–डॉ शाह आलम राना/ डॉ शालीन सिंह–
Mahua Dabar : देश को स्वतंत्र कराने में क्रांतिकारियों की सबसे अहम भूमिका रही है. 168 वर्ष पूर्व सिर पर कफन बांध कर चलने वाले ऐसे वीर रणबांकुरों की स्मृतियां ताजा करने का वक्त है, जिन्हें समय ने भुला देने की कोशिश की. 1857 की क्रांति की चिंगारी जब मेरठ से उठी, तो उसने पूरे भारत को आग की लपटों में झुलसा दिया. गोरखपुर जनपद के बस्ती तहसील पर स्थित अफीम और ट्रेजरी की कोठी पर 17वीं नेटिव इनफेन्ट्री की एक बड़ी टुकड़ी सुरक्षा के लिए तैनात थी. इस यूनिट का मुख्यालय आजमगढ़ में था. 5 जून को आजमगढ़ में विद्रोह शुरू हो गया, 6 जून को सिपाहियों ने आदेश मानने से इनकार कर दिया और 7 जून को जेल से भागने की कोशिश में 20 कैदी मारे गए. गोरखपुर में सिपाहियों ने 8 जून को खजाना लूटने का प्रयास किया, कैप्टन स्टील की 12वीं अश्वारोही फौजें भी बैकफुट पर आ गईं. फैजाबाद और गोंडा के सिपाहियों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
8 जून को फैजाबाद छावनी पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया. 9 जून को बस्ती होते हुए कुछ अंग्रेज अफसर फैजाबाद से निकलकर अमोढ़ा पहुंचे, जहां उन्हें जमींदार के संरक्षण में कुछ देर के लिए शरण मिली. 10 जून 1857 को मनोरमा नदी पार कर रहे इन अंग्रेज अफसरों पर महुआ डाबर, अमिलहा, मुहम्मदपुर, नकहा आदि गांवों के वीरों— गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, जाफ़र अली और अन्य साथियों ने धावा बोल दिया. इस गुरिल्ला युद्ध में लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लिंडसे, थॉमस, कॉटली, एन्साइन रिची, सार्जेंट एडवर्ड मारे गए. घायल सार्जेंट बुशर को कलवारी के जमींदार बाबू बल्ली सिंह ने बंधक बना लिया, जिसे 10 दिन बाद रिहा कराया गया.
महुआ डाबर में मार्शल लॉ लगा
ब्रिटिश सरकार महुआ डाबर हमले से बौखला गई. 20 जून को बस्ती में मार्शल लॉ लगा दिया गया. 3 जुलाई को गोरखपुर के कलेक्टर पेपे विलियम्स ने घुड़सवार फौजों के साथ महुआ डाबर को चारों ओर से घेर कर जला दिया और ‘ग़ैरचिरागी’ घोषित कर दिया गया. गांव के बचे हुए लोगों के सिर कलम किए गए, संपत्ति जब्त कर राजकोष में जमा कराई गई. गुलाम खां, गुलजार खां, नेहाल खां, घीसा खां सहित कई क्रांतिकारियों को 18 फरवरी 1858 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. महिपत सिंह ने क्रांतिकारियों की मुखबिरी कर तीन हजार रुपये सालाना लगान वाली ज़मीन इनाम में प्राप्त की.
21 मई 1858 को क्रांतिकारियों ने पेपे विलियम्स के ठिकाने पर हमला कर दिया, जिसमें 17 लोग मारे गए. 12 जून 1859 को पेपे पर अंतिम हमला हुआ जिसमें वह घायल हो गया और उसकी एक उंगली कट गई. 6 अक्टूबर 1860 को ‘महुआ डाबर प्रोसीडिंग’ में दर्ज अदालती कार्यवाहियों में विरोधाभास सामने आए, जिनमें गवाहियों और दस्तावेजों की कमी साफ झलकती है. मेहरबान खां को फांसी और दो कर्मचारियों को कालापानी की सजा हुई.
10 जून का दिन नायकों की स्मृति को समर्पित
महुआ डाबर के क्रांतिवीर जमींदार जाफ़र अली मक्का चले गए, फिर लौटकर दोबारा संग्राम में शामिल हुए, पकड़े गए और बस्ती में मुकदमा चलाकर फांसी दे दी गई. 1999 में स्थापित ‘महुआ डाबर संग्रहालय’ में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े दस्तावेज, सिक्के, औजार, चित्र और समाचार पत्र संजोए गए हैं. 2011 में पुरातात्विक खुदाई के बाद इस स्थल को उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के ‘स्वतंत्रता संग्राम सर्किट’ में शामिल किया गया है.
महुआ डाबर की राख में दबा इतिहास आज भी एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में पुनर्जीवन की राह ताक रहा है. 10 जून का दिन उन नायकों की स्मृति में है, जिन्होंने मिटकर भी इतिहास में अमरता पाई.
(डॉ. शाह आलम राना महुआ डाबर संग्रहालय के महा निदेशक हैं और डॉ. शालीन सिंह एस एस पीजी कालेज, शाहजहांपुर में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष हैं)