. हम बात कर रहे हैं भवनपुरा गांव के विस्थापितों की. खरीक प्रखंड के भवनपुरा गांव का आधा हिस्सा 2003 में कटकर कोसी में बह चुका है. कोसी नदी के दियारे पर स्थित भवनपुरा गांव के यादवटोला व गोढ़ी टोला के 274 घर कोसी में विलीन हो गये. कटाव पीड़ित दोनों टोले के 200 एकड़ जमीन में अब महज 25 एकड़ शेष रह गये हैं. खेत कटने के बाद पांच हजार लोग विस्थापित होकर मुश्किल भरी जिंदगी बिता रहे हैं. सभी विस्थापित इस समय खरीक रेलवे स्टेशन के बाहर घास-फूस की झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं. जिस जगह पर विस्थापित रह रहे हैं, इसका नाम भवनपुरा नयाटोला रखा गया है. सभी ग्रामीण कटाव के बाद गांव से 4.5 किलोमीटर दूर खरीक रेलवे स्टेशन के सामने बस गये. शरणार्थी जैसी जिंदगी बिता रहे ग्रामीणों का दर्द जानने प्रभात खबर टोली खरीक स्टेशन के सामने नयाटोला पहुंची. पता चला कि कटाव का दंश झेलने वाले ग्रामीणों के पास रहने को घर व खेतीबारी करने को जमीन भी नहीं बची. 2003 के अगस्त माह में कोसी नदी में भीषण बाढ़ आयी थी. नदी की तेज धार में घर-खेत व सामान सब बह गये. आशियाना बहने के बाद तीन हजार की आबादी अपनी जान बचाकर भागी. कटाव की रफ्तार इतनी तेज थी कि लोग अपना सामान भी नहीं समेट पाये. लोग नाव के सहारे किसी तरह अपना बिस्तर लेकर बाल-बच्चों को साथ जान बचाने को निकल पड़े. नदी के बीच स्थित दियारे पर अभी भी भवनपुरा गांव के आधे हिस्से में 400 से अधिक घर बसे हैं.

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आठ साल तक दरवाजे पर बहती रही कोसी

विस्थापितों ने बताया कि कटाव का सिलसिला 1995 से शुरू हो गया. कोसी का दबाव उत्तर दिशा की ओर बढ़ने से गांव की जमीन धीरे-धीरे कटने लगी. करीब आठ साल तक लोगों के दरवाजे के बाहर कोसी नदी बहती रही. हर बरसात में हमें इसी बात का भय सताता कि इस बार नहीं बचेंगे. अाखिरकार वर्षों भय में जीने वाले ग्रामीणों पर प्रलय का पहाड़ 2003 के अगस्त माह में टूट ही पड़ा.

जिस जगह खेत व घर कटे, वहां दबंग मार रहे मछली

ग्रामीणों ने बताया कि भवनपुरा के जिस जगह पर हमारा खेत व घर हुआ करता था. आज वहां कोसी नदी की तेज धार बह रही है. इस धारा में हर साल दबंग लाखों रुपये की मछली छांक रहे हैं. विस्थापितों को डरा धमका कर दूर रखा जाता है. टूटे मरे विस्थापित भी इनके धौंस के सामने पस्त हैं.

महादलित टोले में बिजली का कनेक्शन नहीं

नयाटोला के पश्चिमी हिस्से में 15 घर महादलितों के हैं. गांव के अन्य घरों में बिजली कंपनी ने अस्थाई कनेक्शन दिया है. लेकिन महादलितों को बिजली कनेक्शन से मरहूम कर दिया गया. महादलित बद्री राम ने बताया कि लाइट नहीं रहने से बच्चे लालटेन व ढिबरी में पढ़ते हैं. टीवी व मोबाइल तो दूर की बात है.

पहले नाव चलाते थे, अब बेचते हैं मिठाई

खरीक स्टेशन के सामने मिठाई की दुकान चला रहे बिलास मंडल ने बताया कि परिस्थिति हर काम सिखा देती है. कभी सोचा नहीं था कि बच्चों को पालने पोसने के लिए मिठाई बेचनी पड़ेगी. बिलास मंडल ने बताया कि कोसी पार भवनपुरा जाने के दौरान वह लोगों को नाव से टपाते थे. अपना घर द्वार था तो थोड़े में गुजर बसर हो रही थी. गांव कटने के बाद इधर उधर भटकने के बाद सोचा नाश्ते की दुकान खोल लिया जाये. कर्ज लेकर दुकान खोली.

