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हमारा अपना शुद्ध स्वरूप
हमारा शरीर एक इंजन की तरह होता है. इस शरीर में दो प्रकार के काम हो रहे हैं-एक अपनी इच्छा से दूसरी अनिच्छा से. अपनी इच्छा से किये गये काम वे हैं, जो मन, बुद्धि द्वारा होते हैं, जैसे लिखना-पढ़ना, चलना, बोलना, बैठना, खाना-पीना आदि. इसके अतिरिक्त अनेक क्रियाएं और कार्य ऐसे हो सकते हैं, […]
हमारा शरीर एक इंजन की तरह होता है. इस शरीर में दो प्रकार के काम हो रहे हैं-एक अपनी इच्छा से दूसरी अनिच्छा से. अपनी इच्छा से किये गये काम वे हैं, जो मन, बुद्धि द्वारा होते हैं, जैसे लिखना-पढ़ना, चलना, बोलना, बैठना, खाना-पीना आदि.
इसके अतिरिक्त अनेक क्रियाएं और कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो सीधे-सीधे किये जा रहे हैं और जिनमें किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं. उदाहरण के लिए-सांस लेना, नाड़ियों में रक्त संचार, बालों का बढ़ना, हमारे शरीर के अंगों का उम्र के अनुसार विकसित होना आदि. अपने शरीर के साथ अपने जीवन की हर वह चीज जो विकसित हुई है, उसे हमने खुद ही विकसित किया है. अब यदि ध्यान दें तो कितना कार्य, कितनी क्रियाएं हम प्रत्येक क्षण में करते रहते हैं. दोनों तरह के यानी ऐच्छिक और अनैच्छिक में हम ऐच्छिक को ज्यादा महत्व देते हैं.
अनैच्छिक क्रियाएं भी हमारे विकास के लिए उत्तरदायी होती हैं, लेकिन पता नहीं क्यों, लोग यह भूल करते हैं कि केवल उन्हीं कामों को अपने किये हुए मानते हैं, जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम से होते हैं और उन सब कार्यो को अस्वीकार कर देते हैं, जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम बिना सीधे-सीधे हो रहे हैं.
इस भूल तथा लापरवाही से हम अपने शुद्ध स्वरूप को मन के बंदीगृह में बंदी बना लेते हैं. इस प्रकार हम असीम को ससीम और परिच्छिन्न बना कर दुख भोगते हैं.
स्वामी रामतीर्थ
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