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Exclusive: ग्रामीण इलाकों से खत्म होती जा रही दालान और बैठका की परंपरा, दादा-दादी की लोरियां-कहानियां भी समाप्त

Exclusive: ग्रामीण इलाकों से दालान और बैठका की परंपरा खत्म होती जा रही है. इसके साथ साथ दादा-दादी की लोरियां-कहानियां भी समाप्त होती जा रही है.

मनीष राज सिंघम/ औरंगाबाद. आज से करीब एक दशक पहलें गांव के चौक-चौराहों पर बने झोपड़ियों में बुजुर्गों व शिक्षितों का बैठक हुआ करता था. जैसे-जैसे देश डिजिटल दुनिया की ओर बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे इसकी परंपरा विलुप्त होते जा रही है. पूर्व के समय में इसे दालान, बैठका, बिगहा जैसे अलग-अलग जगहों पर विभिन्न नामों से जाना जाता था. ऐसी जगह अक्सर घर से कुछ दूरी पर या घर के बाहरी वाली भाग में होती है, जिसका दरवाजा अलग होता है और इसका घर से सीधा संपर्क नहीं होता है. दालान में अक्सर घर व गांव के बड़े-बुजुर्ग, गांव के अन्य लोग, घर आए मेहमान जो सीधे घर पर नहीं आकर दालान में बैठते थें. इसके बाद घर में संदेश जाता था कि फलाने जगह के फलाने रिश्तेदार आए हैं. दालान में कृषि कार्य का समान, पशुओं का आहार, ट्रैक्टर एवं पालतू पशुओं का भी निवास होता था, जो दालान के दूसरे कमरा या उसी दीवार से लगे फूस का छप्पर या खपड़ा का होता था. यह चारों तरफ से खुला होता था, जिसे हवादार भी कहा जाता था.

संयुक्त परिवार में दालान की होती थी बड़ी भूमिका: मुकेश

भारतीय रेलवे टेक्नीशियन मुकेश कुमार ने बताया कि संयुक्त परिवार में दालान, बैठका का महत्वपूर्ण भूमिका होता था. घर की महिलाओं का आपसी झगड़ा, महिलाओं का व्यक्तिगत जरूरत को लेकर सास-बहू-जेठानी-देवरानी-ननद-भौजाई की झगड़ा, बच्चों की मां द्वारा पिटाई या किसी और तरह का कलह जो घर के मालिक, बड़े-बुजुर्गों तक तत्काल सीधे नहीं पहुंच पाता था. इस परिस्थिति में शाम में या फिर एक-दो दिन बाद बच्चों या बुजुर्ग महिला द्वारा पुरुषों को पता चलता था. इसके बाद घर के मालिक, बड़े-बुजुर्गों द्वारा या तो नजर अंदाज या फिर समाधान कर दिया जाता था. घर पर बड़े -बुजुर्ग, मेहमान बड़ी जरूरत होने पर या फिर विशेष समय में खाना खाने जाते थें. बुजुर्गो का खाना ज्यादातर दालान पर ही आ जाता था. वर्तमान समय में दालान का परंपरा खत्म होने का मुख्य कारण, संपतियों से बढ़ता मोह, भाइयों का बंटवारा, छोटा परिवार की चाह, वर्तमान पीढ़ियों का कृषि से दूर होना, बच्चों की शिक्षा, परिवार का स्वास्थ्य और रोजगार के लिए पलायन तथा शहरीकरण का गावों पर पड़ता प्रभाव है. साफ तौर पर कहे तो जैसे-जैसे तेजी से विकास हो रहा है. वैसे-वैसे लोगों का नाता-रिश्ता दालान, बैठका से टूटता गया. जब बुजुर्ग या अनुभवी लोग एक साथ बैठते थे तो गप्पे लड़ाते थे.

राजनीतिक-समाजिक चर्चाएं जोर-शोर पर होती थी

राजनीतिक, समाजिक चर्चाएं भी काफी जोर-शोर से होती थी. वर्तमान समय में अब परिवार के बिखरने से घर छोटा होते जा रहे हैं. एक ही घर में दो-तीन भाइयों का रूम और मुख्य दरवाजे से सटा हुआ रूम, गेस्ट रूम अर्थात दालान है. पहले जब परिवार संयुक्त होता था तो बड़े-बुजुर्गों का वहीं बेड लगा होता था. आज घर की महिलाओं का झगड़ा, जरूरतें, कलह, ठहाका और उनका पहनावा बड़े-बुजुर्गों और घर आए मेहमानों को सीधा सुनाई और दिखाई देता है. यहां तक कि अधिकतर घर में स्नान घर और शौचालय भी सभी परिवारों का एक ही होता है. बुजुर्गों के सामने आने पर महिलाएं अपने सिर पर पल्लू से ढक लेती थी. हालांकि इस दौर में अब नाइटी और पश्चिमी सभ्यता के कपड़ों के कारण धीरे-धीरे वह रिवाज खत्म होती जा रही है. अब ऐसा लग रहा है कि बड़े-बुजुर्गों का आदर और सम्मान विलुप्त होते जा रहा है.

समाज से दूर होते जा रहे लोग

आज बड़े-बुजुर्ग अपने आत्म सम्मान ले लिए खुद अपनी आंख और कान बंद कर ले रहे हैं. वैसे बुजुर्ग, समाजिक व शिक्षित लोग और कर भी क्या सकते हैं. आज बेटा कमा रहा है और बहु मालकिन जो बनी ठहरी है. बुजुर्ग नाराज भी हों तो उनके किस्से, कहानियां, शरीर काम नहीं कर रहा है और बच्चें सुन नहीं रहें हैं. पहले दादा-दादी की लोरियां, गीत सुनकर बच्चें उनके गोद में ही सो जाते थे. अतः वर्तमान समय में परिवार के बड़े बुजुर्गों की आदर-सम्मान एवं उनकी जरूरत, अपनी संस्कृति, बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार और आधुनिक समाज में संतुलन बनाना कठिन तो है, लेकिन नामुमकिन नहीं है. ऐसे में बड़े-बुजुर्गों को भी वर्तमान परस्थिति में थोड़ा ढलना पड़ेगा. वहीं बच्चों को भी बड़े-बुजुर्गों का ध्यान, उनकी जरूरत और पसंद-नापसंद को ध्यान में रख कर गृह बनाने की आवश्यकता है. पुरानी यादें, कार्य, जजबातें, रिवाज़े और फिर से आ जाये. फिर से दालान, बैठका में बैठने के लोगों बड़े-बुजर्ग आ जाएं तो सुखी समृद्ध, बच्चें आज्ञाकारी होने लगेंगे. अब अगर बच्चों को कुछ कहा जाए तो वे सीधा आनाकानी करने लगते है. सीधी बात पर उल्टे जवाब देने लगते हैं.

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