पैसे वाले बस गये, गरीब भटक रहे हैं

विस्थापित बाबूलाल मंडल ने बताया कि यहां पर 274 परिवार आकर बसे थे. इसकी संख्या बढ़कर 400 हो गयी है. सीमित संसाधन और जनसंख्या बढ़ने से जगह कम पड़ रहा है. बारिश के दिनों में पूरे नयाटोला में जलजमाव हो जाता है. दो महीने तक लोगों का जीना दूभर हो जाता है. ऐसी मुश्किल परिस्थिति से बचने के लिए पैसे वालों ने रास्ता निकाल लिया. अमीर लोग इधर उधर जमीन लेकर बस गये. गरीब अबतक भटक रहे हैं.

ट्रेन से सात ग्रामीण कटे मवेशियों की गिनती नहीं

भवनपुरा के विस्थापित अभी खरीक रेलवे स्टेशन की जमीन पर रह रहेे हैं. ग्रामीणों के घर में शौचालय नहीं है. घर के सभी बूढ़े, बच्चे व महिलाएं रेलवे ट्रैक पार कर शौच करने खेतों में जाते हैं. 2004 से अबतक भवनपुरा नया टोला के सात लोग ट्रेन की चपेट में आ चुके हैं. इनमें परमानंद यादव की पत्नी मीरा देवी ट्रेन से कट गयी. वहीं ग्रामीण संजय शर्मा की छह साल की बेटी, गरीब मंडल की पत्नी व अन्य लोग हैं. तीन माह पूर्व नयाटोला की महिला इंजुला देवी भी ट्रेन की चपेट में आ चुकी हैं. ग्रामीणों का कहना है हर सप्ताह एक दो मवेशी भी ट्रेन से कट रहे हैं. बकरी, गाय, भैंस समेत कई मवेशी की जान ट्रेन से जा चुकी है.

गांव कटने के बाद बिछड़ गये भाई-भाई

विस्थापित विष्णुदेव साह व रत्नेश यादव ने बताया कि जब हमारा गांव नहीं कटा था. तब सभी बंधु बांधव साथ रहते थे. साथ त्योहार व शोक मनाते थे. विस्थापन के बाद कभी एक आंगन में खेलने वाले भाई-भाई बिछड़ गये हैं. रेलवे स्टेशन के सामने जहां पर जगह मिला वहां अपना आशियाना बनाते चले गये. परिस्थिति ऐसी थी कि सब रो रहे थे. कौन किसके आंसू पोछे.

गंगा ने दिया दर्द, लिख डाली कई किताबें

शंकरपुर चवनियां के रहनेवाले हैं 74 वर्षीय रामकिशोर. दियारा विकास समिति से लेकर गंगा मुक्ति आंदोलन तक के सीनियर लीडर आज भी हैं. अपने जीवनकाल में अब तक छह बार गंगा का कटाव देख चुके हैं और झेल भी चुके हैं. इसी दर्द से इनकी कलम छह किताबों की रचना कर गयी. इनमें बबूल के फूल, गंगा की कोख, गंगा कछार, कछार का सच, आंदोलन की कहानियां शामिल हैं. ये सारी किताबें गंगा किनारे रहनेवाले किसानों की पीड़ा बयां करती हैं. इसके बाद भी राम किशोर कहते हैं कि दर्द की इंतहा है, जो आज भी कई किताबें वे लिख चुके हैं, जो प्रकाशन के लिए तैयार की जा रही है.

