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गुरु निरुपम ही नहीं, बल्कि अलौकिक है

हमारे अनुभव हमें नित्य आगे बढ़ाते रहते हैं और हम अपने इहलौकिक जीवन के अर्थ को अधिकाधिक गहराई में जाकर समझने का प्रयास करते रहते हैं. फिर एक समय ऐसा आता है जब हम में से प्रत्येक व्यक्ति अंतिम सत्य की खोज गंभीरता से करने लगता है.

हमारे अनुभव हमें नित्य आगे बढ़ाते रहते हैं और हम अपने इहलौकिक जीवन के अर्थ को अधिकाधिक गहराई में जाकर समझने का प्रयास करते रहते हैं. फिर एक समय ऐसा आता है जब हम में से प्रत्येक व्यक्ति अंतिम सत्य की खोज गंभीरता से करने लगता है. जिस मनुष्य की चेतना इस स्तर तक विकसित हो जाती है, वह अपने आप से प्रश्न पूछने लगता है- ‘जीवन क्या है? मैं क्या हूं? मैं कहां से आया हूं?’ तब प्रभु ऐसे मुमुक्षु को किसी उपदेशक के पास लाकर या शास्त्रों की या तत्वज्ञान की पुस्तकें दिला कर उसकी प्रारंभिक जिज्ञासा की तृष्णा बुझाने के द्वारा प्रत्युत्तर देते हैं. जैसे-जैसे वह दूसरों के ज्ञान को आत्मसात करता जाता है, वैसे-वैसे उसकी समझ विकसित होती जाती है और उसकी आध्यात्मिक उन्नति गति पकड़ती है. वह सत्य या ईश्वर के थोड़ा समीप सरकता है. यहां देखें योगदा सत्संग की आध्यात्मिक गुरु श्री श्री मृणालिनी माता का लेख

अंतत: यह ज्ञान भी अपर्याप्त लगता है. वह सत्य का साक्षात्कार स्वयं करने के लिए लालायित हो उठता है. उसके अंतर में विद्यमान आत्मा उसे सोचने पर उद्यत करती है : ”यह संसार मेरा निवास तो हो ही नहीं सकता! मैं केवल यह शरीर नहीं हो सकता, यह तो केवल एक अस्थायी पिंजरा लगता है. अवश्य ही जीवन मेरी इंद्रियां जितना ग्रहण कर सकती हैं, उससे कहीं अधिक हैं, कुछ ऐसा जो मृत्यु से परे भी अस्तित्व रखता है. मैंने सत्य के बारे में पढ़ा है, सत्य के बारे में सुना है. अब मुझे सत्य को जानना होगा!”

अपनी संतान की ऐसी तीव्र व्यथात्मक पुकार का उत्तर देने के लिए करुणामय भगवान उसके पास किसी प्रबुद्ध मार्गदर्शक को भेजते हैं, ऐसा मार्गदर्शक जिसने आत्मा को पहचान लिया है और यह जान गया है कि आत्मा ही परमात्मा है- एक सच्चा गुरु. ऐसे गुरु के जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति निर्बाध रूप से नित्य प्रकट होती रहती है.

आद्य शंकराचार्य ने गुरु की व्याख्या इस प्रकार की है- ”तीनों लोकों में गुरु का कोई समतुल्य नहीं है. यदि पारसमणि की तुलना भी गुरु से की जाये, तो पारसमणि केवल (लोहे को) सुवर्ण में रूपांतरित कर सकता है, दूसरी पारसमणि में रूपांतरित नहीं कर सकता. सद्गुरु के चरणों में जो आश्रय लेते हैं, उन्हें गुरु अपने समान ही बना देता है. इसलिए गुरु निरुपम ही नहीं, बल्कि अलौकिक है.”

गुरु और शिष्य के बीच संबंध में सबसे पहला नियम है निष्ठा. हमारा अहंभाव, अर्थात क्षुद्र ‘मैं’ की चेतना तथा अस्तित्वबोध, ही वह एकमात्र तत्व है, जो हमें ईश्वर से दूर रखता है. जिस पल व्यक्ति अहंभाव को मिटा देता है, उसी पल वह अनुभव कर लेता है कि वह सदा ही ईश्वर के साथ एकरूप रहा है, अभी भी है, और हमेशा रहेगा. सच्चा शिष्य बनने के लिए शिष्य को भगवान द्वारा भेजे गये गुरु के प्रति निष्ठावान होना चाहिए. उसे अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठा से और अनन्य भाव से पालन करना चाहिए.

केवल निष्ठा के द्वारा ही साधक भगवान की खोज में अपने सारे प्रयासों को एकाग्र कर सकता है. निष्ठावान शिष्य की चेतना दिव्य प्रेम से चुंबकित हो जाती है और अनिवार्यत: ईश्वर की ओर खिंच जाती है.

शिष्य के शिष्यत्व में एक मूल आवश्यकता है उसकी अपनी अनुशासनहीन, अविवेकी इच्छाशक्ति को अपने गुरु के उपदेशों के आज्ञापालन में झुकाने की, अपनी अहं केंद्रित इच्छाशक्ति को गुरु की ईश्वर के साथ एक हुई इच्छा शक्ति के आगे समर्पित करने की क्षमता.

गुरु की इच्छा का पालन करते हुए शिष्य देखता है कि धीरे-धीरे वह अहंकार-जनित इच्छाओं, आदतों एवं मनोभावों के बंधनों से मुक्त हो रहा है और कभी अत्यंत अशांत एवं चंचल रहनेवाला मन इधर-उधर भागना बंद कर एकाग्र होने की क्षमता विकसित करने लगता है. जब वह सही प्रकार से केंद्रित होता है, तो शिष्य की मानस-दृष्टि निर्मल होने लगती है.

