जिस दिन तुम्हारा अहंकार परिपूर्ण रूप से गिर जाता है और तुम्हें लगता है कि मेरे किये कुछ भी न होगा, क्योंकि मेरे किये अब तक कुछ न हुआ; जब तुमने कुछ किया और हर बार असफलता हाथ लगी, जब कर-करके तुमने सिर्फ दुख ही पाया, कर-करके नर्क ही बनाया और कुछ न बनाया.
जब यह पीड़ा सघन होगी, जब तुम पूरे असहाय मालूम पड़ोगे, उस असहाय क्षण में ही समर्पण घटित होता है. वह तुम्हारा कृत्य नहीं है. वह तुम्हारे कृत्य की पराजय है. हारे को हरिनाम! जब तुम्हारी हार इतनी प्रगाढ़ हो गयी कि अब जीत की कोई आशा भी न बची, जब तुम्हारी हार अमावस की अंधेरी रात हो गयी कि अब एक किरण भी अहंकार की शेष नहीं रही, जब तुम्हें लगता है कि तुम कुछ नहीं कर पाओगे.
पराजय की परिपूर्णता में समर्पण घटित होता है. कोई किरण तुम संभाले हुए हो. तुम सोचते हो, इस बार नहीं हुआ, अगली बार होगा, आज नहीं हुआ, कल हो जायेगा. आज हार गया, क्योंकि मैंने चेष्टा ही पूरी न की. सभी हारे हुए हार को समझा लेते हैं. हार को स्वीकार कौन करता है? हारा हुआ समझा लेता है कि लोग विरोध में थे. समझाना छोड़ो! उस समझाने में ही, उस तर्क में ही, तुम्हारा अहंकार शेष रह जाता है.
– आचार्य रजनीश ओशो