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Friday, March 29, 2024

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प्रवासी मजदूरों की पीड़ा झलकी गुलजार साहब की कविता में, लिखा-मरेंगे तो वहीं जाकर, जहां जिंदगी है…

समय के साथ ही कोविड 19 महामारी का असर व्यापक होता जा रहा है. इस महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों पर पड़ रहा है, जो मजदूर अपना घर-बार छोड़कर बाहर जाते हैं और प्रवासी मजदूर बन जाते हैं, उनकी व्यथा इन दिनों कही नहीं जा रही है. जिस भी इंसान में संवेदना जीवित है, वह गमगीन है. ऐसे में गुलजार साहब भी खुद को रोक नहीं पाये हैं और उन्होंने प्रवासी मजदूरों पर एक कविता लिखी है.

समय के साथ ही कोविड 19 महामारी का असर व्यापक होता जा रहा है. इस महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों पर पड़ रहा है, जो मजदूर अपना घर-बार छोड़कर बाहर जाते हैं और प्रवासी मजदूर बन जाते हैं, उनकी व्यथा इन दिनों कही नहीं जा रही है. जिस भी इंसान में संवेदना जीवित है, वह गमगीन है. ऐसे में गुलजार साहब भी खुद को रोक नहीं पाये हैं और उन्होंने प्रवासी मजदूरों पर एक कविता लिखी है.

‘महामारी लगी थी’ इस कविता को गुलजार ने अपने फेसबुक पेज पर डाला है. जिसमें वे इस कविता का पाठ अपने शानदार अंदाज में कर रहे हैं. इस कविता में प्रवासी मजदूरों की मजबूरी का बखूबी बयां किया गया है. कैसे प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट रहे हैं और उनके अंदर गांव जाने की चाह क्यों है? गुलजार साहब लिखते हैं-वे वहीं जाकर मरना चाहते हैं, जहां जिंदगी है. वे उस जगह को छोड़ना चाहते हैं जहां वे इंसान नहीं मजदूर कहे जाते हैं. गांव में जमीन का झगड़ा है तो खुशियां भी हैं. गुलजार साहब लिखते हैं महामारी लगी थी, घरों को भाग लिये थे सारे मजदूर. मशीनें बंद हो चुकीं थीं शहर कीं. देखें वीडियो-

https://www.facebook.com/gulzaronline/videos/632498600671884/

महामारी लगी थी घरों को भाग लिये थे सभी मज़दूर, कारीगर. मशीनें बंद होने लग गयी थीं शहर की सारी उन्हीं से हाथ पांव चलते रहते थे वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आये थे. वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़ कटाई और बुआई सब वहीं तो थी.ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब. वो बंटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े लठैत अपने, कभी उनके. वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे. सगाई, शादियां, खलियान,सूखा, बाढ़, हर बार आसमां बरसे न बरसे. मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है. यहां तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !निकालेंं प्लग सभी ने,‘ चलो अब घर चलें ‘ – और चल दिये सब, मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !

– गुलज़ार

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