मशहूर. उमगा मेले में आनेवालों की पहली पसंद है लकठाे
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श्रीडीह के लकठो की खुशबू से झारखंड व बंगाल सराबोर
मशहूर. उमगा मेले में आनेवालों की पहली पसंद है लकठाे गुड़ व आटे से बनाया जाता है लकठा मदनपुर : जिले के मदनपुर प्रखंड स्थित नक्सल प्रभावित गांव श्रीडीह जो एनएच दो से करीब पांच किलोमीटर दक्षिण दिशा में बसा है. यह गांव आटा व गुड़ से बनने वाला लकठो के लिए सदियों से पहचान […]
गुड़ व आटे से बनाया जाता है लकठा
मदनपुर : जिले के मदनपुर प्रखंड स्थित नक्सल प्रभावित गांव श्रीडीह जो एनएच दो से करीब पांच किलोमीटर दक्षिण दिशा में बसा है. यह गांव आटा व गुड़ से बनने वाला लकठो के लिए सदियों से पहचान बनाये हुए हैं. यहां के लोग सदियों से इस कारोबार से जुड़े हैं. श्रीडीह गांव में सालों भर लकठो बनाया जाता है. भले ही तिलकुट के लिए गया व मीठा समोसा के लिए सासाराम के बरांव प्रसिद्ध है.
उसी प्रकार श्रीडीह का लकठो प्रसिद्ध है. ग्रामीणों ने बताया कि चीनी से निकलने वाले रस को गर्म करने के बाद उसे गुड़ बनाने के बाद उसे दोबारा खौला कर लकठो का रूप दिया जाने लगा. श्रीडीह में बनने वाले लकठो की मांग औरंगाबाद के प्राचीन तीर्थ स्थली देव व उमगा के मेले में खूब है. मेले में आने वाले ग्रामीणों की पहली पसंद श्रीडीह का लकठो होता है. लकठो का निर्माण आटा व गुड़ से किया जाता है. पहले तीसी तेल में बनाया जाता था, लेकिन अब उसकी जगह रिफाइन ने ले ली है.
कैसे शुरू हुआ लकठो का प्रचलन : यहां के लोगों का कहना है कि सदियों पूर्व गन्ने के रस को खौला कर गुड़ बनाते थे. उसी गुड़ को खौलाने के बाद उसके सूखने पर निकलने वाली सोंधी खुशबू लोगों को भाने लगी. इसी दौरान लोगों ने गुड़ व आटा से खजुरी बनाने लगे, खजुरी बनाते-बनाते लोग लकठो बनाना प्रारंभ किया. उन दिनों आसपास के ग्रामीण इलाकों के लोगों तक ही इसकी बिक्री की जाती थी.
श्रीडीह के 20 से 25 घरों में होता है काम : श्रीडीह में लकठो पारंपरिक कारोबार बन गया है. करीब 20 से 25 घरों में बनने वाला लकठो में पूरा परिवार जुटा रहता है. यहां प्रतिदिन 5 से 10 क्विंटल लकठो बनाया जाता है. प्रति घर 30 से 40 किलो लकठो लगभग तैयार होता है. लकठो की कीमत थोक में 55 रुपए और खुदरा में 60 रुपये किलो बेचा जा रहा है.
दूसरे राज्यों से भी आते हैं खरीदार
राज्य के विभिन्न जिलों के अलावा पड़ोसी राज्य झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल व मध्यप्रदेश में श्रीडीह के लकठो की मांग है. बताया जाता है कि मदनपुर प्रखंड के आसपास के गांव के खुदरा व थोक दुकानदार लकठो को लेने यहां आते हैं. इतना ही नहीं देश के अन्य राज्यों में रहने वाले लोगों के लिए संदेश के रूप में लकठो ले जाना लोग नहीं भूलते हैं. झारखंड के हरिहरगंज, पलामू व जपला के ग्रामीण क्षेत्रों में श्रीडीह में बने लकठो की खूब मांग है. पूर्वजों की पारंपरिक रोजगार आज भी श्रीडीह की पहचान लकठो से बनी हुई है.
क्या कहते हैं कारीगर
कारीगर नगीना महतो कहते हैं कि पूर्वजों के कारोबार को चला रहे हैं. इसके विस्तार के लिए सरकारी सहयोग नहीं मिल रहा है. आज लकठो के कारण श्रीडीह ही नहीं मदनपुर की भी एक पहचान है. सामान के दाम बढ़ने से लकठो का दाम बढ़ गया है दाम बढ़ने की स्थिति में कारीगर रख कर लकठो बनाने में नुकसान हो जाता है. इसलिए पूरा परिवार मिल कर इसे बनाते हैं कारीगर केदार साव ने कहा की लकठो बनाने में जितनी मेहनत व पूंजी की जरूरत पड़ती है उसमें सरकारी सहायता और मार्केटिंग का साधन रहता तो यह कारोबार काफी आगे बढ़ता. गया व सिलाव की तरह यहां के लकठो के लिए समुचित बाजार की जरूरत है.
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