जब तक शिष्य का विवेक पूर्णत: विकसित नहीं हो जाता तब तक गुरु के मार्गदर्शन के आगे समर्पण और उसके आदेशों का पालन ही शिष्य के लिए मुक्ति की एकमात्र आशा है. गुरु का विवेक ही उसे बचा सकता है.

श्रीमद्भगवद्गीता (IV:36) में कहा गया है कि विवेक का बेड़ा सबसे बड़े पापी को भी भवसागर के पार ले जायेगा. गुरु द्वारा दी गयी साधना करता हुआ शिष्य अपना विवेक रूपी भवतारक बेड़ा स्वयं ही बना लेता है.

शिष्य का आज्ञापालन मन:पूर्वक तथा संपूर्ण हृदय के साथ होना चाहिए. केवल मुख से गुरु की भक्ति करना और अपने अहंकार के निर्देशों के अनुसार व्यवहार करना मूर्खता है. आध्यात्मिक पथ पर जो अपने प्रयासों में धोखा देता है, वही स्वयं नुकसान उठाता है.

गुरु की आज्ञाओं का पालन :

परमहंस जी प्राय: हमलोगों से कहते थे, गुरु को प्रसन्न करने का एकमात्र तरीका है उचित आचरण, जिससे वे हमें मुक्ति प्रदान कर सकें. नित्य उचित आचरण तभी संभव होता है जब साधक ईश्वर के माध्यम-गुरु- के आगे समर्पण कर उसकी आज्ञाओं का पालन करता है.

मात्र गुरु ही कह सकता है- ‘यह मार्ग ईश्वर तक पहुंचा देगा.’ शिष्य को यदि अंधानुकरण भी करना पड़े, तो भी उसका मार्ग सुरक्षित और निश्चित है.

”परंतु गुरुदेव! आप योगानंद हैं. आप ईश्वर के साथ एक हैं. शिष्य ने आशा की थी कि गुरुदेव कहेंगे, ”हां! तुम ठीक कहते हो. तुम जितना चाहो समय लो. अंत में सफल हो ही जाओगे.”

परंतु गुरुदेव ने कहा, ”तुम में और एक योगानंद में केवल इतना ही अंतर है, मैंने प्रयास किया, अब तुम्हें प्रयास करना है!”

जिन शिष्यों को गुरुदेव प्रशिक्षित करते थे, उनसे वे दो उत्तर कभी भी स्वीकार नहीं करते थे- ‘मैं नहीं कर सकता’, और ‘मैं नहीं करूंगा’. वे कहते थे कि साधक को प्रयास करने का इच्छुक होना ही चाहिए.

वेद शास्त्र कहते हैं कि अपनी आत्मा को ईश्वर तक वापस लाने के लिए जितनी शक्ति आवश्यक है, उसमें शिष्य का प्रयास केवल पचीस प्रतिशत हिस्सा ही होता है. दूसरा पचीस प्रतिशत गुरु के आशीर्वाद प्रदान करते हैं. अन्य पचास प्रतिशत ईश्वर की कृपा प्रदान करती है. इस प्रकार शिष्य के प्रयास के बराबर ही गुरु का प्रयास होता है, और ईश्वर गुरु एवं शिष्य दोनों मिल कर जितना करते हैं, उतना स्वयं करता है. शिष्य जब अपने हिस्से का प्रयास पूर्ण करने की जी-तोड़ चेष्टा करता है तब गुरु और ईश्वर के आशीर्वाद उसके साथ अपने आप ही होते हैं.

श्री मृणालिनी माता उन चुनिंदा शिष्यों में से थीं, जिन्हें स्वयं परमहंस जी ने योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षित किया था और वे 2011 में वाइएसएस/एसआरएफ की चौथी अध्यक्ष बनीं.

अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक परमहंस जी ने मृणालिनी माता के आध्यात्मिक प्रशिक्षण पर हर दिन ध्यान केंद्रित किया और उनके देहत्याग के बाद उनकी पांडुलिपियों और व्याख्यानों के प्रकाशन के लिए संपादन किस प्रकार करना है, इसके बारे में व्यक्तिगत निर्देश देते रहे. 3 अगस्त, 2017 को शांतिपूर्वक इस जगत का त्याग कर वे परमात्मा में आनंद एवं स्वतंत्रता के शाश्वत लोक में चली गयीं.

परमहंस योगानंदजी : गुरु शृंखला में अंतिम गुरु

शरीर छोड़ने से पहले परमहंस योगानंदजी ने बताया था कि यह ईश्वर की ही इच्छा थी कि वह वाइएसएस गुरुओं की शृंखला में अंतिम होंगे. उनके बाद कोई भी उनका शिष्य अथवा अग्रणी इस सोसाइटी में गुरु नहीं कहलायेगा.

भक्ति के इतिहास में इस प्रकार का दैवीय विधान विचित्र नहीं है. गुरु नानकदेव, महान्‌ संत जो सिख धर्म के संस्थापक थे, की परंपरा में कई गुरु हुए. गुरु शृंखला में दसवें गुरु के बाद यह घोषणा की गयी कि वे ही अंतिम गुरु माने जायेंगे और उनके बाद शिक्षाएं ही गुरु होंगी.

परमहंसजी ने यह आश्वासन दिया कि इस संसार से चले जाने के बाद भी वे उनके द्वारा संस्थापित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया/सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप के माध्यम से निरंतर कार्यरत रहेंगे. उन्होंने कहा, “मेरे जाने के बाद शिक्षाएं ही गुरु होंगी… शिक्षाओं के माध्यम से आप मेरे साथ और उन सब गुरुओं के साथ समस्वर हो सकेंगे, जिन्होनें मुझे यहां भेजा है.”

Posted By: Shaurya Punj

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