अध्यात्म के क्षेत्र में तप का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है. जैन वा्मय में मोक्ष के साधनों में तपस्या को भी स्थान दिया गया है. मोक्ष के दो साधन हैं- संवर और निर्जरा. संवर कर्म के आगमन का निरोध करता है और निर्जरा पूर्वार्जित पाप कर्मो को खपाने का काम करती है. तपस्या शारीरिक भी होती है, वाचिक भी होती है और मानसिक भी होती है. जितना तपस्या का क्रम आगे बढ़ेगा, उतना साधना में निखार आयेगा.
तपस्या के साथ एक विशेष बात यह होनी चाहिए कि सकाम तपस्या हो अर्थात् मोक्ष की कामना से तपस्या हो, अन्य किसी कामना से न हो. निर्जरा के सिवाय अन्य किसी उद्देश्य से तपस्या नहीं करनी चाहिए. यदि तपस्या के साथ निदान कर लिया जाता है, तो वह एक प्रकार से तपस्या को बेचने का-सा काम हो जाता है. फिर उस तपस्या से मिलनेवाले आध्यात्मिक फल में कमी आ जाती है. जैसे कोई व्यक्ति यह निदान कर लेता है कि मेरी तपस्या का मुझे यह फल मिले कि मैं बड़ा राजा बन जाऊं, बलवान शरीर वाला व्यक्ति बन जाऊं आदि.
ऐसी कोई आकांक्षा हो, तो तपस्या कमजोर हो जायेगी, निर्वीर्य हो जायेगी. कभी-कभी साधुओं के मन में भी छद्मस्थतावश कोई आकांक्षा हो सकती है. आदमी सेवा करता है, वह भी तपस्या है, पर सेवा के साथ फलाकांक्षा न हो कि वापस वह मेरी सेवा करे या मुझे सेवा के बदले में कुछ पुरस्कार मिले. सबसे बड़ा पुरस्कार निर्जरा है. निर्जरा का लाभ मिल गया, इससे बड़ा कोई पुरस्कार नहीं है. गीता में तपस्या के तीन प्रकार बताये गये हैं- शारीर तप, वा्मय तप और मानस तप.
आचार्य महाश्रमण