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चार किमी दूर आंगनबाड़ी व हाईस्कूल

विस्थापित रत्नेश यादव ने बताया कि जहां अभी हम रह रहे हैं. वहां से हॉस्पीटल चार किलोमीटर दूर पड़ता है. विस्थापित टोले में आंगनबाड़ी केंद्र भी नहीं है. यहां के बच्चों से कहा जाता है कि छह किलोमीटर दूर स्थित आंगनबाड़ी केंद्र जाएं. पोषाहार व अन्य योजना की गड़बड़ी चल रही है. बच्चों का निवाले से सीडीपीओ अपना पेट भर रहे हैं. बता दें कि रेलवे परिसर में कक्षा पांच तक प्राथमिक विद्यालय चल रहा है. विस्थापितों के बच्चे यहां पर पढ़ते लिखते है. मध्याह्न भोजन खाकर किसी तरह बच्चों का गुजर बसर हो रहा है. ग्रामीणों के पास आधार कार्ड, वोटर कार्ड भी हैं.

त्योहार मनाने को चंदा कर बनाया मंदिर

ग्रामीणों ने बताया कि पर्व-त्योहार पर हमें अपना गांव खूब याद आता है. पुरानी बातों को यादकर हम एक दूसरे का दर्द कम करते हैं. त्योहार ठीक से मने इसलिए हमने चंदा कर विस्थापित नया टोला में मां दुर्गा का मंदिर बनाया है. गांव के लोग यहां रोज प्रार्थना करते हैं. किसी तरह कोसी नदी में डूबी जमीन वापस आ जाये तो बच्चों को कम तकलीफ हो.आज भी जारी है संघर्षकई घरों के लोग आज भी पेट के लिये संघर्ष कर रहे हैं. पेट काट कर अपने बच्चों की शिक्षा, परिवार का स्वास्थ्य और घर बनाने के खर्चे जुगाड़ रहे हैं.

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छलका दर्द : झूठा दिलासा देकर वोट बटोर लेते हैं नेता

विस्थापित रूपक भारती ने बताया कि 2003 से अबतक पंचायत, विधानसभा व लोकसभा समेत कई चुनाव हुए. हर चुनाव में नेता आकर दिलासा देते हैं. जल्द ही आपलोगों को सरकार बसा देगी. जमीन दिया जायेगा, घर बना दिया जायेगा. बिजली, पानी हर तरह की व्यवस्था मिल जायेगी. हमें वोट दे दीजिये. वोट डालने हम चार किलोमीटर दूर चलकर अपने पुराने गांव जाते हैं. वोट डालकर थक गये, अबतक हालात वहीं के वहीं हैं. अखबारों में आये दिन पढ़ते हैं कि जिनके पास रहने को जगह नहीं, सरकार उसे तीन डिसमिल जमीन देती है. गांव से उजड़े हुए 15 साल बीत गये हैं. सरकार झांकने तक नहीं आयी है.

दसियों बीघा खेत के मालिक बन गये मजदूर

ग्रामीणों से जब कटाव की कहानी पूछी गयी तो विस्थापित वृद्ध सुबोध यादव की आंखे भर आयी. उन्होंने कहा कि कभी दसियों बीघा खेत का मालिकाना हक रखने वाले आज दूसरों के खेतों पर मजदूरी करने को विवश हैं. हमें कोसी माय से अभी भी आशा है. उसने जो भी हमसे छीना है, वह वापस लौटा देगी. 15 साल पहले हम अपनी जान बचाकर 2014 में स्टेशन के किनारे बसे. धीरे-धीरे हमारी जमीन दिखने लगी है, लेकिन इसपर रेगिस्तान की तरह बालू ही बालू दिख रहा है. इसपर मिट्टी भर आये, तो कम से कम कलाय-खेसारी उपज ही जायेगा. वृद्ध सुबोध यादव ने बताया कि हमारी जिंदगी किसी तरह कट गयी. भगवान करे हमारे बाल-बच्चों का घर बस जाये.

पहले खेती करते थे, अब चाय की दुकान चलाते हैं

ख रीक रेलवे स्टेशन की जमीन पर अपने परिवार के साथ विस्थापित जीवन बिता रहे अरविंद सिंह स्टेशन के सामने चाय की दुकान चलाते हैं. अरविंद सिंह ने बताया कि पहले वह खेती-बारी करते थे. हालात बद से बदतर होने के बाद अभी चाय बेचने को मजबूर हैं. सिकंदर ठाकुर ने बताया कि वह पहले खेतों में मजदूरी करते थे. गांव कटने के बाद खरीक स्टेशन के सामने सैलून चला रहे हैं.

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